पश्चिम बंगाल: मोची समुदाय को मंदिर में प्रवेश करने में क्यों लग गए 78 साल?

देश की आजादी के 7 दशक बाद भी बंगाल के गिधाग्राम में बाकी जातियों की तरह मोचियों को मंदिर में पूजा करने की इजाजत नहीं मिली थी

अब नहीं कोई रोक-टोक 12 मार्च को गिधाग्राम के शिव मंदिर में मोची समुदाय के सदस्य

देश की आजादी के 7 दशक बाद भी संताना दास की पूरी जिंदगी पूर्वी बर्धमान जिले के कटवा उप-मंडल स्थित गिधाग्राम स्थित शिव मंदिर में पूजा करने जाने वालों को एक सुरक्षित दूरी से देखने में बीत गई. क्योंकि उसका जन्म मोची समुदाय में हुआ था, जिस दलित समूह का मंदिर में प्रवेश वर्जित होने का लंबा इतिहास रहा है.

संताना ने भी इसे अपनी नियति मान लिया था. लेकिन 12 मार्च को वे अपनी सबसे अच्छी साड़ी पहनकर पहली बार मंदिर के अंदर दाखिल हुईं. उनके साथ तीन और महिलाएं पूजा दास, लक्ष्मी दास और ममता दास और एक पुरुष षष्ठी दास मौजूद थे. ये सभी गांव के 130 दलित परिवारों के सदस्य हैं.

स्थानीय प्रशासन की चौकस निगरानी में इस समुदाय के लोगों का मंदिर में प्रवेश सम्मान और समानता की घोषणा करने वाला था. पूजा-अर्चना करने के बाद में मंदिर से निकलते हुए संताना ने बेहद भावुक होकर कांपती आवाज में कहा, ''हम बहुत खुश हैं. मैंने कभी नहीं सोचा था कि यह दिन देखना नसीब होगा.''

जातिवाद से जूझते भारतीय समाज में दलितों को खास जाति वर्ग के लोगों की तरफ से नियंत्रित मंदिरों से दूर रखना कोई नई बात नहीं रही है. दूसरी तरफ, 'मंदिर प्रवेश' आंदोलन गहरी जड़ें जमाए जातिवाद से लड़ने का एक बड़ा हथियार रहा है. बंगाल के अन्य हिस्सों की तरह गिधाग्राम में जातिगत भेदभाव बहुत ज्यादा रूढिवादी नजर नहीं आता था. 'उच्च जातियों' के लोग यहां दलितों के साथ मिल-जुलकर रहते आए हैं, और अन्य अनुसूचित जाति समूहों के मंदिरों में आने-जाने की मनाही नहीं थी.

केवल दलित मोची समुदाय को ही इससे वंचित रखा गया था, और इस अन्याय को चुनौती देने का साहस जुटाने में उन्हें कई साल लग गए. इस साल, समुदाय के सदस्यों ने स्थानीय प्रशासन से संपर्क साधा. कटवा उप-विभागीय अधिकारी अहिंसा जैन यह सब जानकर हैरान रह गईं. उन्होंने इंडिया टुडे से कहा, ''मुझे नहीं पता था कि इस तरह का भेदभाव अभी भी होता है, खासकर बंगाल जैसे प्रगतिशील राज्य में.''

हालांकि, जैसे ही गिधाग्राम की घटना ने ध्यान आकर्षित किया, पूरे बंगाल से इस तरह के मामलों की खबरें सामने आईं. नादिया के कालीगंज और पूर्व बर्धमान के केतुग्राम में मोची समुदाय के सामूहिक संगठन रबीदास रुइदास ऋषि दास चर्मकार चमार मुची ऐक्य मंच को मोचियों के साथ इसी तरह के भेदभाव की शिकायतें मिलीं. बहरहाल, अदालत और स्थानीय प्रशासन के हस्तक्षेप के बाद दोनों ही जगह समुदाय के सदस्यों को स्थानीय मंदिरों में प्रवेश की अनुमति मिल गई है.

राज्य की दलित आबादी करीब 2.14 करोड़ (2011 की जनगणना के मुताबिक) है, जिसमें 60 उप-समूह हैं. दो सबसे बड़े समुदायों राजबंगशी (कुल आबादी का 18 फीसद) और नामशूद्र (16 फीसद) को भी भेदभाव का सामना करना पड़ा है. लेकिन बहुत ज्यादा असुरक्षित नहीं हैं क्योंकि ये समुदाय कुछ ही जिलों में केंद्रित हैं, जिससे अच्छा-खास वोट बैंक माने जाने की वजह से उन्हें राजनैतिक अहमियत मिलती है. इसके विपरीत, बंगाल के दलितों में महज 4.8 फीसद हिस्सेदारी रखने वाला मोची/चमार समुदाय हाशिए पर है.

दलित कार्यकर्ता और लेखक नारायण बिस्वास का कहना है कि बंगाल में जातिवाद के जहर में 'मिठास' भी खूब घुली है. उन्होंने कहा, ''भारत के अन्य हिस्सों की तरह बंगाल भी जातिवाद की बीमारी से अछूता नहीं है. यह दीगर बात है कि चूंकि यह राज्य भारत में दूसरी सबसे बड़ी दलित आबादी का घर है, इसलिए 'उच्च जातियों' के लिए खुले तौर पर भेदभाव करना मुश्किल हो जाता है.'' बिस्वास के मुताबिक, वाममोर्चा शासन के दौरान भी जातिवादी प्रवृत्तियां स्पष्ट नजर आती थीं. उन्होंने बताया, ''जब भूमि सुधार लागू किए गए तो उच्च जातियों ने विरोध नहीं किया क्योंकि वे सीधे तौर पर खेती-बाड़ी में शामिल नहीं थीं. हालांकि, उन्होंने यह सुनिश्चित किया कि दलितों को बौद्धिक महत्व के स्थलों से दूर रखा जाए.''

दलितों की बड़ी आबादी होने के बावजूद पश्चिम बंगाल में अनुसूचित जातियों के खिलाफ अत्याचार के मामले कम दर्ज होते हैं. 2018 से 2022 के बीच राज्य में एससी/एसटी (अत्याचार निवारण) अधिनियम के तहत 246,908 शिकायतों में से केवल 585 मामले ही दर्ज किए गए. लेकिन इन मामलों में भी दोषसिद्धि दर शून्य रही.

गिधाग्राम में समान अधिकारों की जीत मील का एक पत्थर है, लेकिन जातिगत भेदभाव के खिलाफ बड़ी लड़ाई अभी खत्म नहीं हुई है. संताना के लिए मंदिर के अंदर कदम रखना एक ऐतिहासिक क्षण था. और, पश्चिम बंगाल के लिए यह कुछ सीखने का संदेश है.

बंगाल में दूसरी जगहों की तरह गिधाग्राम में समाज के खुलेपन ने जातिगत पूर्वाग्रहों को दूर रखा. मोचियों को छोड़कर दलितों की दूसरी जातियों के लोग मंदिर में पूजा करते रहे हैं.

इंडिया टुडे में ये स्टोरी अर्कमय दत्ता मजूमदार ने लिखी है.

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