सबसे अधिक उत्पादन करने वाले राज्यों में शुमार मध्य प्रदेश के किसान सरकार को क्यों नहीं बेच पा रहे गेहूं?
विशेषज्ञ भी प्रदेश में गेहूं की पर्याप्त खरीद नहीं होने से हैरान, कम खरीद के पीछे कम उत्पादन की प्रशासनिक दलील से सहमत नहीं

मध्य प्रदेश इस वक्त एक अलग तरह के संकट से जूझता नजर आ रहा है. उत्तर प्रदेश के बाद देश के दूसरे सबसे बड़े गेहूं उत्पादक और गेहूं खरीद में अव्वल राज्यों में से एक मध्य प्रदेश में इस प्रमुख अनाज की खरीद में मानो घुन ही लग गया है. मध्य भारत के इस राज्य ने 25 जून यानी खरीद के आखिरी दिन तक सिर्फ 48 लाख टन गेहूं की खरीद की, जबकि पिछले रबी विपणन सत्र के दौरान इसने करीब 71 लाख टन की खरीद की थी. प्रदेश की स्थिति इसलिए भी चिंता बढ़ाती है कि अन्य राज्यों ने या तो बीते वर्ष जितनी या फिर उससे कहीं ज्यादा गेंहू की खरीद की.
और, आप तो यही सोच रहे होंगे कि गेहूं उत्पादकों को 125 रुपये प्रति क्विंटल के बोनस भुगतान के साथ अन्य राज्यों की तुलना में ज्यादा दाम - 2,275 रुपये की तुलना में 2,400 रुपये प्रति क्विंटल - देने वाले मध्य प्रदेश में अपनी फसल बेचने के लिए किसानों की कतार ही लग गई होगी. मगर मध्य प्रदेश में गेहूं खरीद में दिखी सुस्ती ने बहुत लोगों की यह चिंता बढ़ा दी है कि इससे कहीं देश की खाद्य सुरक्षा ही प्रभावित न हो जाए. भारतीय खाद्य निगम (एफसीआई) के पास 303 लाख टन गेहूं का स्टॉक है, जो बफर मानक 275 लाख टन से थोड़ा ही अधिक है.
मध्य प्रदेश में गेहूं की खरीद 15 मार्च को पहले कुछ जिलों में शुरू हुई, फिर 25 मार्च को पूरे राज्य में इसकी शुरुआत कर दी गई. वैसे, खरीद की अंतिम तिथि 15 मई थी, लेकिन खरीद में तेजी न आती देख इसे पहले 31 मई और फिर 25 जून तक बढ़ा दिया गया. सरकारी सूत्रों की मानें तो केंद्र के कहने पर भी इसे आगे बढ़ाने का फैसला लिया गया, जो खुद इस स्थिति को लेकर खासा चिंतित था. देश में कुल खरीद 16 जून को 266 लाख टन दर्ज की गई, जो इस विपणन सत्र के लिए 373 लाख टन के लक्ष्य से काफी कम है. विशेषज्ञों का कहना है कि इस कमी का मुख्य कारण मध्य प्रदेश में पर्याप्त खरीद न होना ही है.
विशेषज्ञ भी इसको लेकर खासे हैरान हैं और मध्य प्रदेश में गेहूं की कम खरीद का कारण पता लगाने में जुटे हैं. मध्य प्रदेश के खाद्य एवं नागरिक आपूर्ति आयुक्त रवींद्र सिंह कहते हैं, "फसल की कटाई से पहले अत्यधिक गरमी और कटाई के दौरान बेमौसम बारिश के कारण उत्पादन में गिरावट दर्ज की गई है." वैसे, अधिकारियों का यह भी कहना है कि इस साल मंडियों के जरिए निजी क्षेत्र की खरीद पिछले सीजन के मुकाबले अधिक रही है, क्योंकि वे बेहतर गुणवत्ता वाले गेहूं के लिए सरकार की तुलना में अधिक कीमत दे रहे थे. नतीजतन, फसल का एक बड़ा हिस्सा निजी क्षेत्र के खिलाड़ियों के हाथ में चला गया. रवींद्र सिंह कहते हैं, "इतना ही नहीं जो किसान थोड़े सक्षम हैं, उन्होंने इस उम्मीद के साथ स्टॉक कर रखा है कि मानसून के बाद कीमतें और बढ़ेंगी."
हालांकि, कृषि विशेषज्ञ कम खरीद के पीछे कम उत्पादन की प्रशासनिक दलील से सहमत नहीं हैं. उत्पादन में ऐसी किसी गिरावट से इनकार करते हुए भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान (आइएआरआई) के इंदौर क्षेत्रीय केंद्र प्रमुख डॉ. जे.बी. सिंह कहते हैं, "अगर उत्पादन में गिरावट आई भी है तो बहुत अधिक नहीं, यह करीब 4-5 फीसद ही होगी. पिछले साल सितंबर के आखिर और अक्टूबर के शुरू में हुई बारिश के कारण किसानों को अक्तूबर में गेहूं की बुआई करनी पड़ी. इसके बाद तापमान बढ़ने से फसल ठीक से पक नहीं पाई, जिससे उत्पादन में गिरावट आई."
पिछले कुछ दशकों में गेहूं का उत्पादन मध्य प्रदेश के लिए सफलता की इबारत रहा है. राज्य में अब 230-240 लाख टन गेहूं का उत्पादन होता है, जो यूपी के बाद सबसे अधिक है. यूपी में रबी सीजन 2022-23 में गेहूं उत्पादन 340 लाख टन से अधिक रहा. मध्य प्रदेश में उत्पादकता राष्ट्रीय औसत के अनुरूप यानी प्रति हेक्टेयर 34 क्विंटल के करीब है. ऑफ द रिकॉर्ड बातचीत में अधिकारी मानते हैं कि गुणवत्ता के सख्त मानदंड अपनाए गए और बहुत संभव है इसकी वजह से खरीद में कमी आई हो. मंत्रालय में तैनात एक अधिकारी ने अपना नाम न छापने की शर्त पर कहा, "खरीद जितनी कम होगी, बोनस भुगतान पर उतना ही कम खर्च करना पड़ेगा. विधानसभा चुनाव से ऐन पहले घोषित कई कल्याणकारी योजनाओं के कारण मध्य प्रदेश पर वित्तीय भार बढ़ा है. सरकार की तरफ गेहूं बिक्री को हतोत्साहित किए जाने से कुछ धन बचाने में मदद ही मिलेगी." वहीं, मध्य प्रदेश के किसान पिछले वर्षों की तुलना में भुगतान में देरी की शिकायत कर रहे हैं, और यह भी उनके सरकार को गेहूं बेचने से कतराने का एक कारण है.
सरकारी खरीद केंद्रों पर ऐसे अनाज को खरीदने से इनकार करने की बात भी सामने आई है जिसका रंग बेमौसम बारिश के कारण खराब हो गया था. यह भी कम खरीद का एक कारण रहा है. सरकारी हलकों से इतर एक अन्य कारण भी चर्चा में है, जिसके मुताबिक राज्य सहकारी बैंकों से कर्ज लेने वाले किसान अपनी उपज सरकार को बेचने से कतराते हैं, क्योंकि बिक्री से मिले पैसों से कर्ज की रकम काट ली जाती है. यही वजह है कि वे किसान अपनी उपज निजी व्यापारियों को बेचने में ज्यादा रुचि रखते हैं.
भाजपा ने पिछले साल के आखिर में विधानसभा चुनाव के लिए अपने घोषणापत्र में 2,700 रुपये प्रति क्विंटल की दर पर गेहूं खरीद का वादा किया था. हालांकि, फरवरी में जब मोहन यादव की अगुआई वाली नई सरकार ने कार्यभार संभाला तो उसने केंद्र की तरफ से घोषित 2,275 रुपये के एमएसपी के साथ प्रति क्विंटल गेहूं खरीद पर 125 रुपये का बोनस देने की भी घोषणा की. इससे प्रभावी खरीद मूल्य 2,400 रुपये प्रति क्विंटल हो गया, जो चुनावी वादे वाली राशि से तो कम है लेकिन किसी भी अन्य राज्य की तुलना में सबसे अधिक है. बहरहाल, कम खरीद के बावजूद मध्य प्रदेश का मौजूदा स्टॉक सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस) के तहत राज्य की सालाना 16 लाख टन गेहूं की जरूरत से कहीं अधिक है.
गेहूं की कम खरीद मध्य प्रदेश को अन्य राज्यों के मुकाबले आखिर कहां खड़ा करती है? 2020-21 के रबी सीजन में देश के शीर्ष खरीदारों में पंजाब और हरियाणा से ऊपर मध्य प्रदेश ही था. इस सीजन में, दोनों राज्यों ने इसे पीछे छोड़ दिया है. पंजाब ने पिछले साल की खरीद के मुकाबले 5 लाख टन और हरियाणा ने 8 लाख टन ज्यादा खरीद की. यहां तक कि पिछले साल केवल 2.1 लाख टन गेहूं की खरीद करने वाले उत्तर प्रदेश ने भी इस बार 9 लाख टन की खरीद की है. ये आंकड़े मध्य प्रदेश के पिछड़ने के आलम को और भी ज्यादा चिंताजनक बनाते हैं.