असम: बोडोलैंड ने कैसे CM सरमा को दिया बड़ा झटका?
BJP को असम में एक दशक में पहली बार बड़ा झटका लगा है. बोडोलैंड फिर से बोडोलैंड पीपल्स फ्रंट (BPF) के पास चला गया है. क्या इसका 2026 के चुनाव पर कोई बड़ा असर होगा?

करीब दस साल पहले जब भाजपा ने पूर्वोत्तर में पैर पसारना शुरू किया था, तब से हेमंत बिस्व सरमा वहां की राजनीति की धुरी रहे. हर सियासी चाल पर उनकी पकड़ मानी जाती थी. अब यह वर्चस्व टूट गया है. 22 सितंबर को असम के मुख्यमंत्री को अपने राज्य में पहली बड़ी चुनावी हार का सामना करना पड़ा. हालांकि यह असम विधानसभा नहीं, बल्कि स्वायत्त बोडोलैंड टेरिटोरियल काउंसिल (बीटीसी) का चुनाव था, लेकिन असर साफ दिखा.
बोडोलैंड पीपल्स फ्रंट (BPF) ने 40 में से 28 सीटें जीत लीं, वह भी ज्यादातर बड़े अंतर से. अकेले चुनाव लड़ रही भाजपा पांच सीटों पर सिमट गई. जिस सहयोगी यूनाइटेड पीपल्स पार्टी लिबरल (यूपीपीएल) को भाजपा ने खड़ा किया था और बाद में छोड़ दिया, उसे सिर्फ सात सीटें मिलीं जबकि 2020 में उसके पास लगभग दोगुनी सीटें थीं.
56 साल के हाग्रामा मोहिलारी की अगुआई में बीपीएफ की यह सीधी बहुमत वाली जीत 'पुराने दौर' की वापसी है. 2020 के बाद जब भाजपा-यूपीपीएल गठजोड़ ने 17 सीटें होने के बावजूद बीपीएफ को सत्ता से दूर रखा, तब से टूट-फूट और दलबदल ने पार्टी को कमजोर किया था. लेकिन जमीनी पकड़ कभी नहीं टूटी. ताजा नतीजे यही दिखाते हैं: एक स्थानीय मोहरे के जरिए नया नेटवर्क बोडो राजनीति में जमाने की भाजपा की कोशिश नाकाम रही.
1975 में पैदा हुए प्रमोद बरो की यूपीपीएल शुरू में बीपीएफ की व्यक्तित्व आधारित राजनीति से आगे बढ़ती दिख रही थी. बोडो शांति समझौते और कुछ विकास योजनाओं ने उसे शुरुआत में बढ़त भी दी. लेकिन सुधारवादी राजनीति का असर सीमित शहरी इलाकों तक ही रह गया. इस नाकामी ने साफ कर दिया कि आदिवासी इलाकों में भाजपा का असर सीमित है और यह सोच कि राज्य समर्थित ताकतें स्थानीय पहचान को मात दे देंगी, बस अहंकार ही था. यहां पहचान की राजनीति विकास की कहानी से कहीं गहरी है.
अब 2026 के विधानसभा चुनाव से पहले ये नतीजे हेमंत बिस्व सरमा के लिए चेतावनी हैं. परिसीमन के बाद बोडो टेरिटोरियल रीजन (बीटीआर) में अब 15 विधानसभा सीटें हैं, यानी असम की 126 सीटों का 10 फीसद से ज्यादा. 2021 में भाजपा-यूपीपीएल गठबंधन ने यहां की 11 में से सात सीटें जीती थीं, जो बाद में बढ़कर आठ हुईं. सीटों का यह छोटा सा हिस्सा भी एनडीए की 75 सीटों वाली बहुमत सरकार को खास मजबूती देता था.
भारी मुश्किल
यह सिर्फ अलग-अलग समुदायों के मेल का सवाल नहीं है, बल्कि भाजपा के लिए सीटों का गणित भी बिगड़ सकता है. वोटिंग का यही पैटर्न रहा तो पार्टी को छह से आठ बोडो सीटों का नुक्सान हो सकता है. यही सीटें आराम से सरकार चलाने और सहयोगी दलों के साथ जद्दोजहद वाली सरकार बनाने में फर्क डाल सकती हैं. शायद इसी डर से सरमा ने नतीजों के कुछ घंटों में ही मोहिलारी को गले लगाते हुए कहा कि 'बीपीएफ एनडीए का हिस्सा है' और ''बीटीसी की सारी 40 सीटें एनडीए के साथ हैं.'' यह बयान उनकी चिंता की गहराई दिखाता है. भाजपा के सामने अब कठिन विकल्प है: या तो उसी नेता के सामने झुकना पड़ेगा जिसे उसने 2020 में दरकिनार किया, जिससे यूपीपीएल नाराज हो सकती है. या एकजुट बोडो विपक्ष का सामना करने का खतरा उठाना होगा.
अब सारी ताकत मोहिलारी के पास है. उन्होंने चुनाव को बोडो स्वायत्तता बनाम बाहरी दखल के रूप में पेश किया, नारे लगे: ''बोडोलैंड बिकाऊ नहीं है.'' यह साफ तौर पर भाजपा की केंद्रीकरण वाली सोच पर तंज था. फिर भी, 17 साल तक बीटीसी चलाने के बाद मोहिलारी यह भी जानते हैं कि जनजातीय परिषदें राज्य और केंद्र की मदद पर ही टिकती हैं. बीपीएफ ने लंबे समय तक दिसपुर में सत्ताधारी दल का साथ दिया, लेकिन 2020 में भाजपा ने उसे छोड़कर यूपीपीएल को चुन लिया था. अब उनके पास मौका है कि दिसपुर और दिल्ली दोनों से सौदेबाजी करें और अगले साल सीट बंटवारे में भी पलड़ा भारी रखें.
कांग्रेस ने फिर साबित कर दिया कि बोडोलैंड में उसकी कोई अहमियत नहीं है. 2020 में उसके पास एक सीट थी, इस बार वह भी चली गई. बीटीआर की आबादी में 65 फीसद गैर-बोडो हैं, जिनमें बड़ा मुस्लिम वोट बैंक भी शामिल है, जो तबका पहले कांग्रेस के साथ जाता था. इस बार उन्होंने बीपीएफ को चुना क्योंकि भाजपा की बांटने वाली राजनीति के मुकाबले बीपीएफ का रुख ज्यादा शामिल करने वाला लगा. इसका असर बोडोलैंड से बाहर भी जा सकता. कार्बी आंगलोंग और दीमा हासाओ स्वायत्त परिषदें भी प्रभावित हो सकती हैं. अगर बाकी स्थानीय ताकतें, जो पहचान की राजनीति करती हैं, गठजोड़ फिर से करें तो कांग्रेस जैसी पार्टियां भी कहीं से एंट्री करने की कोशिश कर सकती हैं. सरमा के सामने ऐसी चुनौती है जिसकी उन्होंने उम्मीद नहीं की थी.
खास बातें
> बोडोलैंड काउंसिल चुनाव में हाग्रामा मोहिलारी (ऊपर) के नेतृत्व में बीपीएफ ने 40 में से 28 सीटें जीतीं.
> अकेले लड़ी भाजपा को 2020 के मुकाबले केवल पांच सीटें मिलीं. पुराना सहयोगी यूपीपीएल की सीटें सात रह गईं.
> सरमा को पहला बड़ा चुनावी झटका लगा, असर अन्य आदिवासी इलाकों और 2026 के चुनाव पर हो सकता है.