झारखंड: केंद्र सरकार का मास्टर प्लान दशकों से दहक रहे झरिया को शांत कर पाएगा?
धनबाद के झरिया की अंडरग्राउंड कोयला खदानों में आग लगे सौ साल से ज्यादा का वक्त गुजरने के बाद भी समस्याएं जस की तस है

जमीन के नीचे पिछले सौ साल से लगी आग. आग के ऊपर डरे-सहमे लाखों जिंदा लोग. हवा में जलते कोयले की गंध. गंध में सांस लेते बच्चे-बूढ़े. झरिया की इसी दमघोंटू हवा में दमे की शिकार हुई सुधीर कुमार रवानी की मां शांति देवी ने बीते 9 अगस्त को स्थानीय अस्पताल में दम तोड़ दिया.
शांति देवी ने यहां की जिस तरह की आबोहवा में दम तोड़ा, उसमें 1.4 लाख परिवारों के लोग जी रहे हैं. झरिया में अंडरग्राउंड माइनिंग की जगह ज्यादातर ओपन कास्ट माइनिंग की जा रही है. इससे हार्ड कोक, जो कि स्टील प्लांट के लिए जरूरी है, की जगह डस्ट वाला कोयला निकल रहा है. इससे उत्पादन तो बढ़ चुका है, लेकिन कोयले की क्वालिटी और लोगों का जीवन स्तर लगातार गिर रहा है.
झारखंड में धनबाद जिले के झरिया इलाके की कोयला खदानों में जमीन के नीचे सौ साल से ज्यादा समय से आग लगी हुई है. इस आग को बुझाने और आग के ऊपर रह रहे लोगों को यहां से हटाकर सुरक्षित जगह बसाने के लिए पिछले एक-डेढ़ दशक में कई प्रयास किए गए लेकिन सब ढाक के तीन पात ही साबित हुए. लेकिन बीते 25 जून को इस दिशा में एक बड़ी उम्मीद जगी जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अध्यक्षता में केंद्रीय मंत्रिमंडल की आर्थिक मामलों की समिति ने एक अहम पहल की.
समिति ने कुल 5,940.47 करोड़ रुपए की झरिया पुनर्वास योजना को मंजूरी दी है. झरिया की खदान में लगी आग को लेकर 2019 में एक सर्वे किया गया था. इस सर्वे के अनुसार, आग और भूमि धंसान के इलाकों में रहने वाले 1.4 लाख से ज्यादा परिवारों को सुरक्षित स्थानों पर ले जाया जाना है.
संशोधित योजना में पुनर्वासित परिवारों के लिए टिकाऊ आजीविका के अवसर पैदा करने पर जोर दिया गया है. इसके तहत कौशल विकास कार्यक्रम चलाए जाएंगे और आय के स्रोत तैयार किए जाएंगे ताकि पुनर्वासित परिवार आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर बन सकें. इसके अलावा, कानूनी स्वामित्व वाले और गैर-कानूनी स्वामित्व वाले दोनों प्रकार के परिवारों को एक लाख रुपए की आजीविका अनुदान राशि और तीन लाख रुपए तक की संस्थागत कर्ज सुविधा मुहैया की जाएगी.
भारत सरकार के दस्तावेजों के मुताबिक, झरिया कोलफील्ड में 1916 में पहली बार आग लगने की घटना दर्ज हुई थी. राष्ट्रीयकरण के बाद 1978 में एक पोलिश टीम और भारतीय विशेषज्ञों को झरिया की आग की समस्या के अध्ययन के लिए नियुक्त किया गया. जांच में बीसीसीएल की 41 कोलियरियों में 77 जगहों पर आग की पहचान हुई. सरकारी दावों के मुताबिक, 2009 में 67 स्थानों (17.32 वर्ग किमी) पर आग थी जो 2021 के सर्वेक्षण के अनुसार, घटकर 27 स्थानों (1.8 वर्ग किमी) पर रह गई. हालांकि, स्थानीय लोग इस दावे पर सवाल खड़ा करते हैं. उनका मानना है कि आग का दायरा घटने के बजाए बढ़ा ही है.
इससे पहले 12 अगस्त, 2009 को 12 साल के लिए झरिया मास्टर प्लान को मंजूरी दी गई थी. कुल 7,112.11 करोड़ रुपए वाले उस मास्टर प्लान के मुताबिक, भारत कोकिंग कोल लिमिटेड (बीसीसीएल) के लीजहोल्ड में आग, धंसाव और पुनर्वास से निबटने के लिए कुल 79,159 परिवारों को 2021 तक विस्थापित कर बसाना था. इसका कार्यान्वयन कार्यकाल 11 अगस्त, 2021 को पूरा हो गया.
लेकिन 2016 में तत्कालीन केंद्रीय कोयला मंत्री पीयूष गोयल की तरफ से संसद में दिए बयान के मुताबिक, मात्र पांच प्रतिशत लोगों को ही विस्थापित कर बसाया जा सका था. नए प्लान के मुताबिक, पहले प्लान से सिर्फ 449.09 करोड़ रुपए ही खर्च किए जा सके और 6,663.02 करोड़ रुपए बच गए. जिन पांच प्रतिशत लोगों को बेलगरिया नाम की जगह पर बसाया गया है, उनके मकान टूटने लगे हैं, सीलन और दरारें पड़ चुकी हैं. नियमित तौर पर पीने का पानी भी नहीं मिलता. वहां रह रहे लोगों को मजदूरी तलाशने के लिए भी रोजाना 20 किलोमीटर दूर धनबाद शहर जाना पड़ता है.
बता दें कि आग से निबटने की पूरी जिम्मेदारी बीसीसीएल की है. कोल कर्मियों को पुनर्वासित करने की जिम्मेदारी भी बीसीसीएल की ही है. हालांकि गैर कोल कर्मियों के पुनर्वास का जिम्मा झरिया पुनर्वास और विकास प्राधिकरण (जेआरडीए) के पास है.
झरिया की कुल 595 साइट ऐसी हैं, जो इस आग से सबसे ज्यादा प्रभावित हैं.
इसमें से बरोरा, गोविंदपुर, कतरास, सिजुआ, कुसुंडा, पीबी एरिया, बस्ताकोला, लोदना समेत कुल 70 बेहद खतरनाक इलाके हैं. इन 70 खदानों में कुल 11.85 करोड़ टन कोकिंग कोल है. इन जगहों पर जमीन धंसने से अनगिनत लोगों की मौत हो चुकी है. भोरा 12 नंबर इलाके में 50 से ज्यादा घर ओपन कास्ट माइंस में होने वाले ब्लास्ट के असर से पूरी तरह टूटकर खंडहर बन चुके हैं.
ऐसे ही खंडहर बन चुके एक घर के मालिक राजकुमार रवानी ईंट ढोने का काम करते हैं. वे पहले अंडरग्राउंड कोल माइंस में मजदूरी कर चुके हैं. वे कहते हैं, ''ब्लास्ट होने पर अचानक घर टूटने लगता है. लोग भागने लगते हैं. बीसीसीएल की तरफ से घर रिपेयरिंग का बजट आता है, लेकिन दलाल, नेता, अधिकारी सब मिलकर खा जाते हैं.’’
इसी मोहल्ले में टूटे हुए घरों के बीच एक घर फिलहाल सुरक्षित है. माइंस में हर दिन हो रहे ब्लास्ट से इसमें भी कभी भी दरारें आ सकती हैं. इस घर में रह रही रामसखी देवी कहती हैं, ''मेरा पति 12 साल पहले मर गया, दो बेटा को पाले पोसे, वे लोग राशन दुकान में काम करते हैं. मेरे पास पैसा नहीं है, कहां से घर बनाएं. लेकिन हमरा विनती कोई सुनिये नै रहा है. कहां जाएं, कहां माथा पटकें. जेतना दिन सांस है, उतना दिन आस है. जब सांस दब जाएगा, तब सब खत्म हो जाएगा.’’
फिर जगी उम्मीद
झरिया मास्टर प्लान-2 से एक बार फिर इस पाताललोक में रह रहे लोगों में बेहतर जीवन की आस जगी है. जानकी देवी भोरा 12 नंबर में ही रहती हैं. वे उम्मीद भरी निगाहों से पूछती हैं, कहीं और बसाएंगे तो सुविधा देंगे क्या? अगर अच्छा जगह मिलेगा तो जाएंगे क्यों नहीं. जानकी देवी का घर दो साल पहले ढह गया था. सुधीर रवानी अपनी मां को खोने के बाद भी उक्वमीद कर रहे हैं कि उन्हें नई जगह बसाया जाएगा, ताकि उनका बाकी परिवार ऐसे बीमार होकर किसी मुश्किल में न पड़े. रामचंद्र रजक 72 साल के हैं. परिवार में मात्र उनकी पत्नी हैं. वे आवाज देते हैं, ''बाबू, सरकार से कहिएगा सबसे पहले हमको नया घर दे दे.’’
झरिया मास्टर प्लान के जनरल मैनेजर राजीव चोपड़ा बताते हैं, ''बीसीसीएल अपने कर्मचारियों को इस साल दिसंबर तक शिफ्ट कर देगी. ऐसे लोगों की संख्या कम है. बाकी लोगों को शिफ्ट करने की जिम्मेदारी जेआरडीए की है.’’ धनबाद के जिलाधिकारी और नई व्यवस्था के मुताबिक जेआरडीए के सदस्य आदित्य रंजन कहते हैं, ''इसके तहत पक्के मकान, पक्की सड़कें, नालियां, स्ट्रीट लाइट, पाइपलाइन और हैंडपंप, घरेलू कनेक्शन और स्ट्रीट लाइट, प्राथमिक और माध्यमिक विद्यालय, प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र, सामुदायिक भवन, पार्क और खेल मैदान बनाए जाएंगे. प्लान के पहले फेज को दिसंबर 2028 तक पूरा करने का लक्ष्य रखा गया है.’’
तो फेल क्यों हुआ था पहला मास्टर प्लान?
सवाल है कि आखिर पहला मास्टर प्लान किन वजहों से फेल हुआ था. झरिया की पूर्व विधायक पूर्णिमा नीरज सिंह ने विधायक रहते हुए साल 2020 से 24 तक इसके क्रियान्वयन को बहुत नजदीक से देखा है. वे कहती हैं, ''लोगों को उचित मुआवजा नहीं मिला, जिस जगह पर बसाया गया वहां न तो रोजगार दिया गया और न ही रोजगार के मौके पैदा किए गए. विस्थापित करने के लिए जो क्वार्टर बनाकर दिया गया, वह किसी जेल से कम नहीं.जाहिर है निर्माण कार्य में बहुत बड़े स्तर पर भ्रष्टाचार हुआ.’’
वे कहती हैं, ''इसके अलावा जमीन के लीगल होल्डर्स को बीसीसीएल ने जमीन की लड़ाई में उलझा कर रखा है. यह झगड़ा आज से नहीं, राष्ट्रीयकरण के समय से चल रहा है. माइनिंग के लिए जिस जमीन पर कोल इंडिया दावा करती है, लीगल होल्डर कहता है कि यह मेरी जमीन है. उचित मुआवजा मिले बिना मामला कोर्ट में चला जाता है. कंपनी के पास मुकदमा लडऩे के लिए पूरा सिस्टम और बजट है जबकि यहां का लीगल होल्डर ज्यादा से ज्यादा लोअर कोर्ट तक केस लड़ सकता है.’’
पूर्णिमा का अनुमान है कि केवल झरिया में 30,000 से ज्यादा ऐसे केस हैं जो पिछले कई दशकों से लड़े जा रहे हैं. झरिया कोलफील्ड बचाओ समिति के अध्यक्ष राजीव शर्मा भी पूॢणमा की बात से सहमति जताते हैं. उनके शब्दों में, ''कानूनी और गैर-कानूनी स्वामित्व वाले लोगों का निर्धारण ही नहीं हो पा रहा. जब ठीक से निर्धारण ही नहीं होगा तो विस्थापन और फिर उचित मुआवजा कैसे होगा.
लोगों को जिस बीसीसीएल के ऊपर विश्वास नहीं है, उन्हीं के अधिकारियों को मास्टर प्लान लागू करने वाली समिति में रख दिया है. वे निराश होकर कहते हैं, विस्थापित लोगों के स्किल डेवलपमेंट की पहल पहले भी हुई, इस बार भी हो रही है. यह महज कागजी खानापूर्ति है. योजनाएं बन रही हैं. इसे लागू करने वाले अधिकारी आ-जा रहे हैं. पिछले 100 साल से ज्यादा समय से कोयला उत्पादन भी जारी है. नहीं है तो बस झरिया के लोगों को मौत के मुंह से निकालने की एक सच्ची फिक्र.