बिहार : जमीन के चक्कर में कैसे एक पुरानी लिपी फिर जिंदा हो रही है

इस लिपि का प्रयोग सिर्फ जमीन के दस्तावेजों में ही नहीं बल्कि लोकगीतों, स्थानीय संतों की वाणियों, डायरियों, महाजनी दस्तावेजों और अदालती दस्तावेजों में बहुतायत में होता रहा है

अमीन और कानूनगो को कैथी का प्रशिक्षण देते वकार
अमीन और कानूनगो को कैथी का प्रशिक्षण देते वकार

सारण जिले के रहने वाले वकार अहमद सिर्फ बीस साल के हैं, अभी वे जेपी यूनिवर्सिटी, छपरा में जूलॉजी ऑनर्स की पढ़ाई कर रहे हैं. वकार पर बिहार सरकार के भू-राजस्व विभाग ने बड़ा भरोसा जताया है. उन्हें जमीन सर्वे के काम में जुटे राज्य के सभी अमीन और कानूनगो को एक ऐसी लिपि को पढ़ना-लिखना सिखाना है, जो अब लगभग विलुप्तप्राय है. मगर बिहार में जमीन के ज्यादातर पुराने कागजात इसी कैथी लिपि में लिखे गए हैं.

वकार अपने सीनियर साथी प्रीतम के साथ मिलकर पश्चिमी चंपारण, दरभंगा, समस्तीपुर, सीवान और सारण जिले के सभी अमीन और कानूनगो को कैथी का प्रशिक्षण दे चुके हैं. इन दोनों को सभी 38 जिलों के अमीन-कानूनगो को कैथी पढ़ना और समझना सिखाना है. तीन दिन के प्रशिक्षण में उनके साथी प्रीतम इन कर्मचारियों को कैथी वर्णमाला के अक्षरों को पहचानना और शब्द पढ़ना सिखाते हैं और वकार कैथी में लिखे जमीन के दस्तावेजों में वर्णित जमीन के बंटवारे, सौदे और अन्य संबंधित शब्दों के मतलब बताते हैं.

वकार कहते हैं, "तीन दिन में कैथी लिपि को पूरी तरह सिखाना तो मुमकिन नहीं, मगर हम लोग कोशिश कर रहे हैं कि ये लोग जमीन के दस्तावेज पढ़ना और समझना सीख जाएं." मगर इस बहाने दस हजार से ज्यादा अमीन- कानूनगो कैथी पढ़ना-समझना सीख जाएंगे. ऐसे में उम्मीद है कि विलुप्त होने के कगार पर पहुंची कैथी शायद फिर से जिंदा हो जाए.

कैथी बिहार समेत पूर्वी भारत के कई राज्यों की एक प्रमुख लिपि रही है. इसका प्रयोग सिर्फ जमीन के दस्तावेजों में ही नहीं बल्कि लोकगीतों, स्थानीय संतों की वाणियों, डायरियों, महाजनी दस्तावेजों और अदालती दस्तावेजों में बहुतायत में होता रहा है. जानकार इसे जन लिपि कहते हैं, जहां देवनागरी उच्च कोटि के साहित्य और धर्मग्रंथों की लिपि थी, कैथी में सामान्य जन लेने-देने, कारोबार, स्थानीय संस्कृति और चिट्ठी-पत्री किया करते थे. एक जमाने में प्रारंभिक स्कूली पढ़ाई भी कैथी में हुआ करती थी. मगर अंग्रेजों के जमाने में ब्रिटिश सरकार ने रोमन लिपि को बढ़ावा दिया और महात्मा गांधी के नेतृत्व में स्वतंत्रता सेनानियों ने अपने लिए देवनागरी को चुना. ऐसे में कैथी उपेक्षा का शिकार होती चली गई और 1970 तक आते-आते प्रचलन से बाहर हो गई.

लेखक भैरवलाल दास ने कैथी लिपि का इतिहास नामक एक पुस्तक लिखी है और वे 2010 से अपने साथी शिव कुमार मिश्र के साथ मिलकर कैथी को बचाने और लोगों को कैथी सिखाने के अभियान में जुटे हैं. इंडिया टुडे से बातचीत में भैरवलाल दास कहते हैं, "ऐसा माना जाता है कि कैथी गुप्तकाल के बाद सातवीं-आठवीं सदी में अस्तित्व में आई. नौवीं सदी में कैमूर और बनारस में कैथी में लिखे शिलालेख मिलते हैं. मगर इसका स्वर्णिम युग सोलहवीं सदी में शेरशाह सूरी के शासन काल में माना जाता है. उन्होंने इसे राज्यलिपि का स्थान दिया और अपनी मुहर में कैथी को जगह दी. मुगलों ने जरूर अपने शासनकाल में फारसी लिपि को बढ़ावा दिया, मगर उन्होंने कैथी को भी अपनी जगह पर रहने दिया. लोग जमीन के लेन-देन, खरीद-बिक्री और दूसरे कारोबारी काम कैथी में करते रहे. इसे असली दिक्कत ब्रिटिश शासन में हुई और आजादी के बाद तो स्थिति यह हो गई कि पहली जनगणना में भाषा के कॉलम से कैथी को ही हटा दिया गया."

कैथी लिपि में लिखा एक दस्तावेज

स्थिति यह हो गई कि हाल तक रजिस्टर डीड लिखने वाले चुनिंदा राइटरों को छोड़कर बिहार में कैथी को पढ़ने और समझने वाले लोग नहीं बचे. ऐसे में जब दीवानी मामलों में कैथी में लिखे जमीन के कागजात अदालत में पेश किए जाते हैं तो अदालत कैथी के जानकारों से उसका अनुवाद कराती है और उनसे यह प्रमाणपत्र भी लेती है कि अनुवाद पूरी तरह सही है. दीवानी मुकदमे का फैसला सुनाने वाले जजों को भी कैथी पढ़ना-लिखना नहीं आता जबकि 1950 से पहले के जमीन के ज्यादातर कागजात कैथी में लिखे हुए हैं और 1970 तक जमीन के दस्तावेजों में छिट-पुट कैथी का इस्तेमाल होता रहा है.

भैरवलाल दास कहते हैं, "दिक्कत यह है कि इन दस्तावेजों को पढ़ने में सक्षम लोगों की संख्या भी अब सौ से कम रह गई है. जबकि इन कागजात को सिर्फ अदालत में ही नहीं बल्कि लोन के एवज में बैंकों में भी पेश किया जाता है. वे भी अनुवादकों की ईमानदारी के भरोसे ही हैं." सुपौल में चार दशक से दीवानी मामलों को देख रहे वकील अरविंद कुमार दास कहते हैं, "यह बड़ा संकट है. कैडेस्ट्रल सर्वे (1892-1918) के ज्यादातर खतियान कैथी में हैं. 1950 से पहले के सेल डीड भी कैथी में लिखे हैं. जमींदारों ने अपना रिटर्न भी कैथी में दाखिल किया है."

भैरवलाल दास और उनके मित्र शिव कुमार मिश्र ने उसी साल अपनी संस्था मैथिली साहित्य परिषद के जरिए लोगों को कैथी सिखाना शुरू किया. इन दोनों ने मिलकर दरभंगा, भागलपुर, बेगूसराय और पटना में ऐसे कई कैंपों का आयोजन किया, जिसमें अब तक 1,500 से 2,000 लोगों को प्रशिक्षण दिया जा चुका है. सात दिनों के इस कैंप में वे तीन दिन कैथी के अक्षरों से प्रतिभागियों का परिचय करवाते हैं, बाकी दिनों में जमीन के दस्तावेजों और अन्य दस्तावेजों को पढ़ना-समझना सिखाते हैं.

भैरवलाल दास कहते हैं, "इन दो हजार लोगों में से बमुश्किल सौ लोग ऐसे हैं, जो जमीन के दस्तावेज ठीक-ठीक पढ़ सकते हैं. 500 लोग कैथी पढ़ना जान गए हैं." वे कहते हैं, मगर कैथी का मतलब सिर्फ जमीन के दस्तावेज नहीं है. बिहार के अलग-अलग हिस्सों में गाये जाने वाले लोकगीत कैथी लिपि में मिलते हैं. सहरसा के संत लक्ष्मीनाथ गोसाईं का साहित्य और सखी संप्रदाय के गीत कैथी में ही हैं. भोजपुरी के महान नाटककार भिखारी ठाकुर के नाटक कैथी में हैं. 1857 के क्रांतिकारी वीर कुंवर सिंह के पत्र कैथी में मिलते हैं. चंपारण सत्याग्रह के सूत्रधार राजकुमार शुक्ल की डायरी कैथी में है. एक तरह से आजादी से पहले का विपुल सांस्कृतिक दस्तावेज कैथी में है.

कैथी में किताबें खूब छपती रही हैं. हुगली की श्रीरामपुर मिशनरी ने 1811 में कैथी में न्यू टेस्टामेंट छापा था. बिहार में देवनागरी को बढ़ावा देने वाले खड़गविलास प्रेस में भी कैथी की किताबें खूब छपती थीं. मगर सरकारी और सामाजिक उपेक्षा के कारण कैथी धीरे-धीरे विलुप्त होने की स्थिति में पहुंच गई.

भैरवलाल दास कहते हैं, "कैथी सीखना मुश्किल नहीं है. यह देवनागरी का सरल और कामकाजी रूप है. इसमें शिरोरेखा नहीं है. ह्रस्व और दीर्घ के फर्क पर जोर नहीं है. हाल में भागलपुर विश्वविद्यालय ने भी इसे सीखने के लिए सर्टिफिकेट कोर्स शुरू किया है. जमीन ही नहीं, अपने इलाके के आम लोगों के जीवन, इतिहास और सामाजिक व्यवहार को समझने के लिए शोधार्थियों को इसे जरूर सीखना चाहिए. अलग-अलग जगह पड़े और कैथी में लिखे हजारों दस्तावेज उनकी राह तक रहे हैं."

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