अग्निपथ स्कीम: सैनिकों के गढ़ शेखावटी में क्यों कम हो रहा सेना में जाने का क्रेज

देश में सबसे ज्यादा सैनिक और शहादत देने वाले राजस्थान के शेखावाटी में युवा नहीं बनना चाहते अग्निवीर

चिड़ावा की इस डिफेंस अकेडमी में कभी सैकड़ों युवा प्रशिक्षण लेते थे, अब संख्या दहाई में
चिड़ावा की इस डिफेंस अकेडमी में कभी सैकड़ों युवा प्रशिक्षण लेते थे, अब संख्या दहाई में

उतरती मई की एक दोपहर में 12 बजे का वक्त होगा. पारा 47 डिग्री को छू रहा था. शेखावाटी के झुंझुनूं जिले में चिड़ावा के पास का स्यालू कलां गांव. 14 मई को लेह, लद्दाख में ड्यूटी के दौरान यहीं के अग्निवीर नंदूसिंह शेखावत ने प्राण त्याग दिए थे. उनके घर के बाहर एक बैनर टंगा था: 'नंदू सिंह शेखावत को शहीद का दर्जा दो’. घर में शेखावत के पिता उमराव सिंह और मां सुनीता कंवर गोद में अपने बेटे की तस्वीर लिए बैठे थे.

आंखें नम और चेहरा गमगीन. शेखावत की मौत का जिक्र आते ही पिता की डबडबाई आंखों में गुस्सा तैरने लगा. उन्होंने एक साथ कई सवाल दागे, "मेरा बेटा ड्यूटी करते हुए शहीद हुआ है, उसे अन्य जवानों की तरह शहीद का दर्जा क्यों नहीं दिया जा रहा? हमारे आस-पास के गांवों के शहीद दूसरे सैनिकों की पार्थिव देह सेना के वाहनों में घर लाई गई, लेकिन मेरे बेटे की देह को एक सामान्य एंबुलेंस में क्यों भेज दिया गया?" 25 मई को नंदू सिंह का बारहवां था और घर में लोगों की भीड़ जमा थी. हर कोई बस यही पूछ रहा था: नंदू सिंह को शहीद का दर्जा मिलेगा?

काबिलेगौर है कि 14 मई, 2024 को लेह में भारतीय सेना के गोला बारूद डिपो (41 एफएडी) में ट्रेड्समैन मेट के पद पर कार्यरत शेखावत की बम फटने से मौत हो गई थी. वे 20 मार्च, 2023 को लेह में सीधी भर्ती के जरिए अग्निवीर बने थे. उन्होंने कोविड-19 महामारी के दौरान गांव में दवाई की व्यवस्था की और कोरोना पॉजिटिव लोगों के लिए क्वारंटीन सेंटर खुलवाया. हाल में ही वे बीए अंतिम वर्ष की परीक्षा देकर ड्यूटी पर लौटे थे.

झुंझुनूं जिले में ही शेखावत के घर से 49 किलोमीटर दूर धनूरी है. इसे फौजियों की खान और शहीदों के गांव के नाम से भी जाना जाता है. कायमखानी मुसलमान परिवारों के इस गांव से प्रथम और द्वितीय विश्व युद्ध से लेकर करगिल युद्ध तक 17 सैनिकों ने अपनी शहादत दी है. इस गांव में कई ऐसे परिवार हैं जिनकी पांच-पांच पीढ़िया सरहद की सुरक्षा में तैनात रही हैं. धनूरी गांव के इकराज नबी बस स्टैंड पर स्टेशनरी की छोटी-सी दुकान चलाते हैं.

1999 में करगिल युद्ध के दौरान द्रास सेक्टर में पाकिस्तानी घुसपैठियों को खदेड़ते हुए 16 ग्रेनेडियर के जवान इकराज नबी को आठ गोलियां लगी थीं. उनके बदन पर घावों के निशान अब भी हैं. उन्हें युद्ध में भागीदारी और वीरता के लिए सेना के गोल्ड मेडल से नवाजा गया. इकराज के चार पोते सेना में अपनी सेवाएं दे रहे हैं. अग्निपथ योजना का जिक्र शुरू होते ही इकराज बताते हैं, "2,500 मतदाताओं वाले धनूरी गांव में 300 पूर्व सैनिक और 250 लोग अभी सेना में हैं. लेकिन जब से अग्निपथ लागू हुई है, इस गांव का एक भी युवा सेना में भर्ती नहीं हुआ."

इकराज के घर से थोड़ी-सी दूरी पर 1971 के युद्ध में अदम्य साहस का परिचय देने वाले अली हसन खान का घर है. 14 ग्रेनेडियर से सेवानिवृत्त सूबेदार मेजर अली 1971 के युद्ध में घायल हो गए थे. पाक सीमा में सर्जिकल स्ट्राइक के दौरान उन पर एक बम फेंका गया, जिसके टुकड़ों से उनके दोनों पैर जख्मी हो गए थे. ब्रिटिश काल से लेकर अब तक अली की पांच पीढ़ियां सेना में तैनात रही हैं.

इस परिवार से अजीमुद्दीन खां पहले शहीद थे जो प्रथम विश्व युद्ध (1914-19) में ब्रिटिश सेना की तरफ से लड़ते हुए शहीद हो गए थे. अजीमुद्दीन को उनकी वीरता के लिए विक्टोरिया मेडल से नवाजा गया. अजीमुद्दीन के पुत्र कादर खां ने द्वितीय विश्व युद्ध में भाग लिया. कादर खां के पुत्र अली 1965 में आर्मी में भर्ती हुए और 1971 के युद्ध में भाग लिया. अली को कई सेना मेडल मिले. उनके बेटे सूबेदार सिराजुद्दीन भी सेना में थे.

अली के पोते जवान हो चुके हैं लेकिन अग्निपथ लागू होने के बाद उनका सेना से मोहभंग हो गया है. अली कहते हैं, "हमने 32 साल तक सेना में ट्रेनिंग ली है, हर हथियार चलाने का अनुभव है. अब कोई अग्निवीर छह माह की ट्रेनिंग में कितना सीख पाएगा भला? छह माह की ट्रेनिंग से जवान लड़ाई के लिए तैयार नहीं हो सकते." वे तो यहां तक कह देते हैं कि "अग्निवीर एक कैंसर है जो धीरे-धीरे हमारी सेना को खा जाएगा. हम चाहते हैं कि अग्निवीर योजना को समाप्त कर फिर से सेना में स्थायी भर्ती शुरू की जाए."

अली की आवाज की प्रतिध्वनि शेखावाटी के अलग-अलग इलाकों में साफ सुनी जा सकती है. धनूरी के युवाओं का तो अग्निपथ के बारे में रवैया स्पष्ट हो ही गया. इलाके में कई नौजवान तो ऐसे हैं जिन्होंने अग्निवीर बनने के बाद नौकरी को अलविदा कह दिया. सीकर की चरण सिंह कॉलोनी में पपुरना गांव के मोहित पापटवान रहते हैं. जून, 2023 में मोहित एटीएस (एयर फोर्स) बेलगाम में अग्निवीर के तौर पर भर्ती हुए थे. डेढ़ महीने बाद ही वे इस्तीफा देकर घर लौट आए.

अब वे सिविल सर्विसेज की तैयारी कर रहे हैं, साथ ही डिफेंस की तैयारी करने वालों को पढ़ाते हैं. मोहित स्पष्ट करते हैं, "मैंने भावनाओं में आकर या किसी के उकसाने पर अग्निवीर की नौकरी नहीं छोड़ी. बहुत सोच-समझकर यह फैसला किया. सेना में चार साल की अग्निवीर की नौकरी के बाद मुझे मेरा कोई भविष्य नजर नहीं आ रहा था. ऐसे में मैं चार साल का बेशकीमती समय गंवाना नहीं चाहता था. सो इस्तीफा दे दिया. अग्निवीर को न मान-सम्मान मिलता है, न शहादत पर शहीद का दर्जा. समाज अग्निवीर को फौज का जवान मानने को तैयार नहीं है."

मोहित और उनके परिवार का सेना से गहरा नाता रहा है. सेना में रहते हुए मोहित के जीजा दाताराम सैनी और मौसा धर्मपाल सैनी अपनी शहादत दे चुके हैं. सशस्त्र सीमा बल (एसएसबी) में कार्यरत मावंडा कलां गांव के दाताराम ने 10 जून, 2023 को लखनऊ में प्रशिक्षण के दौरान प्राण न्यौछावर कर दिए थे (संयोगवश उन्हें भी अभी तक शहीद का दर्जा नहीं मिला है). आगामी 12 जून को मावंडा गांव में दाताराम की प्रतिमा का अनावरण होगा. अफ्रीका में शांति सेना का हिस्सा रहे धर्मपाल सैनी की 15 अक्तूबर, 2012 को कांगो में मौत हो गई थी. लंबे संघर्ष के बाद 2018 में गांव के स्कूल का नामकरण शहीद धर्मपाल सैनी के नाम पर हो पाया.

पैरा मिलिट्री फोर्स में कार्यरत रहे दाताराम सैनी और अग्निवीर नंदूसिंह शेखावत को शहीद का दर्जा नहीं दिए जाने के कारण राज्य सरकार की ओर से दिया जाने वाला पैकेज भी अब तक नहीं मिला है. राज्य के सैनिक कल्याण विभाग की ओर से सीमा पर शहादत देने वाले जवानों के परिजनों को 20 लाख रुपए तक की नकद सहायता और सिंचित क्षेत्र में 25 बीघा जमीन या हाउसिंग बोर्ड का मकान दिए जाने का प्रावधान है. शहीद के एक आश्रित को सरकारी नौकरी और माता-पिता के बैंक खाते में पांच लाख रुपए की राशि जमा कराई जाती है, लेकिन ड्यूटी के दौरान जान गंवाने वाले अग्निवीरों को इस योजना के दायरे में शामिल नहीं किया गया है.

शेखावाटी क्षेत्र में अग्निपथ योजना के आर्थिक प्रभाव खासे चौंकाने वाले हैं. 16 जून, 2022 को अग्निपथ योजना लागू होने तक शेखावाटी के तीन जिलों (झुंझुनूं, सीकर और चूरू) में करीब छह लाख युवा सेना में भर्ती की तैयारी कर रहे थे. अब इनकी संख्या घटकर 40,000-50,000 रह गई है. अग्निपथ योजना लागू होने तक अकेले चिड़ावा शहर में आर्मी भर्ती की तैयारी के लिए 67 कोचिंग संस्थान चलते थे जिनकी संख्या अब महज 13 रह गई है. जो चल रहे हैं, वे भी अब बंद होने के कगार पर हैं. 2022 तक चिड़ावा डिफेंस कोचिंग हब माना जाता था लेकिन आज वहां के कोचिंग केंद्रों में 500 छात्र भी नहीं है.

चिड़ावा में विराट डिफेंस एकेडमी के संचालक सौरभ डूडी कहते हैं, "2022 में मेरे पास 267 युवक सेना भर्ती की तैयारी कर रहे थे. आज सिर्फ 10 बच्चे हैं. 2021 में चार करोड़ रुपए खर्च कर अत्याधुनिक कोचिंग इंस्टीट्यूट और फिजिकल एक्टिविटी के लिए पूरा ग्राउंड तैयार किया था लेकिन अग्निपथ लागू होने के बाद पूरा इन्फ्रास्ट्रक्चर बर्बाद हो गया. परिवार पर बड़ा कर्जा हो चुका है जिसे चुकाने का कोई रास्ता नजर नहीं आता."

सीकर की सबसे पुरानी राजस्थान डिफेंस एकेडमी के संचालक राजेंद्र सिंह का भी कुछ ऐसा ही हाल है. अग्निपथ लागू होने से पहले तक उनकी एकेडमी में हर साल 1,000-1,100 युवा सेना भर्ती की तैयारी के लिए आते थे. अब उनकी तादाद महज 40-50 रह गई है. सेना भर्ती के लिए आने वाले लड़के-लड़कियों के लिए राजेंद्र सिंह ने दो अलग-अलग हॉस्टल बनाने के साथ ही 20 से ज्यादा डिजिटल क्लासरूम वाला एक आलीशान भवन भी तैयार करवाया था.

हर क्लासरूम में 60-70 बच्चों के बैठने की व्यवस्था है. आज की तारीख में क्लासरूम में 4-5 बच्चे भी मौजूद नहीं रहते. राजेंद्र सिंह कहते हैं, "शेखावाटी इलाका देशभक्ति के जज्बे और वीरता के लिए जाना जाता रहा है लेकिन अग्निपथ योजना ने युवाओं के जोश, जुनून और जज्बे को बड़ी ठेस पहुंचाई है. पहले यहां का युवा सेना को अपनी पहली प्राथमिकता मानता था लेकिन अब वे अग्निवीर के तौर पर सेना में भर्ती होने की जगह दूसरे विकल्प खोज रहे हैं. पूर्व सैनिक भी अपने बच्चों को अग्निवीर नहीं बनाना चाहते." नागौर जिले के कूचामन सिटी की डिफेंस एकेडमीज का भी कमोबेश ऐसा ही हाल है.

ग्राउंड रिपोर्ट: अग्निपथ योजना ने शेखावटी में सैनिक भर्ती का क्रेज कम किया?

गौरतलब है कि अग्निपथ योजना लागू होने के बाद दूसरे चरण की 2023-24 की भर्ती रैलियों में राजस्थान से 1,700 युवाओं का चयन हुआ है. रेजिमेंटल सेंटर्स में इनका प्रशिक्षण चल रहा है. अग्निवीर के लिए चयनित होने वाली छह लड़कियां भी इसमें शामिल हैं. उन्हें बेंगलूरू स्थित कोर ऑफ मिलिट्री पुलिस में प्रशिक्षण दिया जा रहा है. अग्निवीर के तौर पर चयनित होने वाली लड़कियां राजस्थान के झुंझुनूं, बीकानेर, चूरू और नागौर जिले की रहने वाली हैं.

ग्रेनेडियर रेजिमेंट से सेवानिवृत्त बिग्रेडियर हर्षवर्धन सिंह अग्निपथ योजना में सुधार के लिए कुछ अहम सुझाव देते हैं. उनके शब्दों में, "सरकार को अग्निपथ योजना में कुछ सुधार लाने चाहिए. चार साल के बाद घर आने वाले अग्निवीरों को राज्य पुलिस, पैरामिलिट्री जैसी जगहों पर 100 प्रतिशत नौकरी की गारंटी मिलनी चाहिए. इसके साथ ही अग्निवीर की स्थायी भर्ती के 25-75 के अनुपात को बढ़ाकर 50-50 किया जाना चाहिए."

अग्निपथ योजना शेखावाटी के सामाजिक ताने-बाने पर भी असर डाल रही है. कुछ साल पहले तक सेना में भर्ती होने वाले युवा शादी के लिए पहली पसंद थे. अब अग्निपथ के आने के बाद कोई भी पिता अपनी बेटी की शादी उनसे नहीं कराना चाहता. चिड़ावा के सामाजिक कार्यकर्ता सुरेंद्र सिंह राव कहते हैं, "यहां पहले ही शादी योग्य लड़कों को लड़कियां मिलनी मुश्किल थीं. हर गांव में औसतन 50-60 युवा ऐसे हैं जिनकी शादी की उम्र बीत जाने के बाद भी विवाह नहीं हो पा रहा. ऐसे में अब अग्निवीर भी अगर कुंआरे रहेंगे तो यहां की सामाजिक संरचना छिन्न-भिन्न हो जाएगी."

सूरजगढ़ के नजदीक कासनी गांव के दो बेटियों के पिता वेदपाल कहते हैं, "मैं बेटियों की शादी अग्निवीर से नहीं कर सकता क्योंकि चार साल बाद उन्हें वापस घर भेज दिया जाएगा. अग्निवीर चुने जाने के बाद किसी युवा का चयन स्थायी तौर पर हो जाता है तो मैं खुशी-खुशी उसके साथ अपनी बेटियों की शादी करने को तैयार हूं."

विराट डिफेंस एकेडमी वाले सौरभ भी इस पहलू की तस्दीक करते दिखते हैं. वे बताते हैं, "कई रिश्ते तो महज इस वजह से टूट गए क्योंकि लड़का सेना में अग्निवीर के तौर पर भर्ती हुआ था. लड़की के परिजनों को जैसे ही इस बात का पता चला कि लड़का स्थायी सैनिक नहीं बल्कि अग्निवीर है तो उन्होंने रिश्ता तोड़ने में बिल्कुल समय नहीं लगाया. पहले सेना और सशस्त्र बलों में भर्ती किसी युवा के लिए अच्छा रिश्ता मिलने की गारंटी होती थी."

ऐसे में उम्मीद की जानी चाहिए कि सरकार युवाओं के रोजगार से जुड़ी इस योजना पर फिर से नजर डालेगी और जरूरी संशोधन के बारे में विचार करेगी.

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