मणिपुर में नफरत की ये नई लपटें किसने भड़काईं?

अबकी बार नफरत की दरारें और गहरी तथा चौड़ी लगने लगीं, अमन बहाली की संभावनाएं असंभव-सी दिखने लगीं

इंफाल शहर में 10 सितंबर को छात्रों का प्रदर्शन
इंफाल शहर में 10 सितंबर को छात्रों का प्रदर्शन

मणिपुर देश के लोगों के जेहन से अभी पूरी तरह उतर भी नहीं पाया था कि सितंबर की बर्बर घटनाओं ने यह कड़वी सच्चाई फिर सामने ला दी कि संकटग्रस्त राज्य में स्थिति कितनी नाजुक बनी हुई है. महीने के पहले दिन ही राज्य भीषण हिंसक झड़पों का गवाह बना और इस बार आमने-सामने थे—कुकी-जो सशस्त्र समूह और सुरक्षा बलों के जवान. यह सब उस तनावपूर्ण सीमा पर घटा जो मैतेई बहुल इंफाल पश्चिम और कुकी बहुल कांगपोकपी जिलों को बांटती है.

अगले कुछ दिनों में इन समुदायों के गुटों के बीच हिंसक झड़पों ने जिरीबाम और बिष्णुपुर जैसे इलाकों को अपनी चपेट में ले लिया, जिसमें कम से कम सात लोग मारे गए. जिरीबाम वह जगह है, जो हाल में मैतेई और हमार नेताओं (बड़ी हिस्सेदारी वाले कुकी-जो समुदाय का एक गुट) के बीच शांतिवार्ता के प्रमुख स्थलों में से एक बना, और ताजा हिंसा ने उसे भी जंग के मैदान में तब्दील कर दिया. इस हिंसा के दौरान कुकी विद्रोहियों की तरफ से कथित तौर पर हथियारबंद ड्रोन और रॉकेट-प्रोपेल्ड ग्रेनेड जैसे हथियारों का इस्तेमाल किया जाना दर्शाता है कि यह संघर्ष एक नए और खौफनाक दौर में पहुंच चुका है.

ताजा घटनाएं यही दर्शाती हैं कि मणिपुर में पिछले साल 3 मई को भड़के सामुदायिक संघर्ष के पहले चरण की भयावहता एक बार फिर नई ताकत से उभर आई है. इंटरनेट सेवाएं बंद हैं, अस्त्रागार लूट लिए गए हैं, और सड़कों पर प्रदर्शनकारियों की भीड़ उमड़ पड़ी है. दरअसल, कुकी समुदाय के आर्थिक विशेषाधिकारों को मैतेई लोगों को भी उपलब्ध कराने संबंधी एक अदालती आदेश को लेकर मैतेई और कुकी के बीच शुरू हुई तनातनी अब और भी ज्यादा गहरा गई है.

पिछले 16 महीनों में मणिपुर में जातीय हिंसा में 200 से अधिक लोग अपनी जान गंवा चुके हैं और 60,000 से अधिक को विस्थापित होना पड़ा है. उनमें अधिकांश राज्य में स्थित राहत शिविरों में रह रहे हैं या फिर सीमा पार भागकर शरण लेने को मजबूर हुए हैं. लेकिन इस मानवीय त्रासदी के बीच सिर्फ एक चीज ज्यों की त्यों बनी हुई है, और वह है मुख्यमंत्री एन. बीरेन सिंह की कुर्सी. उन पर कार्रवाई के लिए बढ़ती मांग—खासकर कुकी समुदाय और विपक्ष की तरफ से—के बावजूद भाजपा-नीत केंद्र सरकार बीरेन को हटाने या राष्ट्रपति शासन लगाने से लगातार इनकार करती रही है. जबकि कुछ लोगों का मानना है कि यह कदम राज्य में स्थिति संभालने में मददगार हो सकता है. केंद्र के इस अड़ियल रुख ने तमाम लोगों को हैरान कर दिया है, खासकर इसलिए कि संकट खत्म होने का नाम नहीं ले रहा.

अराजकता की स्थिति ने करीब 32 लाख आबादी वाले मणिपुर राज्य को दो हिस्सों में बांटकर रख दिया है—एक तरफ मैतेई बहुल इंफाल घाटी है तो दूसरी तरफ कुकी कब्जे वाले पहाड़ी जिले. दोनों ही क्षेत्रों में प्रतिद्वंद्वी जातीय समूह का नामो-निशान नहीं बचा है, जिससे विस्थापितों के लौटकर वहां जाने की कोई गुंजाइश नजर नहीं आती. यह विभाजन इतना गहरा है कि पुलिस और प्रशासनिक कर्मियों को भी जातीय आधार पर वहां से स्थानांतरित कर दिया गया है, जिससे भौगोलिक और सांप्रदायिक विभाजन और गहरा गया है.

प्रतिद्वंद्वी समुदायों में बंटे इन क्षेत्रों के बीच सीमा पर ग्राम रक्षा बलों ने बंकर बना रखे हैं, जहां देसी हथियारों, वॉकी-टॉकी, बुलेटप्रूफ जैकेट और दूरबीनों से लैस युवा पुरुष तैनात रहते हैं. इन इलाकों के बीच निर्जन क्षेत्रों में असम राइफल्स और भारतीय रिजर्व बटालियन (आइआरबी) जैसे केंद्रीय बलों की गश्त चलती रहती है. सबसे ज्यादा त्रासद पहलू यह कि यह जातीय विभाजन तथाकथित 'डबल इंजन' वाली भाजपा सरकार के राज में हुआ, जो राज्य और केंद्र दोनों की सत्ता पर काबिज है. इसके बावजूद उसका मामले की अनदेखी करना और भी ज्यादा समझ से परे है.

बीरेन पहेली

अन्य पूर्वोत्तर राज्यों की तरह ही मणिपुर भी इस क्षेत्र में भाजपा की सियासी रणनीति का अहम हिस्सा रहा है. पार्टी ने पिछले एक दशक के दौरान इस क्षेत्र में अपनी पैठ खासी मजबूत की है और इसमें बीरेन की अहम भूमिका रही है. पूर्व में बतौर कांग्रेस नेता उन्होंने और उनके दामाद और विधायक आर.के. इमो सिंह ने राज्य में खासी सियासी पूंजी जमाई है. बीरेन को हटाने से पार्टी के भीतर अस्थिरता उत्पन्न हो सकती है क्योंकि राज्य में भाजपा का अभी भी कोई संगठनात्मक आधार नहीं है. 

बीरेन मैतेई समुदाय के हैं और काफी प्रभावशाली हैं, जिसका इंफाल घाटी में दबदबा है. मणिपुर विधानसभा की कुल 60 सीटों में से 40 मैतेई बहुल इंफाल घाटी में ही हैं. इसके अलावा, पूर्व में अपनी पैठ मजबूत करने के लिए उठाए कदमों से मुख्यमंत्री को कुछ समूहों के बीच नाजुक समझौते कराने का श्रेय भी जाता है, जिनका मैतेई और नगा लोगों में काफी असर है. एक मैतेई सिविल सोसाइटी समूह अखंड मणिपुर समन्वय समिति (कोकोमी) के प्रवक्ता खुरैजम अथौबा पूछते हैं, "अगर बीरेन को हटा दें तो क्या उनके पास कोई ताकतवर नेता है?"

मणिपुर के जटिल सामाजिक-राजनैतिक परिदृश्य में राष्ट्रपति शासन लगाने को नई दिल्ली का एक अनावश्यक दखल माना जा सकता है. वहीं, इससे भाजपा की साख को भी झटका लगेगा, क्योंकि इस कदम को एक तरह से राज्य में भाजपा शासन की नाकामी माना जाएगा. जाहिर है, इसे भुनाने के लिए विपक्ष राष्ट्रीय स्तर पर मुद्दा बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ेगा. अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी म्यांमार और चीन से लगती संवेदनशील सीमाओं के साथ मणिपुर की निकटता के मद्देनजर राज्य में अस्थिरता के रणनीतिक दुष्परिणाम सामने आ सकते हैं. यही वजह है कि केंद्र प्रतिक्रिया स्वरूप या बिना सोचे-समझे कोई कदम उठाने के बजाए बहुत फूंक-फूंककर कदम रख रहा है, क्योंकि जरा-सी भी असावधानी विद्रोही समूहों को बढ़ावा दे सकती है या फिर बाहरी हस्तक्षेप की संभावना बढ़ सकती है.

केंद्र तैयार नहीं

पिछले कुछ हफ्तों में बीरेन सिंह ने कथित तौर पर पद छोड़ने की इच्छा जाहिर की है, क्योंकि वे सुरक्षा अभियानों पर वास्तविक स्तर पर कोई नियंत्रण न होने के कारण महज बलि का बकरा बनकर रह जाने से निराश हैं. पिछले साल 30 मई से राज्य के सुरक्षा सलाहकार कुलदीप सिंह ही सुरक्षा संबंधी निर्णय लेने वाली एकीकृत कमान की अध्यक्षता कर रहे हैं और मुख्यमंत्री को महत्वपूर्ण अभियानों से दूर रखा जा रहा है. इसके कुछ समय बाद ही केंद्र ने त्रिपुरा काडर के आइपीएस अधिकारी राजीव सिंह को मणिपुर का पुलिस महानिदेशक नियुक्त कर दिया था.

बीरेन खेमे का कहना है कि दोनों अधिकारी मुख्यमंत्री को दरकिनार कर सीधे केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह को रिपोर्ट करते हैं. राज्य में सेना, मणिपुर पुलिस और केंद्रीय सशस्त्र पुलिस बलों की 198 कंपनियों के लगभग 20,000 जवानों की मौजूदगी के बावजूद हिंसा जारी है, और जवाबदेही के नाम पर कुछ भी नहीं है.

बीरेन की प्रमुख मांगों में से एक यह है एकीकृत कमान का नियंत्रण मुख्यमंत्री कार्यालय को सौंपा जाए, और इस कदम को मैतेई सिविल सोसाइटी समूहों का समर्थन भी मिल रहा है. अथौबा के मुताबिक, "केंद्र और राज्य के बीच तालमेल की कमी है. इससे होता यह है कि केंद्रीय गृह मंत्रालय एक तरह का निर्देश देता है और राज्य दूसरी तरह का. मुख्यमंत्री राज्य को जानते-समझते हैं, इसलिए एकीकृत कमान का नेतृत्व उन्हें ही सौंपा जाना चाहिए." इसी से छात्र इंफाल स्थित सचिवालय और राजभवन के सामने विरोध प्रदर्शन के लिए बाध्य हो गए, जिसमें प्रदर्शनकारियों ने सुरक्षा की कमान बीरेन के हाथों में सौंपने की मांग उठाई.

नाराजगी की एक वजह असम राइफल्स के साथ संबंध तनावपूर्ण होना भी है. यह केंद्रीय गृह मंत्रालय के अधीन एक अर्धसैनिक बल है, जिसे क्षेत्र में उग्रवाद पर काबू पाने का जिम्मा सौंपा गया है. मैतेई समूह एक लंबे समय से इस अर्धसैनिक बल पर कुकी समुदाय का पक्ष लेने का आरोप लगाते रहे हैं. उनका कहना है कि वे 2008 में हस्ताक्षरित सस्पेंशन ऑफ ऑपरेशन (एसओओ) समझौते के तहत कुकी उग्रवादियों के साथ नरमी बरत रहे हैं. इस बीच, हाल में असम राइफल्स की दो बटालियनों—9 और 22—को फिर से जम्मू-कश्मीर में तैनात कर दिया गया है. कुकी बहुल चुड़ाचांदपुर और अन्य प्रमुख क्षेत्रों में केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल (सीआरपीएफ) को तैनात कर दिया गया. लेकिन इस फैसले पर कुकी समुदाय में तीखी प्रतिक्रिया जताई. उनकी तरफ से कहा गया कि वे असम राइफल्स की तैनाती ही चाहते हैं.

राजनैतिक इच्छा का अभाव

लगातार आरोप-प्रत्यारोप जारी रहने के बीच केंद्र की तरफ से चौंकाने वाली उदासीनता को नजरअंदाज करना असंभव है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने हिंसा का दौर शुरू होने के 16 महीनों बाद भी राज्य का दौरा नहीं किया है. यही नहीं, संकट पर टिप्पणी करने से भी बचते रहे हैं. गृह मंत्री शाह की प्रतिक्रिया और कामकाज भी कोई बहुत अच्छा नहीं रहा है. 6,500 से अधिक आग्नेयास्त्र और हजारों राउंड गोला-बारूद लूटे जाने के बावजूद सरकार ने निशस्त्रीकरण की कार्रवाई पर चुप्पी साध रखी है.

नेतृत्व स्तर पर इच्छाशक्ति के इस अभाव ने संघर्ष को और भड़का दिया है, जिसकी वजह से लंबे समय तक निष्क्रिय रहा उग्रवाद फिर से सिर उठाने लगा है. 14 मई को गुवाहाटी की एक अदालत में राष्ट्रीय जांच एजेंसी (एनआइए) की तरफ से दायर आरोपपत्र बताता है कि घाटी के प्रतिबंधित उग्रवादी संगठनों कांगलेई याओल कानबा लूप (केवाईकेएल) और पीपल्स लिबरेशन आर्मी ऑफ मणिपुर (पीएलए) आदि को नेशनल सोशलिस्ट काउंसिल ऑफ नगालैंड (इसाक-मुइवा) या एनएससीएन (आइ-एम) से मदद मिल रही है और इसकी वजह से ही उन्हें जातीय संघर्ष का फायदा उठाकर भारत में घुसपैठ का मौका मिल रहा है. सामाजिक कार्यकर्ता रतिका युमनाम का कहना है, "दोनों ही पक्षों का हथियार डालना बेहद जरूरी है और बातचीत की ठोस रूपरेखा तैयार की जानी चाहिए."

हालांकि, संकट सिर्फ कानून-व्यवस्था की स्थिति तक सीमित नहीं है. कुकी अब एक अलग प्रशासन की मांग कर रहे हैं. इंडिजिनस ट्राइबल लीडर्स फोरम के गिन्जा वुअलजोंग कहते हैं, "हमें मैतेई क्षेत्रों से खदेड़ दिया गया. कई कुकी मारे गए और हमारे घर और चर्च नष्ट कर दिए गए. 40,000 से ज्यादा लोग बेघर हैं. हम मैतेई के साथ एक ही छत के नीचे नहीं रह सकते. राजनैतिक तौर पर अलगाव के लिए हमने संविधान के अनुच्छेद 239ए के तहत एक अलग केंद्र शासित प्रदेश (यूटी) की मांग की है, जिसमें अपनी विधानसभा हो."

केंद्र को अच्छी तरह पता है कि इस मांग पर विचार किए जाने से घाटी में काफी घातक नतीजे सामने आ सकते हैं. पिछले दरवाजे से बातचीत के दावों के बावजूद विडंबना यही है कि कई प्रमुख समूहों को बातचीत से दूर रखा गया है. आदिवासी विधायक पाओलियनलल हाओकिप कहते हैं, "सात कुकी विधायकों ने आखिरी बार मई 2023 में गृह मंत्री शाह से मुलाकात की थी. उसके बाद से कई बार अनुरोध किए जाने के बावजूद हमें मिलने का समय नहीं दिया गया है." इससे भाजपा में बढ़ते मोहभंग का अंदाजा लगता है.

मणिपुर को इस निकम्मेपन की कीमत चुकानी पड़ रही है. राज्य जातीय आधार पर लगातार बंटता जा रहा है और अराजकता की वजह से पूरे क्षेत्र में अस्थिरता का खतरा भी बढ़ता जा रहा है. रणनीति में महत्वपूर्ण बदलाव किए बिना यहां शांति कायम होने की उम्मीद करना बेमानी है और इसका मणिपुर के भविष्य पर दूरगामी असर हो सकता है.

पांच वजहें जिससे मणिपुर आज भी धधक रहा  

मुख्यमंत्री एन. बीरेन सिंह

1. कुकी-जो और मैतेई समुदायों के बीच हिंसा की घटनाएं फिर से बढ़ गई हैं. बताया जा रहा है कि हमलों के लिए हथियारबंद ड्रोन और ग्रेनेड का भी इस्तेमाल हो रहा है. समय के साथ दोनों पक्षों के बीच कड़वाहट बढ़ती जा रही है और आपसी विश्वास का संकट गहराता जा रहा है

2. मुख्यमंत्री एन. बीरेन सिंह पर आरोप लग रहे हैं कि वे कट्टर मैतेई समुदाय के व्यक्ति हैं और राज्य में शांति व्यवस्था बहाल करने में विफल रहे हैं. उन्हें हटाने की लगातार मांग हो रही है, इसके बावजूद वे पद पर बने हुए हैं और यह बात अशांति को खत्म करने में बाधक बन रही है

3. भाजपा के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार इस संकट के प्रति उदासीन बनी हुई है. हालांकि राज्य का सुरक्षा तंत्र सीधे उसके नियंत्रण में है. केंद्र राष्ट्रपति शासन लगाने या मुख्यमंत्री बदलने की मांग को अनसुना करके निर्णायक हस्तक्षेप से बच रहा है. इससे हिंसा और भड़की है

4. राज्य और केंद्रीय सुरक्षा बलों, खासकर असम राइफल्स, के बीच तनावपूर्ण संबंधों के कारण हिंसा को नियंत्रित करने के प्रयास जटिल हो गए हैं. दोनों के बीच पक्षपात और अपर्याप्त समन्वय के आरोपों ने अविश्वास को बढ़ावा दिया है

5. अफवाहें और राज्य में सक्रिय कुछ शक्तियों के अपने राजनैतिक लाभ के लिए हिंसा भड़काने की कोशिश के आरोपों ने सांप्रदायिक तनाव बढ़ा दिया है

बीरेन सिंह को मुख्यमंत्री पद से हटाने से भाजपा के पांव पूरी तरह से उखड़ सकते हैं क्योंकि राज्य में पार्टी का अभी तक कोई संगठनात्मक आधार खड़ा नहीं हो पाया है

नेतृत्व शून्यता ने घाटी में लंबे समय से ढीले पड़े बागी गुटों को फिर से पैर जमाने का मौका दे दिया है. एनआइए के एक आरोपपत्र में प्रतिबंधित संगठनों की घुसपैठ की खबरों की पुष्टि हुई है

मणिपुर में उड़ते खतरे: हकीकत या फसाना

धमाके का कहर इंफाल पश्चिम के गांव कौत्रुक में ड्रोन हमले में नेस्तोनाबूद एक मकान

> चार महीने की शांति के बाद मणिपुर में 1 सितंबर को फिर से हिंसा भड़क उठी, जिसमें मैतेई-बहुल इंफाल पश्चिम जिले में स्थित कौत्रुक और कडांगबंद गांवों पर 'हाइ-टेक ड्रोन' हमले हुए. इन हमलों में दो लोग मारे गए और छह घायल हो गए. यह हमला कथित तौर पर कुकी उग्रवादियों ने किया था. अगले दिन, इसी तरह का एक हमला पड़ोसी गांव सेनजाम चिरांग में हुआ, जिसमें तीन ग्रामीण घायल हो गए

> 6 सितंबर को, संदिग्ध आतंकवादियों द्वारा दागा गया एक रॉकेट बिष्णुपुर जिले के मोइरंग इलाके में स्थित पूर्व मुख्यमंत्री एम. कोइरेंग सिंह के आवासीय परिसर में गिरा. इस हमले में एक 70 वर्षीय पुजारी की मौत हो गई. मणिपुर पुलिस का दावा है कि विस्फोटक गिराने के लिए कुकी ग्रामीणों और उग्रवादियों ने ड्रोन में बदलाव किए हैं. कथित तौर पर रॉकेट-चालित ग्रेनेड (आरपीजी) का भी इस्तेमाल किया जा रहा है

> लेकिन कुकी समूह और असम राइफल्स के पूर्व डी-जी लेफ्टिनेंट जनरल प्रदीप नायर दोनों इन दावों को खारिज करते हैं. हाल ही में एक साक्षात्कार में, नायर ने स्वीकार किया कि कुकी और मैतेई दोनों समूह टोह के लिए ड्रोन का उपयोग करते हैं, लेकिन उन्होंने इस बात को खारिज कर दिया कि रॉकेट दागे गए हैं. उनका कहना कि जिसे रॉकेट समझा जा रहा है वे घर में बनी 'पंपी बंदूकें' होनी चाहिए. उनकी टिप्पणियों को मणिपुर पुलिस और कांग्रेस सांसद अंगोमचा बिमोल अकोइजाम ने खारिज कर दिया

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