तमिलनाडु: सरकार और राज्यपाल के बीच टकराव का खमियाजा कैसे भुगत रहे हायर एजुकेशन?
तमिलनाडु में सरकार और राज्यपाल के बीच चल रहे विवाद के कारण उच्च शिक्षा की स्थिति अनिश्चितता में है

मद्रास यूनिवर्सिटी (यूएनओएम) के विशाल परिसर में जबरन थोपा गया सन्नाटा हर कोई महसूस कर सकता है. प्रोफेसरों को तो वेतन और पदोन्नति पाने के लिए चेन्नै के सरकारी दफ्तरों में जाकर कतारें लगनी पड़ती हैं. पीएचडी थीसिस यूं ही पड़ी रहती हैं क्योंकि इन पर हस्ताक्षर करने वाले कभी आते ही नहीं.
फाइलें धूल फांकती रहती हैं. तमिलनाडु के सभी सरकारी विश्वविद्यालयों में कुछ ऐसी ही स्थिति दिखाई देती है, चाहे नजदीक स्थित अन्ना यूनिवर्सिटी हो या कोयंबत्तूर की भरतियार यूनिवर्सिटी या फिर मदुरै कामराज यूनिवर्सिटी (एमकेयू).
राज्य के 22 सरकारी विश्वविद्यालयों में से 12 बीते दो साल से ज्यादा समय से नियमित कुलपतियों (वीसी) के बिना ही चल रहे हैं. इसके लिए संवैधानिक गतिरोध को जिम्मेदार माना जा सकता है. दरअसल, विश्वविद्यालयों पर नियंत्रण के लिए राज्यपाल और राज्य सरकार के बीच जारी खींचतान संघवाद पर बहस का एक बड़ा मुद्दा बन चुकी है.
संघीय सवाल
आर.एन. रवि 2021 में राज्य में राज्यपाल का पद संभालने के बाद से स्टालिन के नेतृत्व वाली द्रमुक सरकार से कई टकरावों में उलझे हैं. विपक्ष शासित अन्य राज्यों की तरह तमिलनाडु में भी राज्यपाल की भूमिका सवालों के घेरे में रही है मगर लंबे गतिरोध और इससे उत्पन्न जटिल कानूनी पेचों की वजह से इसकी स्थिति काफी अलग है.
इस खींचतान से संवैधानिक कार्यों में इतनी शिथिलता आ गई कि सुप्रीम कोर्ट को भी रवि की सक्रियता या निष्क्रियता के कारण उत्पन्न अवरोधों पर ऐतराज करना पड़ा. एक ओर यह मुद्दा न्यायिक समाधान का इंतजार कर रहा है तो दूसरी ओर भारत में शैक्षणिक लिहाज से सबसे उन्नत राज्यों में शामिल तमिलनाडु की उच्च शिक्षा गतिरोध का शिकार बनी हुई है.
तकनीकी दिक्कत
तमिलनाडु में कुलपतियों की नियुक्ति का अधिकार बतौर कुलाधिपति राज्यपाल के पास होता है और उन्हें यह काम खोज समिति की सिफारिशों पर करना होता है. पूर्व में अन्नाद्रमुक की तरह द्रमुक शासन ने भी इस यथास्थिति को बदलने की कोशिश की. तकरार जारी रही और रवि ने खोज समितियों के सुझाए कई नामों पर कोई कदम नहीं उठाया. कई बार वे समितियों में एक केंद्रीय नामित व्यक्ति शामिल करने की मांग पर अड़ गए. राज्य इस मामले में अपनी स्वायत्तता पर जोर देता है.
बहरहाल, 2020 से 2023 के बीच विधानसभा ने कुलपतियों की नियुक्ति का हक प्रभावी तौर पर मुख्यमंत्री को हस्तांतरित किए जाने को लेकर 10 विधेयक पारित किए, जिसमें राज्यपाल के नामित व्यक्ति को समितियों से हटाने का प्रावधान भी किया गया. राज्य के एक वरिष्ठ शिक्षा अधिकारी कहते हैं, ''यह लोकतांत्रिक जवाबदेही है. राज्य इन संस्थानों को वित्तपोषित और संचालित करता है. तो उसका नेतृत्व कौन करेगा, यह तय करना भी उसके अधिकार क्षेत्र में होना चाहिए.''
रवि ने लगातार विधेयकों पर सहमति नहीं दी तो तमिलनाडु सुप्रीम कोर्ट चला गया. अप्रैल 2025 में कोर्ट ने फैसला सुनाया कि राज्यपाल राज्य के कानून को अनिश्चितकाल तक स्थगित नहीं रख सकते, जिससे विधेयकों को प्रभावी रूप से पारित मान लिया गया. मगर मई में मद्रास हाइकोर्ट ने यह कहते हुए इन पर अमल को रोक दिया कि शिक्षा समवर्ती सूची में आती है और ये विधेयक यूजीसी नियमों के विरुद्ध हैं. इन्हें राष्ट्रपति की मंजूरी भी नहीं मिली है. तमिलनाडु ने हाइकोर्ट के फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी है.
इस कानूनी जंग के बीच विश्वविद्यालय अधर में अटके हैं. एक वरिष्ठ प्रोफेसर, संस्थान से बाहर के विशेषज्ञ और राज्य सरकार के एक अधिकारी वाली तीन सदस्यीय 'संयोजक समितियां' अब कुलपतियों की जगह ले रही हैं. मगर उनके पास वैधानिक शक्तियां नहीं हैं. नतीजा: हर काम अटका पड़ा है. संकाय संघ से जुड़े सी. मुनियांदी कहते हैं, ''कर्मचारियों के वेतन जैसे सामान्य मामलों में भी विश्वविद्यालय अधिकारियों को फाइलों पर हस्ताक्षर कराने के लिए कई बार चेन्नै जाना पड़ता है. 2022 से कम से कम 85 संकाय सदस्यों की पदोन्नति रुकी हुई है.''
यह गतिरोध छात्रों को भी प्रभावित कर रहा है. एक ऐक्टिविस्ट प्रिंस गजेंद्र बाबू कहते हैं कि 2024 में पीएचडी पूरी करने वाला एक शोधार्थी चीन में पोस्टडॉक्टरल की पेशकश सिर्फ इसलिए स्वीकार नहीं कर पा रहा क्योंकि उसकी डिग्री पर हस्ताक्षर करने वाला कोई कुलपति नहीं है. बाबू पूछते हैं, ''नौकरियां, फेलोशिप, करियर ग्रोथ...सब कुछ ठप है. इस तरह भविष्य बिगाड़ने की जिम्मेदारी कौन लेगा?''
इस तनातनी का एक व्यापक संदर्भ भी है. दरअसल, तमिलनाडु राष्ट्रीय शिक्षा नीति (एनईपी) के विरोध में है जिसका तर्क है कि यह देश के विविधतापूर्ण ढांचे को ध्वस्त कर एकरूपता थोपने की एक कोशिश है. शिक्षा पत्रिका पुन्नगै के संपादक तिरुगनम की राय है कि केंद्र तमिलनाडु की स्वायत्तता को चोट पहुंचाने के लिए हर हथकंडा अपना रहा है. एनईपी को न अपनाने तक करीब 2,150 करोड़ रुपए के समग्र शिक्षा कोष को रोकने की धमकी इसी का नतीजा है. वे कहते हैं, ''प्रशासनिक निष्क्रियता यूं ही कायम नहीं हुई है बल्कि इसे जानबूझकर उत्पन्न किया गया है.''
खास बातें
> करीब दो साल से तमिलनाडु के 22 सरकारी विश्वविद्यालयों में कुलपति की नियुक्ति नहीं हो सकी.
> कुलपतियों की नियुक्ति का अधिकार राज्यपाल से छीनने वाले विधेयक का रास्ता सुप्रीम कोर्ट ने साफ कर दिया था. पर हाइकोर्ट ने क्रियान्वयन रोक दिया.
> इस गतिरोध के बीच छात्र-छात्राओं और शिक्षकों को परेशानियों का सामना करना पड़ा रहा है.