एमपी के बांधवगढ़ में मिले बुद्ध और जैन के जमाने के पेड़, नई स्टडी में और क्या पता चला?
बांधवगढ़ टाइगर रिजर्व सिर्फ वन्यजीव प्रेमियों के लिए ही पसंदीदा जगह नहीं है बल्कि इतिहास प्रेमियों के लिए भी है

बांधवगढ़ नेशनल पार्क में इतिहासकारों और पुरातत्ववेत्ताओं की हाल की खोज से कई ठोस ऐसी जानकारियां मिली हैं जिनसे पूर्वी मध्य प्रदेश में बघेलखंड क्षेत्र के इतिहास को फिर से लिखा जाएगा.
ऐतिहासिक रूप से हमारे पुरातात्विक और पुरा अतीत के अनुसंधान बिना किसी अपवाद के हमेशा ही शहरी केंद्रों तक सीमित रहे हैं. हालांकि यह खोज ज्यादा व्यापक थी और पहली बार आधिकारिक टाइगर रिजर्व के मुख्य क्षेत्र के भीतर की गई.
नतीजे में अनेक स्थलों से प्रागैतिहासिक काल के पाषाण औजार मिले जिनसे यहां की बसावट के 5000 ईसा पूर्व या इससे भी अधिक पुरानी होने के संकेत मिले जो पहले दर्ज की गई 200 ईस्वी से ज्यादा पुरानी लगती है. इन खोजों से संकेत मिलता है कि बांधवगढ़ के वन वासियों के लिए चकमक, गोमेध (चेर्ट, अगेट) और स्फटिक सबसे ज्यादा उपयोग वाले पत्थर थे.
एक और महत्वपूर्ण जानकारी जो लखनऊ की बीरबल साहनी इंस्टीट्यूट ऑफ पेलिओसाइंसेज की लैब से आई, वह थी: बांधवगढ़ में साल के स्थानीय पेड़ कम से कम ईसा पूर्व की छठी शताब्दी से पहले के हैं. पेड़ों की इन प्रजातियां की निरंतरता पर्यावरणविदों में दिलचस्प जगाएगी क्योंकि वनों में आम तौर पर समय के साथ बदलाव आ जाता है.
इसके अलावा, घुघवा फॉसिल पार्क जो बांधवगढ़ से बहुत दूर नहीं है, से मिले जीवाश्म लकड़ी के माइक्रोलिथ से पता चलता है कि प्रागैतिहासिक काल में समुदायों ने सिर्फ पत्थर से ही औजार नहीं बनाए बल्कि जीवाश्म लकड़ी जैसे पदार्थ से भी बनाए. मध्य प्रदेश प्रागैतिहासिक स्थलों के मामले में काफी धनी है. भीमबेटका शैल आश्रय और हथनोरा इसी राज्य में हैं जहां प्राचीन नर्मदा स्त्री की खोपड़ी के अंश मिले हैं. अन्य प्रागैतिहासिक स्थलों जैसे पीलीकरण, नीमटोन और महादेव से मिली कलाकृतियां खास तौर पर पत्थर से बनी हुई हैं फिर वह चाहे चकमक हो, सैंडस्टोन हो या क्वार्टजाइट हो. जीवाश्म पेड़ के तने से बने औजारों की खोज खड़िया काल की—लगभग 6.50 करोड़ वर्ष पुरानी—है जो राज्य की ऐतिहासिक संपन्नता में इजाफा करती है. इस तरह के औजार पहले राजस्थान, तमिलनाडु और त्रिपुरा में भी पाए गए हैं.
हरियाणा के सोनीपत में अशोक विश्वविद्यालय में प्रोफेसर नयनजोत लाहिड़ी का कहना है, "अतीत की बसावटों के मुकाबले जंगलों की ज्यादा बड़ी छाप होती है. मैंने यह जानने के लिए बांधवगढ़ पर काम करने का फैसला किया कि यहां के काष्ठक्षेत्र में अतीत की सांस्कृतिक छाप के पैटर्न किस तरह के हैं और अतीत की बारीकियों और चुनौतियों से कैसे निबटा जा सकता है."
लाहिड़ी पुरातत्ववेत्ताओं की उस टीम की मुखिया थीं जिसमें प्रागैतिहासकार आकाश श्रीनिवासन और अन्य लोग शामिल थे. ये लोग 2021 से टाइगर रिजर्व में फील्ड वर्क करते आ रहे हैं. पिछले एक साल में उन्होंने बीरबल साहनी इंस्टीट्यूट ऑफ पेलिओसाइंसेज की विनीता फरतियाल और पुणे की अगरकर रिसर्च इंस्टीट्यूट के कार्तिक बालासुब्रह्मण्यम के साथ यहां की वनस्पतियों और जलवायु परिवर्तन पर काम किया है. बांधवगढ़ में चक्रधारा क्षेत्र में एक सेडिमेंट कोर को अमेरिकी प्रयोगशाला ने बहुत पुरानी बताया और इसकी प्राचीनता का खुलासा किया. इससे संबंधित काम शोध जर्नल करंट साइंस में प्रकाशित हुआ है.
बांधवगढ़ टाइगर रिजर्व सिर्फ वन्यजीव प्रेमियों के लिए ही पसंदीदा जगह नहीं है बल्कि इतिहास प्रेमियों के लिए भी है. मुख्य क्षेत्र में अनेक प्राचीन स्मारक हैं जिनमें दूसरी शताब्दी की गुफाएं, कलचुरी राजवंश काल के मंदिर (8वीं से 13वीं शताब्दी) और मशहूर शेष शैया शामिल हैं. कलचुरियों के बाद इस क्षेत्र में बघेलों ने राज किया, जिनका मुख्यालय रीवा में था. नेशनल पार्क का दर्जा मिलने से पहले बांधवगढ़ के जंगल रीवा के शाही परिवारों के लिए शिकारगाह हुआ करते थे.
बांधवगढ़ की संपन्न ऐतिहासिक धरोहर प्राकृतिक सौंदर्य और हमारे अतीत के बहुमूल्य भंडार का अनूठा संगम है.
खोज
> बघेलखंड क्षेत्र ईसा पूर्व 5000 वर्ष या उससे पहले बसा हुआ हो सकता है
> बांधवगढ़ में साल के पेड़ों के जंगल कम से कम ईसा पूर्व छठी शताब्दी से मौजूद हैं
> प्रागैतिहासिक काल के समुदायों ने न केवल पत्थर बल्कि जीवाश्म लकड़ी सहित अन्य सामग्रियों से भी औजार बनाए