कोलकाता में बसों की संख्या में लगातार गिरावट क्यों हो रही है?

कोलकाता की सड़कों पर बहुत कम बसें दिखाई देती हैं, ज्यादातर लोगों के लिए ऐप आधारित कैब और बाइक बुक करके चलना आर्थिक रूप से व्यावहारिक विकल्प नहीं है

कोलकाता में डब्ल्यूबीटीसी की बस में चढ़ते लोग
कोलकाता में डब्ल्यूबीटीसी की बस में चढ़ते लोग

एक तरफ जहां अभी भी आर.जी. कर बलात्कार और हत्याकांड के मामले की सुप्रीम कोर्ट की निगरानी में जांच चल रही है, वहीं ताजा कानूनी पचड़ा बसों का है जिसमें पश्चिम बंगाल सरकार फंसी है. हालांकि बसों का यह मामला तुलनात्मक रूप से कम नुक्सान पहुंचाने वाला है. दुर्गा पूजा महोत्सव के बाद सरकार कभी भी सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका दाखिल करेगी और कलकत्ता हाइकोर्ट की ओर से 2008 में दिए गए आदेश को संशोधित करने का अनुरोध करेगी. अदालत ने कोलकाता महानगर क्षेत्र में चलने वाले 15 वर्ष से ज्यादा पुराने सभी वाणिज्यिक वाहनों को हटाने का आदेश दिया था.

यह कदम शहर की 'गायब होती बसों' की स्थिति के कारण हताशा में उठाया जा रहा है. कभी कोलकाता वालों के आवागमन का पसंदीदा तरीका रही इन बसों की संख्या में लगातार कमी आई है. इस सचाई की गहरी चोट तब पड़ी जब अधिकारियों ने देखा कि 2008 के आदेश की बदौलत 2024-25 में करीब 1,500 निजी मिल्कियत वाली बसें सड़क से हट जाएंगी. मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने परिवहन विभाग से इस साल अगस्त में वाहन स्क्रैपिंग नीति का कानूनी तरीके से विरोध करने के लिए कहा.

कोलकाता महानगर इलाके में 2009 से पहले—जब नीति लागू की गई थी—करीब 6,500 निजी बसें चलती थीं, जिसमें कोलकाता, बिधाननगर, हावड़ा और चंदननगर के साथ-साथ उत्तर और दक्षिण 25 परगना, हुगली, नादिया और हावड़ा जिलों के आसपास के हिस्से भी शामिल थे. जब नीति लागू की गई तो करीब 4,000 बसों को सड़क से हटना पड़ा. हालात से निबटने के लिए 2009 और 2011 के बीच 2,000 बसों को शामिल किया गया था. लेकिन अब ये बसें भी 2024 के अंत तक अपनी मियाद पूरी कर लेंगी. परिवहन ऑपरेटरों की शीर्ष संस्था ऑल बंगाल बस मिनीबस समन्वय समिति के महासचिव राहुल चटर्जी कहते हैं, "इस बड़े इलाके में हमारे पास करीब 3,000 बसें होंगी जो चलती हैं. ये बेहद नाकाफी हैं."

चटर्जी दावा करते हैं कि बस मालिक/परिचालक अपनी बसें हटाकर उनकी जगह नई लाने को इच्छुक नहीं है क्योंकि 2018 के बाद से सरकार ने उन्हें किराया बढ़ाने की इजाजत नहीं दी जिससे वे भारी घाटे में हैं. वे पूछते हैं, "जरा सोचिए ईंधन कितना महंगा है. उसके ऊपर हमको वाहनों को मेंटेन करना पड़ता है और स्टाफ को भुगतान करना पड़ता है. किराया बढ़ाए बगैर हम कैसे ऑपरेट कर सकते हैं?"

जब निजी बसें हटाई गईं तो पश्चिम बंगाल परिवहन निगम (डब्ल्यूबीटीसी) संचालित बसों पर निर्भरता बढ़ती गई. 2014 और 2016 के बीच केंद्र के जवाहरलाल नेहरू नेशनल अर्बन रिन्यूअल मिशन के वित्तीय प्रोत्साहन से कुछ नई शानदार बसें इस बेड़े में शामिल की गईं. डब्ल्यूबीटीसी के एक पूर्व अधिकारी कहते हैं, "नई वोल्वो बसों के साथ यह सबके लिए फायदे की स्थिति लगती है." लेकिन कुल मिलाकर तेजी से घटती संख्या के कारण वैसा स्वरूप बरकरार नहीं रह सका.

डब्ल्यूबीटीसी के सूत्रों के अनुसार, समस्या कर्मचारियों की भारी किल्लत से भी जुड़ी हुई है. परिवहन निगम के पास 837 ड्राइवरों के पद मंजूर हैं. लेकिन सिर्फ 124 ही स्थायी हैं जबकि अन्य कॉन्ट्रेक्चुअल आधार पर काम कर रहे हैं. कुल मिलाकर, बस कंडक्टरों और ड्राइवरों के करीब 40 प्रतिशत पद खाली पड़े हैं. नतीजा: परिवहन निगम की बसें अक्सर अपने एक रूट पर अनिवार्य दो ट्रिप पूरे नहीं कर सकतीं.

राज्य परिवहन मंत्री स्नेहाशीष चक्रवर्ती कहते हैं कि पिछले पांच साल में 1,500 से अधिक नई बसों का पंजीकरण किया गया है. वे इंडिया टुडे को बताते हैं, "परिवहन निगम की करीब 700 बसें रोजाना चलती हैं. साथ ही, हाल के वर्षों में कोलकाता में 40,000 से 50,000 कैब पंजीकृत हुई हैं. यात्रियों को चिंता करने की जरूरत नहीं है." चक्रवर्ती कहते हैं, सुप्रीम कोर्ट में दायर याचिका कुछ तथ्यों पर आधारित होगी. पहले, 2008 का आदेश पुराने बीएस 1 और बीएस 2 मॉडलों पर आधारित था. इस समय बीएस 6 मॉडल की बसें चल रही हैं, जिनकी ड्युरेबिलिटी लंबी है और वे प्रदूषण भी कम करती हैं. साथ ही, यह दलील भी दी जाएगी कि जिन बसों का बढ़िया रखरखाव हो रहा है, उन्हें हर 15 साल में हटाने की जरूरत नहीं है.

आश्वासन भले ही कुछ भी हों, कोलकाता की सड़कों पर बहुत कम बसें दिखाई देती हैं. ज्यादातर लोगों के लिए ऐप आधारित कैब और बाइक बुक करके चलना आर्थिक रूप से व्यावहारिक विकल्प नहीं है. अब यही उम्मीद की जा सकती है कि शहर की बसों का हश्र भी ट्राम की तरह न हो जो महज अब कुछ ही रूट तक सीमित हो गई है.

अर्कमय दत्ता मजूमदार

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