राजस्थान : आदिवासी इलाकों में धड़ल्ले से बन रहे गिरजाघर, सख्त कानून से क्या रुकेगा धर्म परिवर्तन?
राजस्थान के खासकर आदिवासी इलाकों में धर्मांतरण के मुद्दे ने खासा तूल पकड़ा. प्रदेश की भजनलाल सरकार अब इसके खिलाफ ला रही सख्त कानून. इंडिया टुडे की इस जमीनी पड़ताल में जानिए पूरी कहानी

''चर्च जाता हूं क्योंकि अच्छा लगता है मुझे. वहां फादर बताते हैं कि यीशु की पूजा करके कैसे हम अपने जीवन को खुशहाल बना सकते हैं, सब दुख दूर हो सकते हैं.'' 30 वर्षीय मैथ्यू को यह सब कहते हुए सुनकर भला किसे ताज्जुब होगा! मगर, कहानी जरा पेचीदा है. दरअसल, मैथ्यू और 35 वर्षीय जूलिया परमार सगे भाई हैं.
वे गुजरात से सटे दक्षिणी राजस्थान के आदिवासी बहुल बांसवाड़ा जिले की सज्जनगढ़ तहसील के बोर बठोड़ गांव के रहने वाले हैं. एक ही परिवार के होने के बावजूद, कुछेक साल पहले मैथ्यू ने आसपास के कई अन्य लोगों की तरह ईसाई धर्म अपना लिया और चर्च जाने लगे जबकि जूलिया को इसकी जरूरत महसूस नहीं हुई.
बल्कि वे तो छोटे भाई की तरह एक-एक कर मजहब बदलकर चर्च में जाने वालों का विरोध करते आ रहे हैं और अब इस काम में उन्होंने हिंदूवादी संगठनों से हाथ मिलाया है. हालांकि, खेत जोतने से पहले बैल, धरती और हल की पूजा, फसल पकने पर पहला दाना पितृदेव को अर्पित और दूसरे आदिवासी रीति-रिवाज दोनों के अब भी एक जैसे हैं. मैथ्यू के घर के बाहर यीशु मसीह का प्रतीक क्रॉस का निशान बना है तो जूलिया के घर पर हिंदू लिखा झंडा लहरा रहा.
बांसवाड़ा जिले में ही पास की कुशलगढ़ तहसील के दाबाड़ीमाल गांव के दो भाइयों 28 वर्षीय विजय और 25 वर्षीय गणेश छारेल की भी ऐसी ही कहानी है. विजय ने जलझुलनी एकादशी पर गांव में गणेश पंडाल बनाया तो ईसाई बन चुके गणेश ने 7 सितंबर को गुजरात सीमा से सटे रुजिया गांव के चर्च में जाकर प्रार्थना की. अपने गांव में चर्च न होने के कारण वे हर रविवार रुजिया या किसी अन्य गांव के चर्च में जाकर प्रार्थना करते हैं.
दरअसल, राजस्थान के आदिवासी बहुल बांसवाड़ा, डूंगरपुर और उदयपुर जिलों में बड़े पैमाने पर हो रहे धर्मांतरण के चलते घरों में धार्मिक आधार पर बंटवारे के ये किस्से आम हो चले हैं. इसके संकेत बाहर भी दिख रहे हैं. बांसवाड़ा के बागीदौरा कस्बे के बीचोबीच एक हाईमास्ट लाइट के खंभे पर हिंदू राष्ट्र लिखा केसरिया ध्वज फहरा रहा है. उससे थोड़ा आगे चलते ही मस्का बड़ी गांव के एक खेत में बड़ा-सा गिरजाघर बन रहा है.
वर्ष 2011 की जनगणना के मुताबिक, राजस्थान की 6.85 करोड़ आबादी में से 0.14 फीसद ईसाई थी. यानी एक लाख से भी कम. बांसवाड़ा समेत राजस्थान के आदिवासी बहुल आठ जिलों में आदिवासियों की आबादी 45 लाख है. और अब अकेले 1,532 गांवों वाले बांसवाड़ा जिले में ही ईसाई बन चुके आदिवासियों की तादाद एक लाख से ज्यादा बताई जा रही है.
इसी तरह उदयपुर और डूंगरपुर जिलों में भी हाल के वर्षों में करीब 1-2 लाख आदिवासियों ने ईसाई धर्म अपनाया है. उदयपुर जिले के कोटड़ा, झाड़ोल और फलासिया; डूंगरपुर जिले के चौरासी और बिछीवाड़ा; बांसवाड़ा जिले के कुशलगढ़, सज्जनगढ़, गढ़ी, बागीदौरा और प्रतापगढ़ जिले के धरियावद गांवों में धर्मांतरण के सबसे ज्यादा मामले सामने आए हैं.
एक दशक पहले तक इन तीन जिलों में 40-50 गिरजाघर थे. आज इनकी तादाद 250 से भी ज्यादा हो गई है और कई नए गिरजे बन रहे हैं. इसे लेकर सामाजिक तनाव की भी स्थितियां बन रही हैं. कोटड़ा कस्बे में आइटीआइ के पीछे निचली सुबरी नाम की जगह पर एक चर्च का निर्माण रुकवाने के लिए स्थानीय हिंदूवादी संगठन लामबंद हैं, मगर बड़ी तादाद में स्थानीय लोग उसके पक्ष में खड़े हैं.
हिंदूवादी संगठनों की ओर से मुख्यमंत्री और जिला कलेक्टर के नाम दिए गए ज्ञापन में कहा गया है कि वह 30 बीघा जमीन आदिवासियों के देवता के लिए आरक्षित थी, लेकिन भूमाफियाओं ने प्रशासन की मिलीभगत से इसे ईसाई प्रशिक्षण केंद्र को बेच दिया है. कोटड़ा की तरह ही दाडमिया गांव में भी हाल ही में पहाड़ों के बीच एक नया चर्च बनाया गया है. बांसवाड़ा जिले की सात पंचायतों में सरपंच भी ईसाई धर्म अपनाने वाले लोग चुने गए हैं.
राजस्थान में धर्मांतरण को लेकर सियासत गरमा रही है. भाजपा-आरएसएस और अन्य हिंदूवादी संगठन जहां ईसाई धर्म अपनाने वाले आदिवासियों को आरक्षण के अधिकार से वंचित करने की मांग उठा रहे हैं. वहीं इस क्षेत्र में राजनैतिक ताकत बन रही भारतीय आदिवासी पार्टी आदिवासियों के लिए जनगणना में अलग धर्म का कॉलम बनाए जाने की वकालत कर रही है.
सूबे में चल रही इस धार्मिक और सियासी जंग के बीच इंडिया टुडे ने आदिवासी क्षेत्र में धर्मांतरण को लेकर जमीनी हालात जानने की कोशिश की. आदिवासी बहुल उदयपुर, डूंगरपुर, बांसवाड़ा और प्रतापगढ़ जिलों में पिछले कुछ अरसे में आदिवासियों का बड़े पैमाने पर धर्मांतरण होने की बात सामने आई है. उदयपुर के सांसद मन्नालाल रावत की मानें तो इन जिलों में धर्मांतरित आदिवासियों की तादाद 10 फीसद से भी ज्यादा है.
वहीं, गुजरात के वडोदरा के एससीए आर्ट कॉलेज में समाजशास्त्री डॉ. विनय एन. पटेल की ओर से हाल ही में किए गए एक शोध के अनुसार, पूरे देश में करीब 5.33 फीसद आदिवासी आबादी ने अपना धर्म बदला है. आदिवासी क्षेत्र के गांवों में हाल ही में बने चर्च और आदिवासियों के घरों के सामने लगाए गए क्रॉस के निशान धर्मांतरण की पुष्टि करते नजर आते हैं.
मसलन, मस्का बड़ी गांव के विसिया ने प्रधानमंत्री आवास योजना में 2017 में एक पक्के कमरे का निर्माण करवाया था. कमरे के ऊपर ईसाई धर्म के प्रतीक क्रॉस का चिह्न बनाया गया है. विसिया का कहना है, "मुझे इस चिह्न के बारे में तो नहीं पता, लेकिन हमारे गांव में ज्यादातर घरों के ऊपर ऐसे ही चिह्न बने हैं, इसलिए मैंने भी बनवा लिया." मस्का बड़ी गांव में 70 फीसद घरों के ऊपर इसी तरह के क्रॉस बने हैं, मगर विसिया के घर से महज 100 मीटर दूर थावरी के मकान पर वह चिह्न नजर नहीं आता.
सफेद कपड़े पहनकर घर के बाहर बैठी थावरी ने इसके बारे में पूछने पर बताया, "हम भगत हैं और वे लोग ईसाई. जो लोग चर्च जाते हैं, उन्हीं के घरों पर वे निशान बने हैं.'' थावरी के घर के पीछे एक खेत में पत्थर का बड़ा-सा क्रॉस गड़ा है. यह क्रॉस इसी गांव के लाली डामोर और उनके पति रावजी डामोर को दफनाए जाने की जगह पर गाड़ा गया है. लाली और रावजी ने करीब एक दशक पहले ईसाई धर्म अपना लिया था.
उनकी मृत्यु के बाद गांव में कच्चे मकान में चलने वाले चर्च में ले जाया गया जहां पादरी ने उनके शव का दाह संस्कार करने की जगह दफनाए जाने की सलाह दी. हालांकि, ईसाई धर्म अपनाने के बाद भी अधिकांश आदिवासी अपने परिजनों के शवों का दाह संस्कार ही करते हैं.
मस्का बड़ी गांव में हाल ही में एक भव्य गिरजाघर का निर्माण हुआ है. उसके पास रहने वाले किसान बाथू कहते हैं, "पहले यहां छोटा-सा चर्च था, जिसमें गांव के लोग प्रार्थना के लिए आते थे, लेकिन अब आस-पास के गांवों से लोग ज्यादा आने लगे हैं इसलिए यह बड़ा चर्च बनाया है.'' मस्का बड़ी गांव के इस चर्च के पादरी जोजफ गनावा भी आदिवासी हैं, जिन्होंने ईसाई धर्म अपना लिया था.
कुछ साल पहले तक चर्च में प्रार्थना और अन्य धार्मिक अनुष्ठान के लिए बाहर के पादरी आते थे, लेकिन अब बड़ी तादाद में स्थानीय युवक पादरी बन रहे हैं. स्थानीय युवकों को झारखंड, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ राज्यों में एक से तीन साल के प्रशिक्षण के बाद पादरी का काम सौंपा जाता है. पादरी ईसाई धर्म अपनाने वाले आदिवासियों को जल में घुटनों तक खड़े रहकर और रोटी का निवाला खिलाकर यीशु के आदर्शों पर चलने की शपथ दिलाई जाती है.
यह शपथ प्रोटेस्टेंट और कैथोलिक पंथ के अनुयायियों के आधार पर होती है. राजस्थान के आदिवासी इलाकों में प्रोटेस्टेंट और कैथोलिक दोनों पंथों को मानने वाले लोग हैं. इंडिया टुडे की पड़ताल में बांसवाड़ा और उदयपुर जिलों में पादरी बने आदिवासी युवकों के 100 से भी ज्यादा नाम सामने आए. वैसे सामाजिक कार्यकर्ता जिग्नेश डामोर तो दावा करते हैं कि पादरी बनने वाले स्थानीय युवकों की वास्तविक संख्या हजारों में है.
मसलन, बांसवाड़ा के हरकापाड़ा गांव के गणेश से लेकर उदयपुर जिले के कुआखंडी गांव के निवासी मोडीराम और श्रवण कुमार खैर जैसे सैकड़ों आदिवासी अब अपने-अपने क्षेत्र के चर्च में पादरी की भूमिका निभा रहे हैं.
धर्म बदलने के साथ ही आदिवासी पिछले कुछ अरसे से अपने पारंपरिक नाम-उपनाम भी बदल रहे हैं. पहले आदिवासी अपने नाम के आगे डामोर, गरासिया, भील, पारगी, खैर, रोत, परमार जैसे सरनेम लगाते थे. अब इनकी जगह वे जोसफ, योहान, मतियास, सायमन और मैथ्यू जैसे सरनेम लगाने लगे हैं.
वैसे, राजस्थान में आदिवासियों के बीच ईसाई धर्म आज का मामला नहीं है. आजादी से पहले यहां के कई इलाकों में भारत के अन्य राज्यों और विदेशों से फादर आकर गिरजाघरों की स्थापना कर चुके हैं. बांसवाड़ा जिले के सज्जनगढ़ ब्लॉक के महुड़ी गांव में 1933 में फ्रांस के फादर बरनार्ड कपूचिन आए थे और यहां गिरजाघर की स्थापना की. फादर कपूचिन 1933 से 1965 तक महुड़ी में ही रहे. आज गिरजाघर के अलावा यहां 12वीं तक का स्कूल और हॉस्टल भी चलता है.
इस क्षेत्र में शिक्षा की दृष्टि से यह एक महत्वपूर्ण संस्थान माना जाता है. बांसवाड़ा शहर में बनाया गया शरण स्थान भी ऐसा ही गिरजाघर है जो करीब 102 साल पहले बनाया गया था. जयपुर के सैक्रेड हार्ट्स के बाद उदयपुर का शेफर्ड मेमोरियल राजस्थान का सबसे पुराना चर्च माना जाता है. इसे 1887 में विदेशी फादर कैम्पबेल थॉमसन ने बनवाया था. आजादी से पहले राजस्थान आने वाले देशी-विदेशी ईसाई मिशनरीज ने आदिवासी क्षेत्रों में सबसे पहले शिक्षा-स्वास्थ्य के क्षेत्र में काम शुरू किया और फिर गिरजाघर बनाए.
एक ओर समाज सेवा, दूसरी ओर धर्मप्रचार. यही वह पेच है जो अक्सर गहरे विवाद का सबब बनता रहा है. हिंदूवादी संगठनों के साथ काम करने वाले हिम्मत तावेड़ कहते हैं, ''ईसाई मिशनरीज स्वास्थ्य, शिक्षा और रोजगार जैसे काम चलाते ही इसलिए हैं ताकि वे भोले-भाले आदिवासियों को धर्म परिवर्तन कराने में सफल हो जाएं.''
कोटड़ा के सामाजिक कार्यकर्ता सरफराज अहमद कहते हैं, ''आदिवासी क्षेत्र में धर्मांतरण के पीछे ईसाई मिशनरीज की ओर से इन इलाकों में स्वास्थ्य सुविधाओं का विस्तार, आदिवासियों की आर्थिक स्थिति सुधारने की गतिविधियां, गरीबी उन्मूलन के प्रयास, अनाथालय चलाना, निरक्षरता मिटाने के लिए किए जा रहे कार्य, शैक्षिक विकास के लिए शिक्षण संस्थान स्थापित करना जैसे काम प्रमुख हैं. यही वजह है कि आदिवासी इन मिशनरी संस्थाओं और ईसाई धर्म के प्रति तेजी से आकर्षित हो रहे.''
सियासी लड़ाई भी तेज
भाजपा, आरएसएस और उससे जुड़े संगठन ईसाई और इस्लाम धर्म अपनाने वाले आदिवासियों को आरक्षण के दायरे से बाहर करने की मांग कर रहे हैं. भाजपा ग्राम सभाओं के जरिए आदिवासी क्षेत्रों में सांस्कृतिक सर्वे का अभियान शुरू करने जा रही है, जिसमें धर्म परिवर्तन करने वाले आदिवासियों को आरक्षण से बाहर करने के लिए प्रस्ताव पारित कराने की तैयारी है.
उदयपुर के सांसद रावत कहते हैं, ''आदिवासियों का धर्मांतरण एक बेहद गंभीर मुद्दा है. हम लगातार मांग कर रहे हैं कि जिन आदिवासियों ने दूसरे धर्म को अपना लिया है, अब वे उसी धर्म में रहें. राजस्थान में एक बड़ी आबादी ऐसी है जिसने बिना पंजीयन के अपना धर्म बदल लिया है. ऐसे लोगों को आरक्षण से वंचित करने के लिए केंद्र और राज्य सरकार विचार कर रही है.''
भारतीय आदिवासी पार्टी भाजपा की इस तैयारी का पुरजोर विरोध कर रही है. बांसवाड़ा से पार्टी के सांसद राजकुमार रोत का कहना है, "आदिवासी न तो ईसाई हैं और न हिंदू. आदिवासियों के रीति-रिवाज, संस्कृति, देवी-देवता और पूजा-पद्धति सब अलग हैं. हिंदू विवाह अधिनियम भी आदिवासियों पर लागू नहीं होता. आदिवासी सिर्फ आदिवासी हैं, उन्हें हिंदू या ईसाई कहना हमारी संस्कृति का अपमान है. भाजपा और आरएसएस डीलिस्टिंग के नाम पर आदिवासियों को डरा-धमकाकर उन्हें हिंदुत्व का पाठ पढ़ा रहे हैं. डीलिस्टिंग करनी ही है तो ईसाई धर्म अपनाने वालों के साथ-साथ हिंदू और इस्लाम अपनाने वाले आदिवासियों की भी हो.''
इस साल 18 जुलाई को विधानसभा में भी धर्मांतरण के मुद्दे की गूंज सुनाई दी थी. भाजपा के आदिवासी विधायक समाराम गरासिया ने भी ईसाई बनने वालों को आदिवासी सूची से हटाने और आरक्षण सरीखे लाभों से वंचित करने की वकालत की.
अन्य जिलों में भी धर्मांतरण
राज्य में धर्मांतरण का मामला आदिवासी बहुल जिलों तक ही सीमित नहीं है. पूर्वी राजस्थान में भी इसके मामले सामने आए हैं. भरतपुर जिले में 12 फरवरी, 2024 को 20,000 लोगों के एकसाथ धर्म बदलने का मामला सामने आया. भरतपुर के एक होटल में ईसाई धर्मगुरु ने कैंसर ठीक करने और मरे हुए बच्चे को फिर से जिंदा किए जाने का दावा करते हुए धर्मांतरण कार्यक्रम आयोजित किया था.
पुलिस ने कार्यक्रम के बाद आयोजक को गिरफ्तार कर लिया. गत 5 अगस्त को भी भरतपुर जिले के सेवर इलाके में धर्मांतरण का एक मामला सामने आया जिसमें 5,000-10,000 रुपए का लालच देकर धर्म परिवर्तन कराया जा रहा था. पुलिस ने धार्मिक सभा के दौरान ही छापा मारकर दो लोगों को गिरफ्तार कर लिया. भरतपुर से सटे अलवर जिले में भी पिछले कुछ अरसे में बहुत बड़ी तादाद में चंगाई यानि हीलिंग सभाएं आयोजित किए जाने के मामले सामने आए हैं.
ईसाई मिशनरीज आम लोगों की बीमारियां ठीक करने के लिए इस तरह की सभाओं का आयोजन करते हैं. कोटा, सिरोही, बाड़मेर, जैसलमेर में भी धर्मांतरण के कई मामले उजागर हो चुके हैं.
अब सख्त कानून की तैयारी
राजस्थान सरकार भी जल्द ही उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और गुजरात की तर्ज पर धर्मांतरण रोकने के लिए कानून बनाने जा रही है. राजस्थान में भी 2006 में पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे के कार्यकाल में धर्म स्वातंत्र्य विधेयक बनाया गया था, मगर राज्यपाल और राष्ट्रपति की मंजूरी न मिलने के कारण वह लागू नहीं हो पाया. राज्यपाल और राष्ट्रपति ने उस विधेयक को संविधान की मूल भावना के खिलाफ बताते हुए वापस लौटा दिया था.
इस कानून के प्रावधानों के अनुसार, किसी भी व्यक्ति को धर्म परिवर्तन करने से पहले कलेक्टर की अनुमति लेना अनिवार्य है. बिना अनुमति के धर्म परिवर्तन किए जाने पर पांच साल की सजा का प्रावधान किया गया था. प्रदेश के गृह राज्यमंत्री जवाहरसिंह बेड़म सख्त लहजे में कहते हैं, ''डरा-धमका और लालच देकर धर्मांतरण कराने वालों को सरकार किसी भी सूरत में बख्शने वाली नहीं. इस तरह से धर्मांतरण कराना आपराधिक कृत्य है. सभी जिलों के पुलिस अधिकारियों को निर्देश दिए गए हैं कि इस तरह की गतिविधियों में लिप्त लोगों की पहचान कर उनके खिलाफ सख्त कार्रवाई करें.''
राजस्थान की भजनलाल सरकार धर्मांतरण को लेकर एक नया और सख्त कानून बनाने की कवायद में जुट गई है. नए कानून में लालच, धोखाधड़ी या बलपूर्वक धर्म परिवर्तन कराने पर तीन साल की सजा और 25,000 रुपए का जुर्माना, नाबालिगों का धर्म परिवर्तन कराने पर पांच साल की सजा और 50,000 रुपए जुर्माना, धर्म परिवर्तन करने से 30 दिन पहले कलेक्टर को सूचित किए जाने जैसे प्रावधान लागू करने की तैयारी है. जाहिर है, राजस्थान में धर्मांतरण का मसला आने वाले दिनों में और छाया रहने वाला है.