बिहार चुनाव कैसे बनने जा रहा छोटी-छोटी लड़ाइयों का गवाह?
इस बार पहले चरण के चुनाव से ठीक पहले महागठबंधन में सहमति बनी और तेजस्वी यादव को मुख्यमंत्री का चेहरा घोषित किया गया. इस बार बिहार का चुनाव कई छोटी-छोटी लड़ाइयों का गवाह बनने जा रहा.

यह दीपावली के ठीक अगले दिन की बात है. मुजफ्फरपुर में चुनावी सभा के लिए सजे मंच पर नीतीश कुमार अपना 28 मिनट का चुनावी भाषण समाप्त कर चुके थे. दो आसपास के विधानसभा क्षेत्रों के राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) उम्मीदवारों को जीत की माला पहनाने की रस्म निभाने के लिए आमंत्रित किया गया.
औराई से भाजपा उम्मीदवार रमा निषाद आगे आईं. नीतीश ने उन्हें माला पहनाने के लिए हाथ आगे बढ़ाया. तभी जनता दल (यूनाइटेड) के कार्यकारी अध्यक्ष संजय झा ने मौके की नजाकत को देखते हुए सहज तौर पर हस्तक्षेप किया. आखिर, सत्तर वर्षीय सीएम के लिए कैमरों के सामने एक महिला को माला पहनाना क्या उचित होगा? नीतीश ठिठके लेकिन फिर माइक पर स्पष्ट तौर पर नाराजगी के साथ उनकी कुछ मजाकिया अंदाज वाली झिड़की गूंजी, ''गजब आदमी है भाई, हाथ काहे पकड़ते हो?’’
जाहिर है, ये झगड़ा दोस्ताना ही था लेकिन बिहार में हाल ही में ऐसे कई छोटे-मोटे दोस्ताना टकराव सामने आए हैं जिन्होंने सियासी माहौल में गर्माहट पैदा कर दी है. जैसे-जैसे मतदान का दिन करीब आ रहा है, ऐसा लग रहा है कि मुकाबला सीधे तौर पर दो गठबंधनों एनडीए और महागठबंधन के बीच ही नहीं है. बल्कि कई स्तर पर छोटे-छोटे मुकाबले चल रहे हैं. हर कोई एक-दूसरे के खिलाफ है—एनडीए बनाम एनडीए, महागठबंधन बनाम महागठबंधन, और हर घटक दल के भीतर इसके छोटे-छोटे गुट भी आपसी मुकाबला करने में पीछे नहीं.
राजद के जोशीले युवा नेता तेजस्वी यादव ने नीतीश कुमार का क्लिप सोशल मीडिया पर पोस्ट करने में जरा भी देर नहीं लगाई. हालांकि उन्हें अपने पाले में भी देखना था, कम से कम 23 अक्तूबर तक, जो नामांकन वापस लेने का आखिरी दिन था. उस दिन जाकर उन्हें आखिरकार महागठबंधन की ओर से मुख्यमंत्री पद का सर्वसम्मत चेहरा घोषित किया गया. इससे न सिर्फ एक अहम मांग पूरी हुई, बल्कि दो बड़े सितारों—तेजस्वी और राहुल गांधी—के बीच महागठबंधन को एक चेहरा मिला.
विकासशील इंसान पार्टी के मुकेश सहनी, जो बार-बार इधर-उधर डगमगा रहे थे, उन्हें भी डिप्टी सीएम का चेहरा बनाकर शांत किया गया. इससे भी बड़ी बात, महागठबंधन में दरअसल दर्जन भर सीटों पर सहयोगी ही एक-दूसरे पर बंदूकें ताने हुए थे. ऐन वक्त के शांति मिशन से यह संख्या कम नौ तक रह गई. महत्वाकांक्षा को पैर पसारने के लिए आखिर जगह तो चाहिए ही. और 243 सीटों वाली बिहार विधानसभा के नक्शे में पांव पसारने की इतनी ही जगह है.
एनडीए के भीतर भी आपसी सामंजस्य का खासा अभाव है. यह आंतरिक मतभेद सिर्फ निर्वाचन क्षेत्र स्तर की लड़ाइयों में ही नजर नहीं आ रहा बल्कि बागी उम्मीदवारों के रूप में भी दिख रहा है. इसकी एक वजह गठबंधन के भीतर कायम बेचैनी भी है. जदयू को तो अपना अस्तित्व ही खतरे में लग रह है. खासकर, नीतीश की पुरानी समता पार्टी के साथी डरते हैं कि प्रतिकूल समय में उनका विस्तारवादी राष्ट्रीय सहयोगी उन्हें किनारे लगाने में कोई कसर नहीं छोड़ेगा.
लोक जनशक्ति पार्टी (लोजपा) नेता चिराग पासवान इस अंदेशे को और हवा दे रहे हैं. बहरहाल, इन सबको एक सूत्र में पिरोए रखने वाले नीतीश कुमार ही हैं, जिनके निष्ठावान वोट बैंक का इस्तेमाल अभी हर कोई करना चाहता है. हालांकि भाजपा ने उन्हें सीएम का चेहरा घोषित नहीं किया है.
महा गड़बड़?
महागठबंधन में सीट-शेयरिंग को लेकर चल रही गड़बड़ी के दरअसल इतिहास में एक बड़ी त्रासदी के रूप में दर्ज होने का खतरा था. इसकी वजह और कुछ भी नहीं बस अकड़ होती. राजद ने एकतरफा तौर पर 143 नामों की पूरी लिस्ट जारी कर दी—2020 से सिर्फ एक कम. एक नामांकन रद्द होने के बाद यह संख्या 142 रह गई. कांग्रेस ने 60 उम्मीदवारों के नाम घोषित किए.
छोटे सहयोगियों में भाकपा (माले) ने 20 नाम दिए; सहनी की वीआइपी ने एक कैंसिलेशन के बाद 14; भाकपा ने 10; माकपा ने चार; और आइ.पी. गुप्ता की इंडियन इंक्लूसिव पार्टी ने तीन नाम दिए. यानी, 23 अक्तूबर तक महागठबंधन के पास 241 सीटों पर 253 उम्मीदवार थे! सहयोगी 12 सीटों पर एक-दूसरे के खिलाफ लड़ रहे थे—छह सीटों पर राजद और कांग्रेस आमने-सामने थे. कांग्रेस पिछली बार से नौ सीटें कम लड़ रही थी लेकिन उसकी जिद की वजह से 10 सीटों पर सहयोगी एक दूसरे के खिलाफ हो गए थे.
माहौल इतना बिगड़ गया कि अपनी महत्वाकांक्षाएं ताक पर रखकर कांग्रेस ने 22 अक्तूबर को राजस्थान के पूर्व मुख्यमंत्री अशोक गहलोत को शांति दूत बनाकर पटना भेजना ही उचित समझा. उन्होंने तेजस्वी और लालू प्रसाद से मुलाकात की और महागठबंधन की गांठें सुलझने का ऐलान किया. तेजस्वी को मुख्यमंत्री पद का चेहरा बनाने पर सहमति बनी. इसके साथ ही राजद के खिलाफ कांग्रेस ने दो और वीआइपी ने एक उम्मीदवार वापस लिया. यह एक मुश्किल बचाव अभियान था, जिसकी शायद जरूरत ही नहीं पड़ती अगर तेजस्वी और राहुल अपनी यात्रा के दौरान दिखाई गई दोस्ती को थोड़ा सहेजकर रखते.
एनडीए त्रिकोण
पांच दलों वाले सत्तारूढ़ गठबंधन के लिए सीट बंटवारा कम झंझट भरा नहीं था लेकिन इसने यह काम अपेक्षाकृत व्यवस्थित ढंग से कर दिखाया. सहमति का फॉर्मूला ऐसा बना—भाजपा और जदयू को 101-101 सीटें, चिराग पासवान की लोजपा को 29, जीतन राम मांझी की हिंदुस्तानी अवाम मोर्चा (हम) और उपेंद्र कुशवाहा की राष्ट्रीय लोक मोर्चा (रालोमो) को छह-छह सीटें. हालांकि आंतरिक विरोध भी अपेक्षित ही था.
लोजपा का एक नामांकन खारिज हो गया (जिससे एनडीए के 242 उम्मीदवार मैदान में रह गए) लेकिन उसके बचे 28 उम्मीदवार भी जदयू की नाराजगी बढ़ाने के लिए काफी हैं. वजह? चुनावी पंडित आगे चलकर जटिल समीकरणों के आकार लेने की भविष्यवाणी कर रहे हैं. पहली बात तो यह कि चिराग ने पिछली बार अकेले चुनाव लड़ा था, और जदयू के साथ उनका सीधा मुकाबला था. इससे जदयू को 34 सीटों पर हार का सामना करना पड़ा. इसलिए पुरानी कड़वाहट खत्म नहीं हुई है और नीतीश के करीबियों का इस बार भी उनके इरादों पर शक करना लाजिमी ही है.
क्या होगा अगर भाजपा 2020 के अपने 67 फीसद के स्ट्राइक रेट को और बेहतर करते हुए 70 से ज्यादा सीटें हासिल कर ले, और लोजपा भी कुछ सीटें जीत ले? अगर दोनों मिलकर बहुमत के 122 के आंकड़े से बस 30 सीटों से पीछे रह जाते हैं तो फिर कुछ छोटे दलों और बागियों को साथ लाकर चुनाव बाद के समीकरणों में अप्रत्याशित फेरबदल कर सकते हैं. सीधे शब्दों में कहें तो नीतीश और जदयू पर उनकी निर्भरता नहीं रहेगी.
इसके उलट परिदृश्य देखिए—जदयू और राजद करीब 95 सीटों पर सीधी टक्कर में हैं, इसलिए कुछ विश्लेषक नीतीश की आखिरी बड़ी राजनीतिक चाल की संभावना से इनकार नहीं कर रहे. तार्किकतौर पर देखें तो 95 सीटों का एक बड़ा हिस्सा भाजपा की पहुंच से बाहर है, साथ ही कांग्रेस और वामपंथी दल भी कुछ सीटें जीतेंगे ही. बिहार के सियासी अतीत को देखते हुए कुछ भी संभव है, किसी भी अटकलबाजी को कोरी बयानबाजी नहीं माना जा सकता. फिर भी, और कुछ नहीं तो भाजपा और जदयू दोनों ही अपनी सौदेबाजी की ताकत बढ़ाने के लिए कोई न कोई हथकंडा तो जरूर ही अपनाएंगे.
जाति का गणित
महागठबंधन के उम्मीदवारों का सामाजिक प्रोफाइल भी कम दिलचस्प नहीं. राजद की 142 उम्मीदवारों की सूची किसी भी दूसरी पार्टी के मुकाबले सबसे बड़ी है और यह चुनाव में सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरने की उसकी महत्वाकांक्षा को ही जाहिर करती है. पड़ोसी राज्य उत्तर प्रदेश में अखिलेश यादव के पीडीए (पिछड़ा-दलित-आदिवासी) फॉर्मूले को अपनाना भी कुछ इसी तरफ संकेत करता है.
दूसरे शब्दों में कहें तो ज्यादा विविध सामाजिक पृष्ठभूमि वाले उम्मीदवारों को मैदान में उतारकर पार्टी अपने पुराने मुसलमान-यादव (एमवाइ) वोट बैंक से आगे भी विस्तार की जुगत भिड़ा रही है. राजद के 142 उक्वमीदवारों में 69 एमवाइ हैं- 51 यादव और 18 मुसलमान. इसकी सूची के आधे से ज्यादा नाम जाति समीकरणों के अन्य रंगों को दर्शाते हैं—इसमें 18 गैर-यादव ओबीसी जैसे कुर्मी-कुशवाहा, 19 दलित, आठ वैश्य, और 14 अगड़ी जातियों के हैं. यही नहीं, 24 महिलाएं भी हैं.
बिहार में इसे 'ए टू जेड’ यानी सभी को शामिल करना करार दिया जाता है. वहीं कांग्रेस ने एक-तिहाई से ज्यादा टिकट अगड़ी जाति के प्रत्याशियों को दिए हैं. इसमें आठ भूमिहार, पांच राजपूत, सात ब्राह्मण और एक कायस्थ हैं. लगता है इसका मकसद एनडीए की सवर्ण धार को कुंद करना और महागठबंधन को दूसरी जगहों पर जातिगत समीकरणों में पैर जमाने का मौका देना है. भाजपा के 101 उम्मीदवारों में से 49 अगड़ी जाति के हैं—यह उसका पारंपरिक बेस है जो बिहार की आबादी का सिर्फ 15 फीसद है. असल में, एनडीए के एक-तिहाई उम्मीदवार इसी वर्ग में आते हैं.
इधर पीके का संघर्ष
अब बचते हैं प्रशांत किशोर, जो चुनावी रणनीतिकार से खुद मैदान में किस्मत आजमाने उतर चुके हैं. उन्होंने धाकड़ अंदाज में सियासी परिदृश्य में एक सुधारक के तौर पर प्रवेश किया लेकिन उनकी जन सुराज पार्टी नौसिखिए की तरफ कमजोर दिख रही है.
उन्होंने आक्रामक अंदाज में प्रेस कॉन्फ्रेंस कीं और भाजपा के दिग्गजों पर लगातार हमले करके सुर्खियों में छाए भी रहे जो पूरे नैरेटिव को प्रभावित करते नजर आए. लेकिन वे डिजिटल माध्यमों में छाई बातों को राजनीतिक धरातल पर उतारने के लिए संघर्ष कर रहे हैं. पीके खुद चुनाव लड़ने से इनकार करके लोगों को पहले ही हैरान कर चुके हैं, और अब उनके कुछ समर्थक भी उनके बैनर तले खड़े होने के नफा-नुक्सान पर मंथन करते नजर आ रहे हैं.
21अक्तूबर को पीके ने केंद्रीय मंत्रियों अमित शाह और धर्मेंद्र प्रधान की तस्वीरें दिखाकर आरोप लगाया कि उनके तीन उम्मीदवारों को भाजपा ने नाम वापस लेने के लिए धमकाया. उनका दावा है कि 14 अन्य को भी धमकाया गया. लेकिन चुनाव मैदान में डटे 240 उम्मीदवार चुनाव नतीजों को बदल सकते हैं. यहां तक कि कुछ सीटें जीत भी सकते हैं. बहरहाल, अगर वे बिहार की अनगिनत छोटी पार्टियों के बीच अपनी थोड़ी-बहुत जगह बनाने में भी सफल होते हैं तो यह महानगरीय सियासत और जटिल स्थानीय राजनीति के बीच सीधी टक्कर एक नई शुरुआत होगी.
प्रशांत किशोर ने सबको चौंकाते हुए खुद चुनाव न लड़ने का फैसला किया लेकिन जनसुराज की कमजोरी के बावजूद भाजपा के दिग्गजों पर हमले करके वे सुर्खियों में छाए हुए और चुनावी नैरेटिव को भी प्रभावित कर रहे.