बिहार में झीनी होती रेशमी चदरिया और बेपर्दा गरीबी

लोकसभा चुनाव के दूसरे चरण में बिहार की जिन पांच सीटों पर वोट पड़ने हैं, उनका कोई न कोई रिश्ता रेशम उद्योग से जुड़ा है, मगर लाखों लोगों की उम्मीद रहा यह उद्योग इन दिनों आखिरी सांसें गिन रहा है

भागलपुर बुनकर संघ के पूर्व अध्यक्ष इबरार अंसारी अपने पावरलूम के साथ
भागलपुर बुनकर संघ के पूर्व अध्यक्ष इबरार अंसारी अपने पावरलूम के साथ

(यह रिपोर्ट लोकसभा चुनाव के दूसरे चरण से पहले मैगजीन में प्रकाशित हुई थी)

सिल्क का नाम सुनते ही नूतन देवी के मन में यादों के पन्ने फड़फड़ाने लगते हैं. कभी उनके आंगन में रेशम के कीट पलते थे. नूतन के खेतों में ही उगे शहतूत के पत्तों को खाकर वे कीड़े कोकून बनाते. फिर कोकून को लेकर वे बंगाल चली जातीं, रेशम का धागा तैयार करवातीं. इन धागों को भागलपुर के बुनकर सिल्क के कपड़ों में बदल देते. तैयार सिल्क के कपड़ों को वे घूम-घूमकर पूर्णिया, पटना और दिल्ली के मेलों में बेचतीं. इन कपड़ों का कौशिकी सिल्क के नाम से ब्रांड भी बना था.

वे झट से एक आखिरी बची सिल्क की साड़ी उठा ले आती हैं. नूतन साड़ी दिखाते हुए कहती हैं, "यह साड़ी इसी पूर्णिया की मिट्टी की बनी है, कभी हम लोगों ने सोचा तक नहीं था कि ऐसा होगा. मगर हुआ." उनके पति अपने मोबाइल में सेव 'मन की बात' के उस एपिसोड को सुनाने लगते हैं, जिसमें प्रधानमंत्री ने नूतन और पूर्णिया के धमदाहा की इन महिला उद्यमियों की खूब तारीफ की थी.

पीएम मोदी 23 फरवरी, 2020 को प्रसारित इस कार्यक्रम में कहते हैं, "ये वह इलाका है, जो दशकों से बाढ़ की त्रासदी से जूझता रहा है. ऐसे में यहां खेती और आय के अन्य संसाधनों को जुटाना मुश्किल काम है. मगर इन्हीं परिस्थितियों में पूर्णिया की महिलाओं ने एक नई शुरुआत की और पूरी तसवीर ही बदल कर रख दी है." नूतन फिर उस कॉफी टेबल बुक को उठा लाती हैं, जिसमें देश भर की ग्रामीण औरतों की सफलता की कहानी दर्ज है. इसमें दो पन्ने पूर्णिया की उन महिलाओं के बारे में भी हैं, जो सिल्क तैयार करती थीं. इस समूह की संचालिका के तौर पर नूतन देवी की खास तारीफ की गई है.

कॉफी टेबल बुक को बंद करके किनारे रखकर नूतन सांस भरते हुए कहती हैं, "जैसे लगता है वह कोई सपना था. सपना खतम हो गया. अब धमदाहा के किसी गांव में जाइए, एक भी औरत आपको रेशम कीट पालती नजर नहीं आएगी. सब लोग मशीन हटाकर छप्पर पर रख दिए हैं. खेतों से शहतूत के पौधे हटा दिए हैं. अब फिर से सब लोग मकई, गेहूं और धान की खेती करने लगे हैं."

धमदाहा ही नहीं, कोसी इलाके के सातों जिलों - पूर्णिया, अररिया, किशनगंज, कटिहार, सहरसा, मधेपुरा और सुपौल में से किसी में अब रेशम कीट पालन नहीं हो रहा. साल 2015-16 में आजीविका मिशन (जीविका) के तहत बड़े जोर-शोर से मुख्यमंत्री कोसी मलबरी परियोजना शुरू हुई थी. तब तय हुआ था कि बाढ़ प्रभावित कोसी के इलाके में सिल्क निर्माण उद्योग खड़ा किया जाएगा. पहले चरण में हजारों महिला किसानों को इस परियोजना से जोड़ना था. उनसे शहतूत की खेती, रेशम कीट पालन और सिल्क कपड़ा तैयार करवाना था. 2020 तक यह परियोजना ठीक-ठाक तरीके से चली और फिर बिहार सरकार की एजेंसियों ने इससे हाथ खींचना शुरू कर दिया. नतीजा यह हुआ कि आने वाले महीनों में परियोजना लगभग ठप हो गई और कोसी की गरीब महिलाएं फिर से धरती पर आ गिरीं.

इस सपने के टूटने का शोर पूर्णिया से अधिक किशनगंज जिले में सुनाई देता है. वहां के कुछ गांवों में लोग 30-35 साल से शहतूत की खेती और रेशम कीट पालन कर रहे थे. मगर अब वहां भी शहतूत की खेती बंद हो गई. सफीर आलम बताते हैं, "हमारा गांव पानिसाल रेशम तैयार करने में नंबर वन था. तब सिल्क बोर्ड (केंद्रीय रेशम बोर्ड) हमसे शहतूत की खेती कराता था. काम अच्छा चल रहा था. मेरे 17 कट्ठा खेत में शहतूत की खेती होती थी. हम कोकून तैयार करते और अच्छा पैसा मिलता. मगर फिर कहां से जीविका आ गया. सिल्क बोर्ड ने अपना काम जीविका को दे दिया. फिर सब गड़बड़ हो गया. जीविका वाला बोला, तुम्हारा एक बीघा नहीं है, तीन कट्ठा कम है. तुम्हारा नाम इस परियोजना में नहीं हो सकता. तुमको लाभ नहीं मिलेगा. हम पूछे तो क्या हम शहतूत का खेत उजाड़ दें, बोला उजाड़ दो. हम उजाड़ दिए."

जीविका से जुड़ीं पानिसाल गांव की ही हसीना खातून बताती हैं, "मेरे पिताजी के जमाने से यहां शहतूत की खेती होती थी. तब बहुत अच्छा था. 22 दिन की मेहनत में हम लोग 20 हजार रुपया कमाते थे. सिल्क बोर्ड कोकून का अच्छा दाम देता था. जीविका वालों ने भी खूब मदद करने का वादा किया. बोला गया कि किसानों को 1,500 रुपए हर महीने शहतूत की खेती में मदद मिलेगा. रेशम कीट पालन का घर बनाने के लिए पैसा मिलेगा. किसी को मिला, किसी को नहीं मिला. इसी गुस्से में लोग शहतूत का पुराना-पुराना खेत उजाड़ने लगे." अब इस गांव में कहीं शहतूत के पेड़ नजर नहीं आते.

पूर्णिया से किशनगंज तक अलग-अलग गांवों में फैली उन हजारों महिलाओं को कुछ पता नहीं कि उनका रेशम का सपना क्यों टूट गया. वे बस यही बताती हैं कि पहले पटना से लोग आते थे. ट्रेनिंग देते थे. सहायता देते थे. अब दो-तीन साल से कोई नहीं आता.

जीविका परियोजना 2015-16 में शुरू हुई थी और 2020-21 तक चली. इसका पहला फेज खत्म हो गया है. तीन साल से इसके लिए फंड नहीं आ रहा. इसका दूसरा फेज शुरू होना था, लेकिन उसके बारे में अब तक कहीं कोई सूचना नहीं है. इस बीच किशनगंज के जीविका परियोजना के मुख्यालय में कोकून से धागा तैयार करने की एक यूनिट भी स्थापित हुई. मगर वहां अब धागा तैयार नहीं होता. कोकून वहां बिखरे पड़े हैं. रेशम वस्त्र निर्माण यूनिट के भवन पर भी ताला लगा है. तय हुआ था कि यहां गांव-गांव में हथकरघे का शोर होगा, मगर अब रेशम के नाम पर सन्नाटा पसरा है.

इन दिनों कोसी के तीन जिले पूर्णिया, कटिहार और किशनगंज में चुनावी शोर चरम पर है. इन तीन लोकसभा सीटों पर दूसरे चरण में 26 अप्रैल को वोट पड़ने वाले हैं. इन तीनों जगहों के चुनावी समीकरण बड़े दिलचस्प हैं. किशनगंज में एमआईएम के तेज तर्रार नेता अख्तरुल इमान, यहां के निवर्तमान सांसद कांग्रेस के मोहम्मद जावेद की मुश्किलें बढ़ा रहे हैं. वहीं कटिहार में खुद भाजपाई कार्यकर्ता कांग्रेस उम्मीदवार तारिक अनवर की राह आसान कर रहे हैं. कहा जा रहा है कि कटिहार के बड़े भाजपा नेता अशोक अग्रवाल टिकट न मिलने की वजह से नाराज हैं, वे नहीं चाहते कि अब तक यहां के सांसद रहे जद (यू) के दुलालचंद गोस्वामी दोबारा जीत कर दिल्ली जाएं. 

इस चुनाव का सबसे अधिक शोर पूर्णिया में है, जहां हाल ही में अपनी जनाधिकार पार्टी का कांग्रेस में विलय कराने वाले पप्पू यादव निर्दलीय चुनाव लड़ रहे हैं. उनकी सक्रियता और लोकप्रियता न सिर्फ दो बार से सांसद रहे जद (यू) नेता संतोष कुशवाहा के पसीने छुड़ा रही है, बल्कि आखिर वक्त में जद (यू) से राजद में आईं पूर्व मंत्री बीमा भारती के लिए राजनैतिक संकट खड़ा कर रही है. 

मगर इस राजनैतिक शोर में, कहीं भी एक आवाज इन महिलाओं के लिए सुनाई नहीं देती जिनके सपनों की दुनिया उजड़ गई है. कहा जाता है कि इस इलाके में, खासकर पूर्णिया में जीविका परियोजना से जुड़ी महिलाएं (जीविका दीदी) एक बड़ी राजनैतिक ताकत रही हैं. ऐसा माना जाता है कि 2014 के लोकसभा चुनाव में मोदी की आंधी में भी अगर जद (यू) ने पूर्णिया की सीट जीती थी तो इसके पीछे लाखों जीविका दीदियों के वोट की ताकत थी. दबे-छिपे तौर पर यह भी कहा जाता है कि जीविका दीदियों को यह इशारा किया जाता है कि वे सरकारी पार्टी के पक्ष में मतदान करें और कराएं. चुनाव आयोग ने भी इन जीविका दीदियों को मतदाता जागरूकता अभियान की जिम्मेदारी दे रखी है. मगर इस चुनाव में इन जीविका दीदियों के अपने सवाल नदारद हैं. कभी खुद इन महिलाओं की तारीफ कर चुके पीएम मोदी ने 16 अप्रैल को पूर्णिया की अपनी चुनावी सभा में इनको याद तक नहीं किया.

दूसरे चरण में भागलपुर और बांका लोकसभा सीटों पर भी मतदान होना है. ये बिहार में सिल्क के असली गढ़ हैं. जहां कोसी के जिलों में सिल्क का सपना महज छह-सात साल पुराना था, वहीं भागलपुर और बांका में सैकड़ों साल से रेशम कीट पालन और सिल्क वस्त्र निर्माण की परंपरा रही है. लाखों बुनकरों वाले भागलपुर जिले के मुख्यालय को वहां के लोग प्यार से 'सिल्क सिटी' कहकर पुकारते हैं. मगर भागलपुर शहर में अगर यहां का तैयार असली सिल्क ढूंढना हो तो यह काम आपके पसीने छुड़ा सकता है.

भागलपुर शहर के नाथनगर और चंपानगर मोहल्ले रेशम बुनकरों के लिए जाने जाते हैं. दो दशक पहले तक इन दोनों मोहल्लों में घर-घर सिल्क का कपड़ा तैयार होता था. अब पूरे चंपानगर मोहल्ले में भटकने के बाद एक ही जगह ऐसी मिलती है, जहां सिल्क की बुनाई हो रही है. यह सरफराज अंसारी का घर है. यहां वे अपने चार भाइयों के साथ सिल्क तैयार करते हैं. सरफराज कहते हैं, "भागलपुर अब नाम की सिल्क सिटी रह गया है. अब आपको हर जगह सिल्क के बदले कोटा और कॉटन की साड़ियां, लिनेन, डल चादर और गमछा बनता नजर आएगा." इसकी एक अहम वजह है कि सिल्क का धागा काफी महंगा हो चुका है. पहले 1,300 रुपए किलो के भाव से सिल्क का धागा मिलता था, तब इस पर एक्सपोर्ट ड्यूटी में छूट मिलती थी. अब 7,200 रुपए किलो मिल रहा है. इससे जो कपड़ा बनता है वह इतना महंगा हो जाता है कि इसका कोई खरीदार नहीं मिलता. ये जानकारियां साझा करते हुए सरफराज बताते हैं, "हम सेठ लोगों के ऑर्डर पर काम करते हैं. हम इकलौते सिल्क बनाने वाले हैं, फिर भी पूरे साल काम नहीं मिलता. छह महीने ही काम मिलता है."

वहीं सरफराज के एक भाई का कहना कि एक मीटर सिल्क का कपड़ा तैयार करने पर उन्हें 20 रुपए मिलते हैं और दिनभर में मुश्किल से एक आदमी दस मीटर कपड़ा तैयार कर पाता है. यही वजह है कि लोग यह काम छोड़कर बाहर चले गए हैं.  

सूत और विस्कोस का कपड़ा तैयार करने वाले बुनकरों की मजदूरी तो और कम है. चार पावरलूम पर डल चादर और सलवार सूट का कपड़ा तैयार करने वाले दीपक बताते हैं, "सिर्फ दस रुपए मिलता है एक मीटर का. इसका पैसा भी महाजन महीनों रोके रखते हैं. हर दो महीने के बाद मंदा (मांग में कमी) आ जाता है. बुनकर करे तो क्या करे."

पलायन की समस्या ग्रामीण इलाकों में खूब बढ़ी है. बांका के बुनकरों से सिल्क का कपड़ा तैयार कराकर उन्हें अंगम ब्रांड के नाम से बेचने वाली इस इलाके की पहली महिला उद्यमी शिखा बताती हैं, "पहले कटोरिया ब्लॉक में सात सौ से अधिक हैंडलूम बुनकर थे, लेकिन अब ज्यादातर पलायन कर गए हैं." 

चंपानगर मोहल्ले में ही सिल्क का छोटा-मोटा कारोबार करने वाले अशफाक अंसारी कहते हैं, "पहले ऐसी स्थिति नहीं थी. 20-25 साल पहले तक यहां ज्यादातर काम सिल्क का होता था. तब धागा सस्ता था. मगर अब भागलपुर के सिल्क बुनकर कोटा की साड़ियां तैयार कर रहे हैं. चादर-गमछा बनाने की नौबत आ गई है." 

इस पूरे संकट की गांठ भागलपुर बुनकर संघ के पूर्व अध्यक्ष इबरार अंसारी तरीके से खोलते हैं. वे बताते हैं, "भागलपुर में सिल्क उद्योग के रसातल में चले जाने की पहली वजह यह रही कि 1990 तक यहां के कपड़ों की खूब मांग थी. मगर उस वक्त जो तकनीकी अपग्रेडेशन हुआ उसे हम बुनकर अपना नहीं पाए, न सरकार ने मदद की. फिर हमने सस्ते के चक्कर में चाइनीज सिल्क धागे को अपनाया, मगर 2014 में जो सरकार आई उसने एक्सपोर्ट पर छूट देना बंद कर दिया. वह धागा कई गुना महंगा हो गया." इबरार के मुताबिक, सूरत-अहमदाबाद के मिल मालिकों ने पॉलिस्टर से जो नकली सिल्क बनाया तो उससे भी यहां के कारोबार को नुक्सान पहुंचा. एक दिक्कत चाइनीज धागे पर निर्भरता भी है. इसकी वजह यह है कि इतने साल में इस इलाके का उद्योग अपना बेहतर धागा नहीं बना पाया. इबरार आरोप लगाते हैं कि सेंट्रल सिल्क बोर्ड से स्पन सिल्क मिल तक में सिर्फ सरकारी पैसा बर्बाद हो रहा है और उनके काम का धागा तैयार नहीं हो रहा है. क्या स्थानीय नेता भी इस बात को नहीं समझते और चुनाव में इस मुद्दे की कितनी गूंज रहती है? इबरार कहते हैं, "नेता कहते हैं, सिल्क का धंधा मंदा है तो कोई और रोजगार कर लो. यह कोई नहीं सोचता संकट सिर्फ बुनकरों की रोजी-रोटी का नहीं है. भागलपुर की पहचान का है."

दिलचस्प है कि बुनकरों के बड़े नेता के तौर पर कांग्रेस इस चुनाव में इबरार अंसारी की खूब मदद ले रही है. वे दिन-रात मुसलमानों के मोहल्ले में दौड़ रहे हैं. लोगों को कांग्रेस उम्मीदवार के पक्ष में करने के लिए जुटे हैं.

मगर बुनकरों के मोहल्ले में अब तक कोई कैंडिडेट नहीं पहुंचा. न कांग्रेस प्रत्याशी अजीत शर्मा, न जद (यू) प्रत्याशी और निवर्तमान सांसद अजय मंडल. चंपानगर मोहल्ले में चाय की एक गुमटी पर मिले बुजुर्ग मोहम्मद आलमगीर कहते हैं, "बुनकरों का कोई सच्चा नेता, कोई रहनुमा नहीं है." उनके साथ बैठे मोहम्मद नौशाद उदास होकर कहते हैं, "दरअसल असली दिक्कत मुसलमान होना है. एनडीए वाले इसलिए नहीं आते कि उनको मालूम है ये वोट देंगे नहीं. इंडिया वाले इसलिए नहीं आ रहे, क्योंकि उनको मालूम है, मुसलमान जाएगा कहां." मगर बुनकर तो सिर्फ मुसलमान नहीं हैं, हिंदू भी हैं. इस पर आलमगीर कहते हैं, "हां हैं न. तांती लोग भी तो बुनकर हैं. इसी मोहल्ले में रहते हैं. मगर बुनकरों को मुसलमान मान लिया है. ऐसे में तांती लोगों को भी देखने, उनका हाल लेने कोई नहीं आता. हिंदुओं का नेता भी नहीं."

कभी आर्थिक सशक्तिरण का तानाबाना रही रेशम की डोर के साथ-साथ अब यहां के लोगों की उम्मीद भी टूट रही है. 

किशनगंज के बंद हो चुके रेशम धागा निर्माण केंद्र में बिखरे पड़े मलबरी के कोकून

दूसरे चरण की सीटों का हाल

पूर्णिया 
मुख्य मुकाबला: जद (यू) के संतोष कुशवाहा, निर्दलीय पप्पू यादव और राजद की बीमा भारती के बीच

2019 
जद (यू) के संतोष कुशवाहा 
जीते, कांग्रेस के उदय सिंह 
दूसरे नंबर पर रहे

2014 
जद (यू) के संतोष कुशवाहा 
जीते, भाजपा के उदय सिंह दूसरे और कांग्रेस के अमरनाथ तिवारी तीसरे नंबर पर रहे

2009 
भाजपा के उदय सिंह जीते, निर्दलीय उम्मीदवार शांति प्रिया (पप्पू यादव की मां) को हराया

चुनावी मुद्दा पूर्णिया में हवाई अड्डे का निर्माण. असली विपक्षी कौन पप्पू या बीमा

बांका
मुख्य मुकाबला: जद (यू) के गिरिधारी यादव और राजद के जयप्रकाश नारायण के बीच

2019 
गिरिधारी यादव जीते, जयप्रकाश नारायण यादव दूसरे और निर्दलीय पुतुल कुमारी तीसरे स्थान पर

2014 
जयप्रकाश नारायण यादव 
जीते, भाजपा की पुतुल 
कुमारी दूसरे और सीपीआइ 
के संजय कुमार तीसरे स्थान पर

2010 (उपचुनाव)  
निर्दलीय पुतुल कुमारी जीतीं, जयप्रकाश नारायण यादव हारे

चुनावी मुद्दा स्थानीय मुद्दा कोई खास नहीं, राष्ट्रीय मुद्दों पर वोट पड़ने की संभावना

किशनगंज
मुख्य मुकाबला: कांग्रेस के मोहम्मद जावेद, जद (यू) के मुजाहिद आलम और एआइएमआइएम के अख्तरुल इमान के बीच

2019 
मोहम्मद जावेद जीते, जद (यू) के मोहम्मद अशरफ दूसरे और एआइएमआइएम के अख्तरुल इमान तीसरे स्थान पर

2014 
कांग्रेस के मोहम्मद असरारुल हक जीते, भाजपा के दिलीप जायसवाल दूसरे और एआइएमआइएम के अख्तरुल इमान तीसरे स्थान पर

2009 
कांग्रेस के मोहम्मद असरारुल हक जीते, जद (यू) के मोहम्मद अशरफ दूसरे और राजद के तसलीमुद्दीन तीसरे स्थान पर

चुनावी मुद्दा नदियों पर पुलों का निर्माण,  और राष्ट्रीय मुद्दे

कटिहार
मुख्य मुकाबला: कांग्रेस के तारिक अनवर और जद (यू) के दुलालचंद गोस्वामी के बीच 

2019 
दुलालचंद गोस्वामी जीते, तारिक अनवर दूसरे स्थान पर

2014 
कांग्रेस के तारिक अनवर जीते, भाजपा के निखिल कुमार चौधरी दूसरे स्थान पर

2009 
निखिल कुमार चौधरी जीते, तारिक अनवर दूसरे स्थान पर

चुनावी मुद्दा कोई स्थानीय मुद्दा नहीं, 
राष्ट्रीय मुद्दों पर वोट पड़ेंगे

भागलपुर
मुख्य मुकाबला: कांग्रेस के अजीत शर्मा और जद (यू) के अजय मंडल के बीच

2019 
अजय मंडल जीते राजद के शैलेश कुमार (बुलो मंडल) दूसरे स्थान पर

2014 
राजद के शैलेश कुमार (बुलो मंडल) जीते, भाजपा के शाहनवाज हुसैन दूसरे नंबर, जद (यू) के अबू कैसर तीसरे नंबर पर

2009 
भाजपा के शाहनवाज हुसैन जीते, राजद के शकुनी चौधरी दूसरे और बसपा के अजीत शर्मा तीसरे नंबर पर
चुनावी मुद्दा भागलपुर का विकास, 
और राष्ट्रीय मुद्दे

Read more!