विकास के मामले में आगे, लेकिन कुपोषण को कंट्रोल करने में पीछे क्यों है गुजरात?
एसडीजी रिपोर्ट बताती है कि गुजरात में पांच साल से कम उम्र के करीब 40 फीसद बच्चे कम वजन वाले या बौने हैं

राज्य विधानसभा में 28 मार्च को पेश एक सीएजी रिपोर्ट ने गुजरात की दुखती रग को छू लिया. रिपोर्ट में बताया गया कि केंद्रीय महिला और बाल विकास मंत्रालय के मानदंडों के आधार पर राज्य में 16,045 आंगनवाड़ी केंद्रों की कमी है.
गुजरात में 5.53 करोड़ आबादी पर 69,074 आंगनवाड़ी केंद्र होने चाहिए लेकिन मार्च 2023 तक केवल 53,029 केंद्र थे. इससे ज्यादा अहम यह कि आंगनवाड़ियों में दर्ज बच्चों की संख्या जितनी होनी चाहिए, उससे बहुत कम है; यहां तक कि 2011 की जनगणना के आंकड़ों के हिसाब से देखा जाए तो भी बहुत कम है.
इस जनगणना के हिसाब से आंगनवाड़ी केंद्रों में 78 लाख बच्चों के नाम दर्ज होने चाहिए, लेकिन सीएजी रिपोर्ट से पता चला कि मात्र 41 लाख बच्चे ही दर्ज हैं. यह भी पता चला कि 2015-16 और 2022-23 के बीच करीब 37 लाख बच्चे आंगनवाड़ी केंद्रों में मिलने वाले पूरक पोषण आहार से चूक गए. यही नहीं, 3-6 साल के आयु वर्ग के महज 18.8 फीसद बच्चों के नाम प्री-स्कूल शिक्षा के लिए आंगनवाड़ी केद्रों में दर्ज थे.
ग्रामीण और शहरी आंगनवाड़ी केंद्र बच्चों, स्तनपान करवाने वाली माताओं, गर्भवती महिलाओं और किशोरियों को पूरक आहार और बच्चों को टीके लगाने जैसी कई बेहद अहम सेवाएं मुहैया करते हैं. 3-6 साल के बच्चों को प्री-स्कूल शिक्षा के साथ बढ़ते बच्चों में कुपोषण और बौनेपन पर लगाम कसने में इनकी अहम भूमिका है, इसलिए जब रिपोर्ट से 48.1 फीसद बच्चों के इससे 'चूक जाने' की बात सामने आती है तो पता चलता है कि सामाजिक सूचकांकों और स्वास्थ्य संकेतकों में गुजरात का प्रदर्शन कितना खराब है.
यह ढेरों योजनाओं और बजटीय आवंटनों के बावजूद है. नीति आयोग की जुलाई 2024 में जारी सतत विकास लक्ष्य (एसडीजी) भारत सूचकांक रिपोर्ट में बताया गया कि गुजरात के करीब 40 फीसद बच्चे सामान्य से कम वजन के या अविकसित थे और 38 फीसद से ज्यादा आबादी अल्पपोषित है.
भूख के मसले से निबटने में भी राज्य कई दूसरे राज्यों से पीछे है. गुजरात का प्रदर्शन इसलिए और भी चिंताजनक है क्योंकि उसका एसडीजी-2 स्कोर 2018 में 49 से गिरकर 2019 में 41 पर आ गया, और 2023-24 में 46 पर स्थिर हो गया, जिससे कुपोषण से निबटने के मामले में बहुत थोड़ी प्रगति का पता चलता है.
सामाजिक कार्यकर्ता नीता हार्डीकर, जिनका एनजीओ स्वास्थ्य, शिक्षा और महिला सशक्तीकरण पर गुजरात के आदिवासी इलाकों में काम कर रहा है, कहती हैं, ''भौगोलिक बनावट और दूरी के कारण सबसे बदतर असर आदिवासी इलाकों पर पड़ा है. दाहोद सरीखे आकांक्षी जिलों में आंगनवाड़ी की संख्या नहीं बढ़ी. सबसे ज्यादा फिक्र स्टाफ को लेकर है. प्रति आंगनवाड़ी दो लोग बहुत कम हैं.
कर्मचारियों पर काम का बहुत बोझ है, जिससे वे महिलाओं और बच्चों पर पूरा और जरूरी ध्यान नहीं दे पाते.'' एसडीजी सूचकांक बताता है कि गुजरात में 15-49 साल के बीच की 62.5 फीसद गर्भवती महिलाएं एनीमिया से ग्रस्त हैं और पीढ़ी-दर-पीढ़ी कुपोषण के चक्र में योगदान दे रही हैं.
भूपेंद्र पटेल सरकार ने कुपोषण का मुकाबला करने के लिए बीते चार साल में दो पहलकदमियों का ऐलान किया. एक, मुख्यमंत्री पौष्टिक अल्पाहार योजना, जिसके तहत सालाना 607 करोड़ रुपए बजटीय आवंटन के साथ सरकारी और अनुदान-प्राप्त स्कूलों के छात्रों को प्रोटीन से भरपूर नाश्ता दिया जाता है. दूसरा, प्रसूति और नवजात शिशु की देखभाल बढ़ाने के लिए 75 करोड़ रुपए के आवंटन के साथ न्यूट्रिशन मिशन या पोषण अभियान.
फिर भी अभी बहुत कुछ करना बाकी है. हार्डीकर का कहना है कि योजनाओं और धनराशि के आवंटन के नतीजे जमीन पर दिखाई नहीं देते. वे कहती हैं, ''आंगनवाड़ी कर्मियों को उन पेचीदा कामों का प्रशिक्षण नहीं दिया जाता जो उन्हें करने होते हैं. गर्भनिरोध के बारे में समझ अभी भी बहुत कम है.
कुपोषण से होने वाली सभी बाल और मातृ मृत्य की सूचना नहीं दी जाती क्योंकि खुद आंगनवाड़ी और आशा कार्यकर्ता ही इससे इनकार कर देती हैं. ग्रामसभाओं में इस पर होने वाली चर्चा केवल स्पष्टीकरण मांगने के लिए होती है. सजा देने वाले सत्रों के बजाए रचनात्मक फीडबैक के सत्रों की जरूरत है. यहां आंगनवाड़ी और आशा कार्यकर्ताओं का मनोबल बनाए रखना बेहद जरूरी है.''
गंभीर संकट
> अनेक योजनाओं, अभियानों और बजटीय प्रावधानों के बावजूद गुजरात में कुपोषण की समस्या बरकरार है.
> एसडीजी रिपोर्ट कहती है कि पांच साल से कम उम्र के करीब 40% बच्चे कम वजन वाले या बौने हैं, 62.5% गर्भवती महिलाओं में रक्त की कमी है.
> आदिवासी और ग्रामीण इलाकों में अहम सेवाएं देने वाली आंगनवाड़ी कर्मचारियों की भारी कमी है.