हिमंत बिस्व सरमा : बात-बात में एंटी मुस्लिम नैरेटिव खड़ा करने वाला हिंदुत्व का नया झंडाबरदार!

मुख्यमंत्री हिमंत बिस्व सरमा का असमिया संस्कृति के संरक्षण को हिंदू पहचान से जोड़कर ध्रुवीकरण करने वाला नैरेटिव असम के सियासी फलक को लगातार नए सिरे से गढ़ रहा. इसने सामाजिक खाई को भी गहरा किया

गुवाहाटी में 21 अगस्त को मीडिया से बातचीत करते असम के मुख्यमंत्री हेमंत बिस्व सरमा
गुवाहाटी में 21 अगस्त को मीडिया से बातचीत करते असम के मुख्यमंत्री हेमंत बिस्व सरमा

पश्चिम बंगाल की राजधानी कोलकाता में एक डॉक्टर के साथ हुए बलात्कार और हत्या से पूरे देश में हड़कंप मचने के हफ्ते भर बाद एक और खौफनाक घटना सुर्खियों में थी—असम में 14 साल की एक लड़की के साथ सामूहिक बलात्कार. कोलकाता के मामले ने सरकारी लीपापोती के आरोपों के बीच विवादों का तूफान खड़ा किया, जबकि गुवाहाटी से करीब 100 किमी दूर नगांव के ढींग की घटना ने राज्य में गहराते सामाजिक-राजनैतिक विभाजन के लक्षण के तौर पर ध्यान खींचा.

ढींग के मामले के मुख्य संदिग्ध को 24 घंटे के भीतर गिरफ्तार कर लिया गया, मगर 23 अगस्त को वह पुलिस हिरासत से कथित तौर पर भागने की कोशिश करते हुए तालाब में डूबकर मारा गया. उसी दिन एक अलग, मगर उसी तरह की घटना में पुलिस ने तेजपुर में छेड़छाड़ के आरोपी एक आदमी को भागने की कोशिश करते वक्त गोली मार दी. ये घटनाएं 2021 में हिमंत बिस्व सरमा के असम का मुख्यमंत्री बनने के बाद उभरे चिंताजनक पैटर्न को उजागर करती हैं.

बलात्कार, नशीले पदार्थों की तस्करी या दूसरे गंभीर अपराधों से जुड़े मामलों में संदिग्ध—अक्सर मुस्लिम—पुलिस हिरासत के दौरान प्राय: विवादास्पद परिस्थितियों में मारे गए. इन मौतों में कानून लागू करने वाली एजेंसियों की भूमिका पर सवाल उठाने के बजाए असम के कई लोगों ने इन्हें तुरत-फुरत इंसाफ की मिसाल बताकर तारीफ में कसीदे पढ़े. वहीं सरमा ने अपने प्रशासन के हाथों ''बलात्कार के मामलों से मुस्तैदी से निबटने'' का बचाव करते हुए महिलाओं के खिलाफ अपराधों में कमी लाने के जरिए के तौर पर इस तरीके का स्पष्ट समर्थन किया.

उनके मुख्यमंत्री बनने के बाद राज्य में बलात्कार के दर्ज किए जाने वाले मामलों की संख्या करीब आधी रह गई है—2021 में 1,779 से घटकर 2023 में 989. ढींग की घटना के संदिग्ध के डूबने के एक दिन बाद सरमा ने कहा, ''लोगों ने हमसे अपराधियों को गिरफ्तार करने या कानूनी कार्रवाई करने के लिए नहीं कहा; उन्होंने तुरंत इंसाफ की मांग की. लगता है, न्यायिक प्रणाली से भरोसा खत्म हो रहा है, शायद इसलिए कि कई मामलों में इंसाफ देर से होता है.''

मगर यह परिघटना तुरत-फुरत इंसाफ देने मात्र से आगे जाती है. तत्काल प्रतिशोध या बदले की मांग अक्सर तब उठती है जब आरोपी बांग्लादेशी प्रवासी मूल के और पीड़ित हिंदू हों, जैसा कि ढींग के मामले में था. कई मूल असमिया लोगों का मानना है कि ये अपराध दरअसल उनके अस्तित्व के सामने उभरे कहीं ज्यादा व्यापक खतरे का हिस्सा हैं जो ज्यादातर गैरकानूनी माने जाने वाले इन प्रवासियों से पैदा हुआ है.

आंकड़े इन आशंकाओं का समर्थन करते हैं. 2001 और 2011 की जनगणना के बीच असम की मुस्लिम आबादी 29 फीसद बढ़ी, जबकि इसी अवधि में हिंदू वृद्धि दर 15 फीसद से घटकर 10 फीसद पर आ गई. इस अवधि के दौरान भारत में मुस्लिम आबादी में सबसे ज्यादा फीसद अंकों की बढ़ोतरी असम में देखी गई, जो 30.9 फीसद से बढ़कर 34.2 फीसद पर पहुंच गई—यह 0.8 फीसद की राष्ट्रीय औसत बढ़ोतरी के मुकाबले 3.3 अंकों का बदलाव था.

इस वृद्धि को अक्सर बांग्लादेश से आए प्रवासियों से जोड़ा जाता है. सरमा ने अपने बयानों और नीतियों से राज्य की मुस्लिम आबादी और खासकर प्रवासी मूल के मुसलमानों को, जिन्हें यहां 'मियां' कहा जाता है, बार-बार निशाना बनाकर इस धारणा को काफी बढ़ा दिया. वे उन पर असमिया संस्कृति, भाषा और व्यापक भारतीय पहचान को नष्ट करने का आरोप लगाते हैं.

हाल में इस समुदाय के कार्यकर्ताओं ने भाषा और संस्कृति के मामले में खुद को असमिया लोगों से अलग करते हुए 'मियां' पहचान को प्रतिरोध के प्रतीक के तौर पर अपनाना शुरू कर दिया, जिससे तनाव और तीखा हो गया. ढींग की घटना ने इस नैरेटिव को और हवा दी. सरमा दावा करते हैं, ''असम में महिलाओं के खिलाफ अपराध दरअसल अतिक्रमण की व्यापक रणनीति का हिस्सा हैं. वे परिवारों को डराते-धमकाते हैं और उनकी जमीन पर कब्जा कर लेते हैं. जिस ढींग में हिंदू नाबालिग के खिलाफ हाल की यह घटना हुई, वहां हिंदुओं की आबादी कभी 90 फीसद थी. आज यहां 90 फीसद मुसलमान हैं.''

विपक्षी नेता जोर देकर कहते हैं कि बलात्कारियों के प्रति उनके मन में कोई हमदर्दी नहीं है, मगर उनका यह भी कहना है कि मुख्यमंत्री बदले के न्याय की आड़ लेकर सांप्रदायिक नैरेटिव खड़ा कर रहे हैं. उनका कहना है कि गैर-न्यायिक हत्या के खास पैटर्न से पता चलता है कि सरमा सांप्रदायिक एजेंडे को आगे बढ़ाने के लिए राज्यसत्ता की ताकत का इस्तेमाल कर रहे हैं. इनमें से कई मामलों में आम बात यह कि आरोपी की जातीय और धार्मिक पहचान एक—तकरीबन हमेशा मियां—रही है. विपक्षी नेता बताते हैं कि इस साल बलात्कार की करीब 15 घटनाएं हुईं, मगर 'तुरत-फुरत इंसाफ' केवल उन्हीं मामलों में किया गया जिनमें आरोपी मुसलमान थे.

सरमा का आरोपी की पहचान पर जोर देना महज संयोग नहीं है. दरअसल, यह एक व्यापक योजना का हिस्सा है जिससे यह दिखाया जा सके कि असम की सारी समस्याओं की असल जड़ प्रवासी मुस्लिम आबादी है. यह रणनीति 'हम बनाम वे' की अलगाव की भावना को बढ़ाकर हिंदू वोटों को एकजुट करने में काम तो आती ही है, साथ ही इसके जरिए सरमा के नेतृत्व में भाजपा खुद को कथित मुस्लिम खतरे के खिलाफ हिंदू हितों की रक्षक के तौर पर पेश करती है.

गुवाहाटी विश्वविद्यालय में राजनीतिशास्त्र के सहायक प्रोफेसर विकास त्रिपाठी कहते हैं, ''सरमा 2016 में जब से भाजपा में शामिल हुए हैं, प्रवासी मुसलमानों के अस्तित्व से उपजे खतरे के खिलाफ हिंदू सभ्यतागत पहचान को असम की मूल आबादी के लिए एकमात्र ताकत बताने में सबसे आगे रहे हैं. हालिया नैरेटिव उसकी ही अगली कड़ी है.'' 

सरमा की सियासी नजर में 'हम' बनाम 'वे' की भावना इतनी गहरी हो चुकी है कि अचानक आई बाढ़ जैसे बुनियादी ढांचे से जुड़े मुद्दे तक इसके इर्द-गिर्द ही केंद्रित होते हैं. अगस्त की शुरुआत में मूसलाधार बारिश के कारण गुवाहाटी में अभूतपूर्व बाढ़ के दौरान भी सरमा ने आपदा की पर्यावरणीय और बुनियादी ढांचे संबंधी दिक्कतों को हल करने के बजाए असम-मेघालय सीमा पर स्थित यूनिवर्सिटी ऑफ साइंस ऐंड टेक्नोलॉजी, मेघालय (यूएसटीएम) पर निशाना साधा. दरअसल, सरमा के निशाने पर यूएसटीएम संस्थापक और असम निवासी एक मुसलमान थे. सरमा ने आरोप लगाया कि पहाड़ पर विश्वविद्यालय के निर्माण ने शहर की जलभराव की समस्या को बढ़ा दिया है.

हो सकता है कि विश्वविद्यालय के लिए चुनी गई जगह जल निकासी बाधित होने की वजह हो, मगर सरमा का संस्थापक की धार्मिक पहचान पर जोर देना असल में अपने हिंदू समर्थन बढ़ाने और मुस्लिम संस्थानों और नेताओं को निशाना बनाने की उनकी व्यापक सियासी रणनीति का ही हिस्सा था. जाहिर तौर पर, उनके कार्यकाल के दौरान ऐसे कई विधायी और प्रशासनिक कदम उठाए गए हैं जिन्हें राज्य की मुस्लिम आबादी के खिलाफ माना जा सकता है.

असम में 23 अगस्त को धींग में नाबालिग लड़की के साथ कथित सामूहिक बलात्कार के खिलाफ विरोध-प्रदर्शन

22 अगस्त को सरकार ने असम मुस्लिम निकाह एवं तलाक पंजीकरण अधिनियम, 1935 को खत्म करने के लिए विधानसभा में असम निरसन विधेयक, 2024 पेश किया. सरमा ने कहा कि मुसलमानों के निकाह और तलाक का सरकारी पंजीकरण अनिवार्य करने के लिए एक नया विधेयक पेश किया जाएगा. इस कदम को राज्य में समान नागरिक संहिता लागू करने की दिशा में आगे बढ़ने की एक कोशिश के तौर पर देखा जा रहा है.

राज्य सरकार ने पिछले साल जब बाल विवाह के खिलाफ अभियान शुरू किया तो आलोचकों ने कहा कि इस पहल का उद्देश्य बच्चों की सुरक्षा से कहीं ज्यादा एक समुदाय विशेष को बदनाम करना है. हालांकि, सरमा ने अभियान का बचाव करते हुए कहा कि ऐसे मामलों में हिंदुओं और मुसलमानों दोनों को गिरफ्तार किया गया. वैसे, इंडिया चाइल्ड प्रोटेक्शन (आईसीपी) की एक रिपोर्ट भी यह बताती है कि असम के कड़े कानूनी उपाय वास्तव में प्रभावी साबित हुए और 2021-22 और 2023-24 के बीच 20 जिलों में बाल विवाह के मामलों में 81 फीसद की गिरावट दर्ज की गई.

सरमा के मुताबिक, ''एनएफएचएस-5 (राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण) के आंकड़े दर्शाते हैं कि यह समस्या डिब्रूगढ़ और तिनसुकिया के बजाए धुबरी और दक्षिण सलमारा में सबसे गंभीर है.'' धुबरी और दक्षिण सलमारा मुस्लिम बहुल जिले हैं, जबकि डिब्रूगढ़ और तिनसुकिया में मुसलमानों की संख्या बहुत कम है. इसी तरह, उनकी सरकार के सरकारी मदरसों को सामान्य शिक्षा स्कूलों में बदलने और बेदखली अभियान की भी खासी आलोचना की जाती है, जिससे आमतौर पर प्रवासी मुसलमान ही प्रभावित होते हैं.

सरमा जिस ध्रुवीकरण को बढ़ावा दे रहे हैं, उसके सियासी निहितार्थ किसी से छिपे नहीं हैं. हालिया लोकसभा चुनावों ने असम के राजनैतिक परिदृश्य में एक महत्वपूर्ण बदलाव नजर आया. राज्य की कुल आबादी में करीब 34 फीसद हिस्सेदारी वाले मुसलमान चुनाव में कांग्रेस के पक्ष में लामबंद होते दिखे. ऑल इंडिया यूनाइटेड डेमोक्रेटिक फ्रंट के सफाये के बाद तो यह बदलाव और अधिक स्पष्ट हो गया, जिसका पहले असम के मुसलमानों के बीच खासा दबदबा था.

सरमा बदलते परिदृश्य को हिंदू बहुसंख्यकों के अस्तित्व के लिए खतरा बताने को आतुर हैं. उनका तर्क है, ''लोकसभा चुनाव के बाद जिन क्षेत्रों में एक पार्टी ने अपना वोट शेयर बढ़ाया, उसके समर्थक एक खास समुदाय के लोग हैं और वे इतने दुस्साहसी हो गए हैं कि अपना वर्चस्व स्थापित करने की कोशिश में जुटे हैं. हिंदू महिलाओं पर अत्याचार इसका ही नतीजा है.'' गौरतलब कि नगांव ने लगातार दूसरी बार कांग्रेस सांसद को चुना है.

असम के कुल 126 विधानसभा क्षेत्रों में से 30 में मुसलमानों का खासा प्रभाव है, और यह भाजपा के लिए एक कड़ी चुनौती है क्योंकि कांग्रेस ने अगर अगले विधानसभा चुनाव में इनमें अधिकतर सीटों पर कब्जा जमा लिया तो भाजपा की राह कठिन हो सकती है. सरमा को यही बात काफी परेशान कर रही है. अच्छी-खासी अहोम आबादी वाले क्षेत्र जोरहाट में कांग्रेस के गौरव गोगोई की हालिया जीत इस चुनौती को और गहरा देती है.

कभी 600 साल तक असम पर शासन करने वाले मूल निवासी समुदाय अहोम का राज्य के करीब आठ निर्वाचन क्षेत्रों में दबदबा है. भाजपा के अहोम समर्थन में कमी और मुस्लिम वोटों का कांग्रेस के पीछे लामबंद होना आगामी चुनावों में भगवा पार्टी को खासा नुक्सान पहुंचा सकता है.

आलोचकों का तर्क है कि सरमा धींग घटना का फायदा उठाकर हिंदू वोट बैंक को ध्रुवीकृत करने का प्रयास कर रहे हैं, ताकि मूल निवासी समुदायों को अपनी जातीय पहचान को परे रखकर हिंदू पहचान को अपनाने के लिए प्रोत्साहित किया जा सके. धींग बलात्कार कांड के जवाब में ऑल ताई अहोम छात्र संघ समेत करीब लगभग 30 संगठनों ने ऊपरी असम के जिलों में मियांओं के निष्कासन की मांग के साथ एक आंदोलन शुरू कर दिया है.

वैसे, विशेषज्ञों की नजर में यह तय कर पाना थोड़ा मुश्किल है कि ध्रुवीकरण की सरमा की ये कोशिशें अपेक्षित नतीजे देंगी या नहीं. डिब्रूगढ़ विश्वविद्यालय में राजनीतिशास्त्र के सहायक प्रोफेसर कौस्तुभ कुमार डेका कहते हैं, ''ऐसा लग रहा है कि मुख्यमंत्री असम के कुछ हिस्सों में बढ़ते सामाजिक असंतोष के अलावा बेरोजगारी, गरीबी, अपराध और आपदा जैसी स्थितियों में उपजने वाली 'स्थानीय बनाम बाहरी' की सामान्य भावना को 'हिंदुत्व' के नैरेटिव में ढालने की कोशिश कर रहे हैं. हालांकि, मुद्दों को इस तरह मोड़ना राष्ट्रीय स्तर पर तो गूंज सकता है, पर यह असम में कितना असर दिखा पाएगा, यह सवाल बना हुआ है.'' 

असम में बदले सियासी समीकरणों के बीच असमिया संस्कृति की रक्षा और कथित आप्रवासन के खतरों से निबटने का सरमा का दांव जनता को काफी पसंद आ रहा है. इन मुद्दों को हिंदू सभ्यतागत पहचान के साथ जोड़ने से सरमा को चुनावी लाभ भी मिल सकता है. मगर दीर्घकालिक नतीजों की बात करें, तो इससे सामाजिक विभाजन के बहुत ज्यादा गहराने की आशंका बनी हुई है.

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