लोकसभा चुनाव 2024 : बिहार में निषादों के मुद्दे गायब लेकिन नेता 'वीआईपी'

निषादों की राजनीति करने वाले मुकेश सहनी से राजद ने समझौता कर उनकी पार्टी को तीन सीटें दीं. पर कहां हैं निषादों के असली सवाल?

दरभंगा के बिरौल के पास एक गांव में तालाब किनारे सूख रहा जाल और मछली पकड़ते निषाद जाति के लोग
दरभंगा के बिरौल के पास एक गांव में तालाब किनारे सूख रहा जाल और मछली पकड़ते निषाद जाति के लोग

धनौर गांव की गिनती मुजफ्फरपुर जिले के धनी गांवों में होती रही है. वहां न सिर्फ धान उगाने वाले किसान धनी होते थे, बल्कि बागमती के किनारे बसे मल्लाह भी नदी और गांव के तीन दर्जन से अधिक पोखरों से मछली पकड़कर अपनी बिरादरी में संपन्न माने जाते थे. उसी धनौर गांव में अपनी पुरानी-सी साइकिल के कैरियर पर देग लादे दिखे अभिनंदन सहनी.

इस देग में उनके गांव के नदी-पोखरे की मछली नहीं है. ये आंध्र प्रदेश से आई मछलियां हैं. वे कहने लगते हैं, "तालाब सब का पनिये सूख गया त मछली कहां से होगा! नदी है, बागमती बहती है पीछे, लेकिन उसमें रीगा चीनी मिल वाला बीच-बीच में गंदा पानी छोड़ देता है, सब मछली मर जाता है. फिर नदी पर बांध जोजना भी लागू हो गया है (दस साल पहले तटबंध बन गए हैं). मजबूरी में बाप-दादा का पेशा छोड़कर बरफ वाला मछली बेचना पड़ रहा है."

नदियों-पोखरों वाले गांव होने के बावजूद आंध्र प्रदेश की मछलियों को बेचने की यह मजबूरी अकेले अभिनंदन की नहीं है. 700-800 घरों वाली धनौर गांव की मछुआरों की बस्ती में अब बमुश्किल सौ मछुआरे बचे हैं. बाकी परिवारों ने थक-हार कर यह पेशा छोड़ दिया. कुछ संपन्न लोग लीज पर जमीन लेकर खेती करते हैं. बाकी ने मजदूरी के लिए दिल्ली, पंजाब, बंगाल और असम का रास्ता पकड़ लिया है.

अभिनंदन के साथी अजय सहनी ने 15 दिन पहले राशन किराने की छोटी-सी गुमटी खोली है. वे कहते हैं, "सरकारी तालाबों पर मछली संघ वालों के झगड़े की वजह से रोक लग गया है और प्राइवेट तालाब का लीज इतना महंगा है कि हम लोग लागत तक नहीं निकाल पा रहे. क्या करते. घर चलाना था तो दुकान खोल लिए."

धनौर गांव जिस मुजफ्फरपुर लोकसभा सीट के अंदर आता है, उसे निषादों की सीट माना जाता है. यहां पिछले 28 साल से अमूमन कैप्टन जयनारायण निषाद और उनके बेटे अजय निषाद का कब्जा रहा है. बीच में सिर्फ एक बार 2004 में जार्ज फर्नांडीस जीते थे. अजय निषाद पिछले दो चुनाव से यह सीट भाजपा के टिकट पर जीतते रहे. इस बार पार्टी ने उनका टिकट काट दिया तो वे कांग्रेस का टिकट लेकर मैदान में उतर आए. इधर भाजपा ने एक नए निषाद नेता राजभूषण चौधरी को मैदान में उतारा है.

धनौर गांव में ऊंची जाति के लोग अभी भी धनिक हैं. मगर मल्लाहों की पूरी बस्ती में एकाध पक्का मकान ही दिखता है. ज्यादातर परिवार बागमती के किनारे पांच-दस डिसमिल जमीन पर बसे हैं. कुछ लोगों के घर तटबंध के अंदर हैं, जो हर साल बाढ़ झेलते हैं. कुछ तटबंध और सरकारी तालाबों की जमीन पर जैसे-तैसे रह रहे हैं.

टाट और फूस की झोपड़ियों वाली इस बस्ती की तरफ इशारा करते हुए पूर्व सरपंच वीरेंदर सहनी कहते हैं, "आप देखिए, लोग कैसे छप्पर पर पन्नी टांग कर जीवन गुजारते हैं. इतना बड़ा बस्ती में मुश्किल से दस से पंदरह घर में ही शौचालय होगा. बाकी सब मैदान करने बाहर ही जाता है. ज्यादातर लोग जमींदार की जमीन पर बसे हैं, मुस्किल से दस परसेंट लोग ही होंगे, जिनके पास अपनी जमीन है. आप घूम के देखिए कोई तालाब के पंजरे पर झोपड़ी बना कर रह रहा है तो कोई बागमती बांध (तटबंध) की जमीन को धर लिया है. अधिकतर भूमिहीन हैं."

हालांकि भूमिहीनता, पारंपरिक पेशे का छूटना, पलायन, गरीबी और हर साल आने वाली बाढ़ जैसे संकटों से जूझ रहे इस गांव के मल्लाहों की राजनैतिक चेतना में उनके अपने जीवन से जुड़े सवाल कम ही हैं. गांव के ज्यादातर लोग इस बात से गौरवान्वित हैं कि उनके अपने समाज का बेटा मुकेश सहनी इस चुनाव में भी मजबूत लड़ाई लड़ रहा है.

भाजपा ने मुकेश सहनी का क्रेज कम करने के लिए अपनी पार्टी के हरि सहनी को आगे बढ़ाया था. उन्हें पहले विधान परिषद का नेता प्रतिपक्ष बनाया, फिर मंत्री पद दिया. मगर वे निषादों के बीच पकड़ बनाने में कामयाब नहीं हो पाए. निषादों की बस्ती में कोई उनका नामलेवा नहीं है.

बंगाल में रहकर नौकरी करने वाले छोटे सहनी कहते हैं, "किसी को उम्मीद थी कि निषाद समाज का बेटा मुकेश सहनी इतनी ऊंचाई पर चला जाएगा? आज वे जहां गए हैं, यह देखकर हम लोग बहुत खुश हैं. पूरा निषाद समाज उनके साथ है. वे एक बार आवाज लगा दें, लोग उनके लिए मरने-मिटने को तैयार हैं." आंध्र की बरफ वाली मछली बेचने वाले अभिनंदन सहनी भी कहते हैं, "हम भोट देंगे मुकेस सहनी को ही. आरक्षण का बात कर रहा है. मोदी सरकार दस साल, पंदरह साल मुकेस को रक्खा और फिर लात लगाकर बाहर निकाल दिया. गरीब का बच्चा है तो क्या कोई बेइज्जत कर देगा?"

निषाद का बेटा राजनीति कर रहा है, इस बात को लेकर मुकेश सहनी के प्रति जो क्रेज बना है वह धनौर से तकरीबन सौ किमी दूर मधुबनी जिले के बाबूबरही में भी दिखता है, जहां झंझारपुर सीट पर अपनी विकासशील इंसान पार्टी (वीआईपी) के प्रत्याशी सुमन कुमार महासेठ के प्रचार में वे एक सभा में पहुंचे हैं. वहां उनको देखकर समर्थक युवा जिंदाबाद के नारे लगाने लगते हैं. मंच से उतरते ही उनके साथ सेल्फी लेने वालों की भीड़ लग जाती है. एक युवा अपने शरीर पर मुकेश सहनी की तसवीर पेंट कराकर पहुंचा है, वह उन्हें बार-बार खुद को दिखाने की कोशिश करता है और आखिरकार उसे मंच पर बुला लिया जाता है.

मुकेश लगभग एक दशक से निषादों के मसले पर राजनीति कर रहे हैं. उनकी सबसे बड़ी मांग निषाद समूह की जातियों को एससी-एसटी आरक्षण के दायरे में लाना है. अभी ज्यादातर निषाद जाति अति पिछड़ा समूह के अंतर्गत आती है. निषाद जाति में उनकी बढ़ती पकड़ को देखते हुए बिहार की राजनीति के दोनों धड़े एनडीए और महागठबंधन बारी-बारी से उन्हें अपने साथ जोड़ते रहे हैं. 2020 के विधानसभा चुनाव में वे एनडीए के साथ थे. एक सवा साल मंत्री भी रहे.

मगर बाद में उन्हें पद छोड़ना पड़ा. उनकी पार्टी के विधायक भाजपा के साथ चले गए. एक तरह से उनकी राजनीति की नाव भंवर में डूबने लगी. मगर इस लोकसभा चुनाव में राजद ने उन्हें तीन टिकट देकर अपने साथ कर लिया है. वे लगातार तेजस्वी यादव के साथ घूम रहे हैं. तेजस्वी इस चुनाव में उनकी अहमियत समझते हैं. पिछले दिनों में जाति आधारित गणना में निषाद समूह की बीस जातियों की आबादी बिहार में नौ फीसद से ज्यादा बताई गई है. यह एक बड़ा वोट बैंक है, जो राजद के मुस्लिम-यादव वोट बैंक के साथ जुड़कर इंडिया गठबंधन को अच्छी बढ़त दिला सकता है.

मुकेश सहनी का क्रेज बिहार के कई हिस्सों में अपनी जाति के बीच है. मगर यह क्रेज खुद उनके गांव सुपौल बाजार के जिरात टोले में टूटने लगता है, जो दरभंगा जिले में है. जहां उन्होंने अपनी कारोबारी और राजनीतिक सफलता के बाद अपना आलीशान घर बनाया है. मुख्य सड़क से तकरीबन ढाई-तीन सौ मीटर भीतर एक गली में उनका घर है. गली में घुसते ही हमारा सामना जर्जर सड़क और खुली बदबूदार नालियों से होता है.

गली की शुरुआत में ही रहने वाले राजेश सहनी कहने लगते हैं, "महीने भर बाद आप इस गली से गुजर नहीं पाएंगे, बारिश होते ही नाले का बदबूदार पानी पूरी गली में फैल जाता है." मुकेश भी गांव आते होंगे तो इसी सड़क से गुजरते होंगे, वे कुछ नहीं करते? इस सवाल पर साथ चल रहे एक युवा दीपक सहनी कहते हैं, "मुकेश अब गांव कम ही आते हैं. गांव के बारे में बहुत सोचते भी नहीं. हम लोग चाहते हैं कि इस गांव का विकास हो, मगर उनका ध्यान इधर नहीं जाता."

जिरात टोले में मछुआरों के 700-800 परिवार हैं. इनमें से ज्यादातर लोगों ने कुछ साल पहले मछली पकड़ने का पेशा छोड़ कर मखाने की पारंपरिक प्रोसेसिंग करने वाले फोड़ियों का धंधा अपना लिया है. इस काम की खातिर वे छह महीने के लिए पूर्णिया और कटिहार के इलाके में जाते हैं, जहां इन दिनों मखाने की खेती खूब होने लगी है. वे जुलाई में जाते हैं और जनवरी-फरवरी तक लौट आते हैं. इनमें से ज्यादातर लोग बाकी के छह महीने बैठकर समय काटते हैं. शेष कुछ लोग मछली पकड़ने का काम करते हैं तो कुछ लोग कोई और रोजगार.

कभी जिरात टोला अपनी मछलियों के लिए जाना जाता था. इस टोले में मुकेश सहनी के घर के ठीक सामने मछलियों की एक बड़ी मंडी है. स्थानीय लोग बताते हैं कि दरभंगा के बाद यह इस इलाके की सबसे बड़ी मंडी है. यहां आसपास के 20-25 गांवों से मछुआरे अभी भी मछली खरीदने आते हैं. इस जगह से कुछ कदम की दूरी पर छोटी कमला नदी बहती थी, जो मछलियों का खजाना मानी जाती थी. अब वह सूख गई है और आसपास के लोग उसमें अपना कचरा डालते हैं.

जिरात के मछुआ श्रमिक संघ की मंडी में सन्नाटा पसरा है. पांच टोले के 79 मछुआरों ने इस मंडी की स्थापना की थी. कोसी कछार में बनी इस मंडी में अब ज्यादातर आंध्र प्रदेश की मछलियां बिकती हैं. लोकल मछलियां कम ही आती हैं. एक दुकान के बाहर बैठे बौवन सहनी चौंकाने वाली बात कहते हैं, "बाढ़ नहीं आता है तो मछलियों का अकाल हो गया है."

उनकी बातों में बाढ़ और अकाल एक साथ सुनकर यह संवाददाता पूछ बैठता है, "बाढ़ से तो नुक्सान होता है न, बाढ़ नहीं आती है तो यह तो अच्छी बात है?" इस पर बौवन स्पष्ट करते हैं, "नोकसान है तो फैदा भी है. बाढ़ का पानी मछली भी खूब लाता था. नदी, नाला, पोखर मछली से लबालब हो जाता था. जब से बाढ़ आना कम हुआ है, सब सुखा गया है. पहले खूब जंगली मछली मिलता था, अब मछली कहां."

मुकेश सहनी के पिता 73 साल के जीतन सहनी पुराने दौर को याद करके विभोर हो जाते हैं. कहने लगते हैं, "कभी यहां इतनी मछली मिलती थी कि हमलोग दरंभगा, मुजफ्फरपुर, पटना से लेकर बंगाल तक भेजते थे. 19 मन की बघार मछली तो हम ही मारे हैं. फिर उसको काठ गाड़ी से रोसड़ा भेजे. अब मछली कहां. नदी-नाला सब सुखा गया. अब तो गांव के लोग मछली पकड़ना छोड़कर मखाना फोड़ने का धंधा करने लगे हैं. सुनते हैं उसमें अच्छा मोनाफा है. पूरा गांव वही कारोबार कर रहा है."

हालांकि बीस साल से फोड़ी का कारोबार कर रहे गांव के रंजीत सहनी इस बात से इत्तेफाक नहीं रखते. वे कहते हैं, "बहुत फायदा नहीं है. पूरा परिवार मिलकर काम करता है तो मजदूरी के बराबर पैसा मिलता है. जिसके पास ज्यादा पैसा है, पूंजी है, जो अधिक गुड़िया (मखाने का बीज) खरीद सकता है, उसी को फायदा है. बाकी लोग बस दिहाड़ी मजदूरी पाते हैं. मखाने के कारोबार के लिए लोन भी मिलता है, हम भी कोसिस किए, लेकिन नहीं मिला."

फोड़ी के रोजगार की एक और दिक्कत छह महीने का प्रवास है. फोड़ी सपरिवार पलायन करते हैं, जिसके कारण उनके बच्चों की पढ़ाई अक्सर बाधित हो जाती है. रंजीत सहनी कहते हैं, "इसी वजह से हम हाइस्कूल में पढ़ने वाले अपने बच्चों को यहीं छोड़कर जाते हैं."

आप लोगों की इन तकलीफों के बारे में आपके गांव के नेता मुकेश सहनी को खबर है? इस सवाल पर रंजीत बेहिचक कहते हैं, "मुकेश के गांव में होने से हम लोगों को कोई फैदा नहीं है. कभी-कभार आता है. हम लोग दूर से देख लेते हैं. बस. उसको हम लोगों से कोई लेना-देना नहीं." पास बैठी उनके टोले की एक महिला कह बैठती है, "और जो हो. भोट तो हम लोग मोदिये को देंगे. भात का इंतजाम जो करेगा, उसी पर भोट पड़ेगा न."

गांव में सहनी समाज की बेरुखी से मुकेश के पिता भी आहत दिखते हैं. वे कहते हैं, "जब हमारी पत्नी गुजरी थी तो मुकेश ने 45 गांव के मल्लाहों को भोज दिया. वो सहनी समाज के लिए मरने को तैयार रहता है लेकिन मल्लाह लोग उसको सहयोगे नहीं करता. बाप भोट दिया इधर, अ बेटा उधर."

मुकेश सहनी के पिता के इस बयान से ही जाहिर है कि बिहार के सारे निषाद वीआइपी के पक्ष में नही हैं. हालांकि निषाद को आरक्षण के सवाल पर सब एकजुट नजर आते हैं, बाकी मामलों में सबकी अपनी-अपनी राय है. कहीं लोग उनके फैन हैं, उनकी पार्टी के समर्थक हैं तो कहीं एनडीए के पाले में भी दिखते हैं.

बीस जातियों वाले निषाद जाति समूह के लोगों की आर्थिक स्थिति सचमुच खराब है. यह बात जाति आधारित गणना में भी सामने आई है. घटवार, बिंद, गंगोता, गोड़ी, केवर्त, बेलदार, वन पर, चांय और कोल जैसी जातियों के लगभग आधे लोग 6,000 रुपए से भी कम मासिक आय पर गुजारा करते हैं. इसकी सबसे बड़ी वजह जलस्रोतों पर उत्पन्न खतरे की वजह से इनकी पारंपरिक आजीविका का खत्म होना है. बिहार में जलस्रोत कई वजहों से खत्म हो रहे हैं. इनमें क्लाइमेट चेंज का एक मसला तो है ही, जमीन के अभाव में नदियों और तालाबों पर हो रहे अतिक्रमण और प्रदूषण भी अहम कारण हैं.

इनका स्पष्ट उदाहरण दरभंगा में दिखता है. पोखरों का शहर माने जाने वाले दरभंगा शहर में इन दिनों लगातार पोखरों को भरा जा रहा है. शहर का कचरा ऐतिहासिक तालाबों में डाला जा रहा है. शहर के एक बड़े तालाब गंगासागर के कछार पर इस इलाके की मछलियों की सबसे बड़ी मंडी है. मंडी में इस तालाब की तिलपिया मछली तौली जा रही है. मछली पालक राजेश सहनी बताते हैं, "गंगासागर तालाब का पानी इतना प्रदूषित हो गया है कि यहां कोई देसी मछली जिंदा नहीं रह पाती. चूंकि तिलपिया मछली तालाब और गंदे पानी में भी रह सकती है इसलिए यह यहां सर्वाइव कर रही है. हम लोगों ने अब रेहू-कतला की देसी वेराइटी को यहां पालना ही छोड़ दिया है."

एक अन्य दुकानदार पंकज सहनी कहते हैं, "इस मंडी में पहले दरभंगा और आसपास के इलाके की ढेर सारी मछलियां आती थीं और बाहर जाती थीं. अब यहां आंध्र प्रदेश और बंगाल की मछलियां आ रही हैं. यहां अगर रोज 40 क्विंटल मछली आती है तो समझिए कि उसमें 35 क्विंटल बाहरी होती है. लोकल मछलियां मुश्किल से पांच क्विंटल ही होती है."

इसी मंडी में भाजपा नेता हरि सहनी की भी पुश्तैनी दुकान है. वे तो अब इस दुकान पर कम आते हैं. उनकी दुकान पर बैठने वाले राजेंद्र सहनी तफसील से अपनी बात रखते हैं, "पर्याप्त बारिश नहीं होने, तालाबों पर होने वाले अतिक्रमण और उसे भरकर दूसरा इस्तेमाल करने, बड़े तालाबों में गाद भरने की वजह से इस बाजार में लोकल मछलियां कम आ रही हैं. दरभंगा नगर निगम भी इस पर ध्यान नहीं देता. शहर के जितने नाले हैं सब तालाबों में ही गिरते हैं. हरि सहनी पिछले पांच महीने से पावर में आए हैं. ई सब चीजें उनकी निगाह में हैं. उम्मीद है वे इसका समधान जरूर निकालेंगे."

प्रदूषण और अतिक्रमण का कहर सिर्फ गंगासागर ही नहीं दरभंगा और मिथिला के ज्यादातर तालाब झेल रहे हैं. कभी दरभंगा जिले में 6,500 तालाब हुआ करते थे, दरभंगा शहर में 300 से ज्यादा तालाब थे. अब बमुश्किल 50-60 रह गए हैं. बिहार में सार्वजनिक तालाबों की संख्या 46,567 रह गई है. इनमें भी 9,814 अतिक्रमण के शिकार हैं. इन तालाबों के संरक्षण का अभियान चला रहे नारायणजी चौधरी कहते हैं, "तालाबों के खत्म होने की वजह से मछुआरों की आजीविका भी खत्म हो रही है. वे खेतिहर मजदूर बन गए हैं. ठेला खोमचा लगाने लगे हैं. यह इस बात का सटीक उदाहरण है कि पर्यावरण का संकट कैसे मछुआरों की आजीविका पर असर डाल रहा है."

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