राजस्थान: 20 साल से जारी गुर्जर आंदोलन; क्यों पूरी नहीं हो पा रही है मांगें?
राजस्थान में गुर्जर आंदोलन को चलते 20 साल से ज्यादा हो चुके. सरकारें आईं और गईं लेकिन इस समुदाय की मांगे अब तक पूरी नहीं हो पाई

राजस्थान में गुर्जर आरक्षण आंदोलन के दो दशक पूरे हो चुके हैं मगर अब भी गुर्जर समाज संतुष्ट नहीं हुआ है. 2004-05 में गुर्जर समाज को अनुसूचित जनजाति श्रेणी में शामिल किए जाने की मांग को लेकर शुरू हुए इस आंदोलन की अब दशा और दिशा दोनों बिगड़ चुकी हैं.
पिछले 20 साल में इस समाज की मांगों पर एक बार उच्चस्तरीय आयोग और सात बार मंत्रिमंडलीय उप समिति बनीं. फिर भी आठ बार रेल की पटरियों पर पहुंचकर आंदोलन करने वाला यह समाज एक बार फिर उन्हीं पटरियों पर खड़ा है.
आंदोलन अब भी चल रहा है मगर इस समाज को उनके सर्वमान्य नेता कर्नल किरोड़ी सिंह बैंसला की कमी खल रही है. कर्नल बैंसला का 31 मार्च, 2022 को निधन हो गया था. अब उनके बेटे विजय बैंसला ने आंदोलन की कमान संभाली है मगर वे अपने पिता की तरह समाज का भरोसा नहीं जीत पाए हैं.
राजस्थान में भजनलाल शर्मा की सरकार बनने के बाद 8 जून को बयाना के निकट पीलूपुरा-कारबारी गांव में बुलाई गई महापंचायत में विजय बैंसला ने जैसे ही सरकार की ओर से भेजा गया प्रस्ताव पढ़ना शुरू किया तो समाज के युवा उग्र हो गए. कुछ देर बाद ही हालात ऐसे बने कि विजय बैंसला आंदोलन बीच में ही छोड़कर चले गए और गुर्जर समाज के युवा रेल की पटरियों पर पहुंच गए.
महापंचायत में गुर्जर आरक्षण संघर्ष समिति ने सरकार के सामने सात मांगें रखी थीं. इसमें पहली मांग अति पिछड़ा वर्ग (एमबीसी) कोटे को संविधान की 9वीं अनुसूची में शामिल किए जाने की थी. साल 2020-21 में हुए गुर्जर आंदोलन के दौरान इसी मांग पर समझौता हुआ था मगर अब तक केंद्र के पास यह सिफारिश नहीं भेजी गई है.
इसके अलावा, सरकारी नौकरियों में गुर्जर समाज को 5 फीसद आरक्षण का पूरा लाभ देने, देवनारायण योजना का प्रभावी क्रियान्वयन किए जाने, साल 2006 के बाद आंदोलन के दौरान दर्ज सभी मुकदमों की वापसी, पिछले छह बड़े आंदोलनों में मारे गए समाज के 72 लोगों के परिजनों को अनुकंपा के आधार पर नौकरी दिए जाने और रीट भर्ती में एमबीसी के 372 रिक्त पदों को तुरंत भरे जाने जैसी मांगें भी इस महापंचायत में उठाई गई थीं.
सरकार ने जो प्रस्ताव भेजा था उसमें गुर्जर समाज की अन्य मांगों पर तो विचार करने की बात कही गई मगर रीट भर्ती में रिक्त रहे 372 पदों को भरने की बात शामिल नहीं थी. इसी बात को लेकर गुर्जर समाज के नौजवान आक्रोशित हो गए और विजय बैंसला की बातों को दरकिनार कर रेल पटरियों पर पहुंच गए. हालांकि, गुर्जर समाज के अन्य नेताओं के कहने पर ये युवा रेल पटरियों से तो हट गए मगर सरकार को अल्टीमेटम दे डाला कि अगर जल्द उनकी ये मांगें नहीं मानी गईं तो समाज फिर रेल पटरियों पर पहुंच जाएगा.
सरकार ने गुर्जर समाज की मांगों को देखते हुए तीन मंत्रियों की एक मंत्रिमंडलीय उप समिति बना दी. इसमें भजनलाल सरकार के मंत्री अविनाश गहलोत, जोगाराम पटेल और जवाहर सिंह बेढ़म शामिल हैं. मंत्रिमंडलीय उप समिति की पहली बैठक 1 जुलाई को हुई, जिसमें सरकार और गुर्जर आरक्षण संघर्ष समिति के बीच हुए समझौते की समीक्षा की गई. गुर्जर समाज की विभिन्न मांगों के संबंध में सरकारी विभागों से 15 दिन में तथ्यात्मक रिपोर्ट मांगी गई है.
विजय बैंसला कहते हैं, ''हमने सरकार को अपनी मांगों से अवगत करा दिया है. अब फैसला सरकार को करना है. पूरी उम्मीद है कि सरकार अपनी पहली या दूसरी मंत्रिमंडल बैठक में एमबीसी आरक्षण को संविधान की 9वीं अनुसूची में शामिल किए जाने की सिफारिश भेजेगी. मंत्रिमंडलीय समिति को मुकदमे वापस लेने, आंदोलन में मारे गए लोगों के परिजनों को अनुकंपा नियुक्ति दिए जाने और देवनारायण योजना के प्रभावी क्रियान्वयन जैसी मांगों पर जल्द फैसला करना चाहिए.’’
यह गुर्जर आरक्षण आंदोलन के समाधान के लिए बनी कोई पहली कमेटी नहीं है. 2004-05 से अब तक इस तरह की सात कमेटियां बन चुकी हैं. सरकार बदलने के साथ ही कमेटियों के चेहरे बदल जाते हैं मगर आंदोलन की मांगें अभी भी जस की तस बनी हुई हैं. हालांकि, बीते दो दशक में आंदोलन से जुड़े कई लोग सांसद, विधायक और नेता बन चुके हैं.
इनमें सवाई माधोपुर से दो बार सांसद चुने गए सुखबीर सिंह जौनापुरिया, देवली-उनियारा से विधायक रहे राजेंद्र गुर्जर, गंगापुर सिटी से पूर्व विधायक मानसिंह गुर्जर, वर्तमान सरकार में राज्यमंत्री जवाहर सिंह बेढ़म प्रमुख हैं. इसके अलावा, कर्नल किरोड़ी सिंह बैंसला, देवकीनंदन काका, विजय बैंसला जैसे कई नेता संसद और विधानसभा के लिए टिकट पा गए मगर चुनाव नहीं जीत पाए.
काबिले गौर है कि कर्नल बैंसला ने कुछ रिटायर्ड फौजी साथियों के साथ 2004-05 में गुर्जर समाज को अनुसूचित जनजाति में शामिल किए जाने की मांग को लेकर लड़ाई शुरू की थी. 2006 में उन्होंने पहली बार करौली जिले के हिंडौन कस्बे में रेल की पटरियों पर प्रदर्शन किया. अगले ही साल 2007 में दौसा जिले के पाटोली गांव में उनके नेतृत्व में चल रहा आंदोलन हिंसक हो गया जिसमें एक पुलिसकर्मी समेत इस समाज के 28 लोगों को जान गंवानी पड़ी.
बड़ा सवाल यह है कि पिछले दो दशक में 72 जान गंवाने के बाद भी इस समाज के हाथ क्या लगा? एक उच्च स्तरीय आयोग और सात बार मंत्रिमंडलीय उप समितियां गठित होने के बाद भी बात मनवाने के लिए उनको रेल पटरियों पर आना पड़ता है. इस बार क्या सरकार उन्हें संतुष्ट कर पाएगी?