पीले बालू के लिए लाल होती सोन नदी
मगर अंधाधुंध रेत खनन, बराज पर गाद का जमाव जैसी बड़ी वजहों से सोन नदी के आस-पास रहने वाले लोगों के लिए आजीविका और पीने के पानी का संकट पैदा हो गया है

जनादेश 2024 बिहार
जोगिंदर राय कोइलवर के पास सोन की दो धाराओं के बीच सुरौधा टापू पर रहते हैं. उनके पास बीस बीघा जमीन है. दोनों तरफ सोन की धारा बहने के बावजूद उनकी ज्यादातर जमीन परती ही रह जाती है. सिर्फ बारिश के दिनों में वे निचले इलाके की कुछ कट्टा जमीन पर सब्जी उगा पाते हैं.
दियारा का इलाका तो खेती के लिए खूब अच्छा माना जाता है, फिर वे खेती क्यों नहीं कर पाते? यह पूछने पर जोगिंदर कहते हैं, "पहले इहां भी खूब अच्छा खेती होता था. मगर फिर पानी का लेयर डौन (डाउन) होने लगा. सब (चापा) कल-बोरिंग फेल होने लगा. हमरे गांव में बिजली है नहीं, फिर खेती कैसे होगा? अगर सिंचाई का अच्छा बेवस्था हो तो यहां कम से कम 1,500 बीघा पर खेती हो सकता है."
गांव के एक जागरूक व्यक्ति मिथिलेश कुमार स्पष्ट करते हैं, "सोन में होने वाले अंधाधुंध रेत खनन की वजह से दोनों तरफ की धारा बीस से तीस फुट गहरी हो गई है और इसका असर वाटर लेवल पर पड़ा है. कभी हमारे यहां बीस फुट पर पानी निकल आता था. अब डेढ़ से दो सौ फुट बोरिंग करने पर पानी निकलता है. हमारे गांव में बिजली नहीं है, इसलिए किसान बोरिंग नहीं लगवा पा रहे. ऐसे में खेत हैं, मगर खेती नहीं होती. खेती तो छोड़िए, पीने के पानी के लिए आफत है. गांव में एक-दो चापाकल है, जिस पर पूरा गांव जाकर पानी भरता है."
सुरौधा कोइलवर नगर पंचायत का हिस्सा है. नगर पंचायत के तीन वार्ड इस टापू में आते हैं, जहां से वार्ड पार्षद चुने जाते हैं. लोग खेती कर पाएं या न कर पाएं, मगर उन्हें टैक्स म्युनिसिपालिटी की दर से चुकाना पड़ता है. यह राजधानी पटना से सिर्फ 40 किमी दूर है. केंद्रीय उर्जा मंत्री आर.के. सिंह यहां के निवर्तमान सांसद हैं और इस बार भी चुनाव लड़ रहे हैं.
मगर इस गांव के लोगों के नसीब में आज भी बिजली-पानी नहीं है. यहां पहली बार 2018 में बिजली लाने की कोशिश की गई थी. सरकार ने सोलर ग्रिड की स्थापना की मगर वह भी डेढ़ साल बाद बंद हो गई. इस टापू पर लोग रात अंधेरे में काटते हैं और पूरा दिन पानी के जुगाड़ में हैंडपंप चलाते हैं.
मगर इस गांव को सबसे अधिक नुक्सान नदी के दोनों तरफ होने वाले अंधाधुंध रेत खनन ने पहुंचाया है. पानी का लेवल तो गिरा ही है, नदी की मछलियां भी खत्म हो गईं. ऐसे में इस टापू पर रहने वाले मछुआरे बेरोजगार हो गए. मिथिलेश कहते हैं, "कुछ साल पहले तक जब बालू खनन बिना मशीन के होता था तो यहां के लोगों को उसमें मजदूरी का काम मिल जाता था. ऐसे में मजदूर भी बेरोजगार हैं. संकट ही संकट है."
यह संकट सिर्फ सुरौधा गांव का नहीं है. अंधाधुंध रेत खनन का असर सोन की धारा पर भी पड़ा है. गांव के पूरब की तरफ बहने वाली सोन की धारा जो मनेर के पास गंगा में मिलती है, इन दिनों पूरी तरह सूखी हुई है. कभी रेत से भरे रहने वाले सोन के पेट में घास उगी है और वहां गाय चरती हुई नजर आती है.
जमीन इतनी मटमैली है कि लोग नदी के पेट में गेहूं की खेती भी करने लगे हैं. कोइलवर के स्थानीय पत्रकार दीपक गुप्ता बताते हैं, "इस धारा में वैध और अवैध रेत खनन ने सोन से एक-एक ग्राम रेत निकाल लिया है. नदी इतनी गहरी हो गई है कि अक्सर बारिश में गंगा का मटमैला पानी सोन में आ जाता है, इसलिए सोन के बेड में इतनी मिट्टी हो गई है. दूसरी धारा में भी बहुत कम रेत बचा है."
पहले कोइलवर के पास एक दर्जन से अधिक सरकारी घाटों से रेत का उठाव होता था. अब मुश्किल से चार सरकारी घाट बचे हैं, जिनमें से एक को ठेकेदार ने अवैध खनन माफिया के भय से सरेंडर कर दिया है.
कोइलवर का इलाका पहले रेत खनन के लिए काफी मुफीद माना जाता था. अभी भी यहां काफी अवैध खनन होता है. बालू निकालकर नाव से ढोई जाती है. मगर नदी में रेत के घटने से दोनों तरह के खनन में कमी आई है.
दीपक बताते हैं, "अब रेत माफिया की नजर आसपास की जमीन पर है. नदी से अच्छा बालू जमीन की खुदाई से निकलता है. सात-आठ फुट जमीन खोदने पर रेत निकलने लगती है. ऐसे में माफिया लोगों को डरा-धमका कर उनकी जमीन पर खुदाई करने लगे हैं."
बिहार में 202 किमी तक बहने वाली सोन नदी में रोहतास, भोजपुर और पटना जिले में 40 से अधिक वैध और इससे दो गुना अवैध घाटों से लगातार रेत खनन हो रहा है. अवैध घाटों से रेत खनन का तो कोई हिसाब नहीं है मगर वैध घाट चलाने वाले ठेकेदार भी खनन के मानकों का पालन नहीं करते और बीस से तीस फुट गड्ढा कर रेत निकालते हैं. इसकी वजह से नदी में जगह-जगह गड्ढे बन गए हैं और भोजपुर जिले में इन गड्ढों में डूबने से हर साल चार-पांच लोगों की मौत हो जाती है.
रेत खनन के वैध-अवैध कारोबार ने यहां संगठित अपराध को जन्म दिया है. दीपक बताते हैं, "सिर्फ कोइलवर के इलाके में आधा दर्जन से अधिक माफिया गिरोह तैयार हो गए हैं, जो हथियारबंद युवकों को रखते हैं. ये युवक अवैध रेत खनन माफिया की मदद करते हैं. इनमें लाठी से लेकर, कट्टा, पिस्टल, राइफल और एसएलआर तक चलाने वाले होते हैं. इन्हें पांच सौ से लेकर दो हजार रुपए तक रोजाना मेहनताना मिलता है. अक्सर दियारा के इलाके में रेत खनन को लेकर खूनी संघर्ष होता है." पिछले एक साल के दौरान दियारा में एक दर्जन से ज्यादा लोग इस संघर्ष में मारे गए.
हालांकि इसी सोन ने पुराने शाहाबाद इलाके को संपन्न बनाया है. इसकी गवाह डेहरी ऑन सोन से लेकर बक्सर तक बिछी नहरें हैं. इन नहरों ने पूरे इलाके को धान के कटोरे में बदल दिया. अंग्रेजों ने 1874 में ही डेहरी ऑन सोन में सोन नदी पर एनीकट बराज बनाकर नहरें निकाली थीं. हालांकि तब इन नहरों का इस्तेमाल सिंचाई के लिए कम, परिवहन के लिए अधिक होता था.
मध्य प्रदेश हिंदी ग्रंथ अकादमी से 1983 में छपी देवकुमार मिश्र की किताब सोन के पानी का रंग में जिक्र है, "उन दिनों बड़ी नहरों में यातायात की सुविधा को प्रमुख स्थान दिया जाता था...अगिनबोटों (मोटरबोट) के निकलने तक नहरों से पानी की निकासी को रोक दिया जाता था." अब इन नहरों में ढुलाई बिल्कुल बंद है.
कोइलवर से डेहरी ऑन सोन की तरफ जाते वक्त रास्ते में कई जगह नहरें दिखती हैं. ज्यादातर नहरें सूखी हुई हैं और गंदगी-कचरा भरा दिखता है. अब नहर के आखिरी छोर तक पानी पहुंचाने में काफी दिक्कत होती है.
इसकी वजह इंद्रपुर बराज के पास जाकर समझ आती है. वहां भीषण गाद जमा है, जो पानी के बहाव को रोकती है. सोन नदी पर शोध करने वाले उपेंद्र मिश्र कहते हैं, "पहले भी अंग्रेजों का बना एनीकट बराज सिल्ट की वजह से ही बेकार हो गया. उसके बाद 1965 में आठ किमी अप स्ट्रीम में जाकर यह बराज बनाया गया. मगर बराज के ऊपरी इलाके में फिर गाद जमी हुई है.ठ
वे कहते हैं, ठसोन के अवैध खनन और बराज के पास गाद जमी होने से यह पूरा इलाका समस्याओं से घिरा हुआ है. मगर बदकिस्मती से इस चुनाव में कहीं भी इसकी चर्चा नहीं है."
दीपक भी कहते हैं, "पाटलिपुत्र, भोजपुर, काराकाट और सासाराम लोकसभा सीट के लोगों का कहीं न कहीं सोन से जुड़ाव है. उनकी आजीविका, उनका जीवन सब सोन पर निर्भर है, इसके बावजूद चुनाव में सोन के सवाल का गुम हो जाना दुखद है."