गुजरात का एक कानून कैसे यहां के कट्टरपंथियों के लिए समाज को बांटने का एक औजार बन गया है?

1986 में जब गुजरात का अशांत क्षेत्र कानून लाया गया, तो उसका मकसद सांप्रदायिक हिंसा से प्रभावित क्षेत्रों में घबराहट में होने वाली संपत्तियों की बिक्री को रोकना था लेकिन इसका इस्तेमाल कट्टरपंथी अपने फायदे के लिए कर रहे हैं

महिला को आवंटन के खिलाफ प्रदर्शन करते वडोदरा हाउसिंग सोसाइटी के लोग
महिला को आवंटन के खिलाफ प्रदर्शन करते वडोदरा हाउसिंग सोसाइटी के लोग

असल में 1986 में जब गुजरात का अशांत क्षेत्र अधिनियम लाया गया, तो उसका मकसद सांप्रदायिक हिंसा से प्रभावित क्षेत्रों में घबराहट में होने वाली संपत्तियों की बिक्री को रोकना था. इसके पूरे नाम 'गुजरात अचल संपत्ति के हस्तांतरण पर प्रतिबंध और अशांत क्षेत्रों में परिसर से बेदखली से किरायेदारों के संरक्षण के प्रावधान अधिनियम' के अनुरूप ही वादा किया गया था. मगर जानकारों का कहना है कि गुजरात को धार्मिक आधार पर बांटने की कोशिश करने वाले लोग वर्षों से एक औजार के तौर पर इस अधिनियम का इस्तेमाल कर रहे हैं.

मसलन, वडोदरा की एक मुस्लिम महिला का मामला देखिए. इस 44 वर्षीया एकल मां को 2018 में शहर में निम्न-आय समूह सोसाइटी में सीएम आवास योजना के तहत एक फ्लैट आवंटित हुआ. सोसाइटी के 462 में से 33 निवासियों ने कथित रूप से उनके धर्म के कारण उनके आवंटन का विरोध किया और दावा किया कि आवंटन उस अधिनियम का उल्लंघन है. उनके विरोध की वजह से छह साल बाद भी महिला को फ्लैट पर कब्जा नहीं मिल सका है. इस जून में कलेक्टर को लिखित शिकायत में, विरोध करने वाले निवासियों ने "उस एकमात्र मुस्लिम आवंटी की मौजूदगी की वजह से संभावित खतरे और उपद्रव का हवाला दिया."

वहीं, वडोदरा नगर निगम (वीएमसी) ने दावा किया है कि आवंटन में उचित प्रक्रिया का पालन किया गया था. वैसे, सूत्र इंडिया टुडे को बताते हैं कि वीएमसी महिला के नाम सरीखे धार्मिक पहचान पर ध्यान देने में नाकाम रहा, इसलिए यह विवादास्पद आवंटन हुआ.

गुजरात में अशांत क्षेत्र अधिनियम (डीएए) का हवाला देकर संपत्ति का हस्तांतरण रोकना कोई नई बात नहीं है. पिछले साल, वडोदरा की व्यवसायी महिला गीता गोराडिया को परेशानी से जूझना पड़ा जब उन्होंने शहर के एक हिंदू बहुल इलाके में अपनी संपत्ति शिक्षाविद् व्यवसायी फैजल फजलानी को बेच दी. गीता के पांच पड़ोसियों ने अधिनियम का हवाला देते हुए "सांप्रदायिक आधार" पर लेनदेन के खिलाफ हाइकोर्ट का रुख किया.

पहली बार 1986 में राज्य में कांग्रेस शासन में लाए गए डीएए के लिए सांप्रदायिक रूप से संवेदनशील क्षेत्रों में अंतरधार्मिक संपत्तियों के हस्तांतरण की जिला कलेक्टर से जांच आवश्यक थी ताकि संपत्ति का बाजार मूल्य बनाए रखा जा सके. 1991 में चिमनभाई पटेल के नेतृत्व वाली जनता दल सरकार (कांग्रेस समर्थित) ने एक संशोधन से इसे स्थायी कानून के रूप में अधिनियमित किया और सरकार को कुछ क्षेत्रों को अशांत घोषित करने तथा ऐसे क्षेत्रों में अचल संपत्तियों के हस्तांतरण पर रोक लगाने की शक्ति दी.

2019 में अधिनियम में एक संशोधन से राज्य सरकार और कलेक्टर को अधिक शक्तियां दी गईं. अधिनियम की मूल अवधारणा एक-दो साल की अस्थायी अवधि के लिए किसी क्षेत्र को डीएए के तहत लाने की थी, मगर 2019 के संशोधन से इसके समय-समय पर नवीनीकरण की मांग की गई और एक अस्थायी प्रावधान स्थायी हो गया.

इस प्रस्ताव को 2021 में जमीयत उलमा-ए-हिंद गुजरात ने अदालत में चुनौती दी और उसी साल राज्य हाइकोर्ट ने प्रस्ताव पर रोक लगा दी थी. मामला फिलहाल विचाराधीन है. याचिकाकर्ताओं ने दावा किया कि भाजपा सरकार पहले के पूर्वी अहमदाबाद के छोटे हिस्सों से लेकर अब शहर के लगभग 70 फीसद, वडोदरा के 60 फीसद, भरूच शहर के प्रमुख हिस्सों, सूरत, भावनगर, राजकोट, हिम्मतनगर, गोधरा, कपड़वंज, धंधुका, बोरसद और पेटलाद तक डीएए के तहत आने वाले क्षेत्रों का विस्तार कर चुकी है.

अदालती कार्यवाही की जानकारी रखने वाले एक सूत्र के मुताबिक, "जैसे-जैसे नए इलाके शामिल हो रहे हैं, वाणिज्यिक कार्यालय और दुकानें भी प्रभावित हो रही हैं." वैसे, गोराडिया और फैजल किस्मत वाले रहे. पिछले साल नवंबर में, हाइकोर्ट ने गोराडिया के पड़ोसियों की याचिका खारिज कर दी. मगर, सूत्रों का कहना है कि ऐसे कई मामले कलेक्टर कार्यालय में वर्षों से लटके हैं.

उस सूत्र का कहना है, "इस कानून को लाने का मकसद ध्रुवीकरण को रोकना था, मगर अब उसका उल्टा कर दिया गया है. सांप्रदायिक दंगे की घटना किसी क्षेत्र को डीडीए के तहत लाने की पूर्व शर्त है. मगर, भाजपा खुद मानती है कि सांप्रदायिक दंगे (बीते 25 साल में) न के बराबर हुए हैं. तो फिर डीएए का दायरा क्यों बढ़ाया जाता रहा?" वहीं, सरकार ने पिछले साल अदालत में अपने आखिरी निवेदन में कहा था कि वह कानून ला रही है जो याचिका को निरर्थक बना देगा.

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