थरूर या चंद्रशेखर, केरल के तिरुवनंतपुरम सीट से इस बार कौन मारेगा बाजी?
शशि थरूर कांग्रेस के लिए लगातार चौथी बार तिरुवनंतपुरम जीतने की उम्मीद कर रहे पर भाजपा के राजीव चंद्रशेखर इस दफा चौंकाने वाले नतीजे ला सकते हैं

शशि थरूर से जब यह पूछा जाता है कि वे तिरुवनंतपुरम के बीचों-बीच अपने जिस बरगंडी लाल चुनाव वाहनम के ऊपर वे इतने खतरनाक ढंग से बैठते हैं, उसे भला क्या नाम दिया जाए, इस पर वे एक बार को तो अवाक् रह जाते हैं, उन्हें शब्द नहीं सूझते. कुछ देर की चुप्पी के बाद वे हंसते हुए कहते हैं, "यह पिक-अप ट्रक है जिस पर मुझे एक कुर्सी और दो-एक साथियों के लिए काफी जगह मिल जाती है ताकि हम काफिले के साथ गुजरते हुए लोगों की तरफ हाथ हिला सकें."
केरल की राजधानी में गर्मी है और उमस भी. थरूर को सूरज और बारिश से बचाने के लिए कुल जमा एक अस्थायी तिरपाल और उनके बैठने की जगह के बगल में एक छोटा-सा एयरकंडीशनर लगा है. कांग्रेस के टिकट पर तिरुवनंतपुरम सीट से लगातार तीन लोकसभा चुनाव जीतने के बाद 68 वर्षीय थरूर अनुभवी चुनाव प्रचारक बन गए हैं—पैदल राहगीरों, गुजरते और खड़े वाहनों और उत्सुक दुकानदारों की तरफ बहुत उत्साह से हाथ हिलाते हुए उनका चेहरा आकर्षक मुस्कान से खिल उठता है.
हवा के झोंके उनके घने सुनहरे-भूरे बालों को बीच-बीच में लहरा देते हैं. आगे चल रही उनकी पायलट वैन में ढोल बजाकर उनके आगमन की घोषणा करते तालवादकों का एक बैंड है, तो दूसरी वैन से उनके कसीदे काढ़ते गाने बज जा रहे हैं. 2019 में थरूर इस सीट से मतों के भारी अंतर से आसानी से जीत गए थे, लेकिन इस बार उन्हें लड़ाई की तपिश महसूस हो रही है और कहीं ज्यादा कड़ी मेहनत करनी पड़ रही है.
इसकी वजह यह है कि उनके मुख्य प्रतिद्वंद्वी तकनीक में निपुण और संभ्रांत राजीव चंद्रशेखर हैं. टेलीकॉम और आईटी की दुनिया के इस दिग्गज ने निवेश की अपनी सल्तनत बनाई और फिर राजनीति में आ गए. वे भी तीन बार के सांसद हैं, पर राज्यसभा से. दाढ़ी रखने वाले चंद्रशेखर अपने पहले दो कार्यकाल में निर्दलीय के तौर पर थे, लेकिन तीसरे कार्यकाल में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के सदस्य के तौर पर लाए गए और अभी कौशल विकास के अलावा इलेक्ट्रॉनिक्स और इन्फॉर्मेशन टेक्नोलॉजी के केंद्रीय राज्यमंत्री हैं.
59 वर्षीय चंद्रशेखर भले पहली बार राजनैतिक चुनाव लड़ रहे हों पर वे बताते हैं कि यह प्रक्रिया उनके लिए नई नहीं है क्योंकि पहले वे अपने साथी पार्टीजनों के चुनाव अभियान संभाल चुके हैं. उनके माता-पिता हालांकि केरल के हैं, पर चंद्रशेखर खुद कभी इस राज्य में नहीं रहे. मगर इसे खराब नहीं माना जाता क्योंकि थरूर को भी पैराशूट से राज्य में उतारा गया था. चंद्रशेखर का वाहनम विंटेज ऑलिव-ग्रीन विलीज जीप है, जिसकी सीटें हटा दी गई हैं और इसकी विंडशील्ड बोनट के साथ चिपकी हुई है.
जब चंद्रशेखर सड़क किनारे एक चुनाव सभा के लिए आते हैं, तो थरूर की तरह नगाड़ों से उनके आगमन की घोषणा के अलावा तोप से उनके ऊपर भाजपा के झंडे के भगवा, हरे और सफेद रंगों के छोटे रंगीन कागज के टुकड़ों की बौछार भी की जाती है.
थरूर और चंद्रशेखर दोनों बार-बार एक दूसरे के साथ जुबानी जंग करते रहते हैं. हाल ही में सशस्त्र बलों के पुराने जवानों के साथ एक बैठक में चंद्रशेखर ने थरूर की प्रसिद्ध वाकपटुता पर कटाक्ष करते हुए कुबूल किया कि उनके पास अपने प्रतिद्वंद्वी की बराबरी करने की खातिर अंग्रेजी के नए शब्द लेकर आने के लिए किताबें पढ़ने और शब्दकोश खंगालने का वक्त नहीं था.
इसके बजाय वे काम पूरा करने पर ध्यान देते थे. जब चंद्रशेखर ने इस सीट के लिए नामांकन के परचे दाखिल किए, उन्होंने इसे "परफॉर्मेंस बनाम नॉन-परफॉर्मेंस की लड़ाई" बताया था. थरूर ने पलटकर इसका यूं जवाब दिया कि "परफॉर्मेंस के दो अर्थ हैं. एक वह जो मैंने पिछले 15 साल अपने निर्वाचन क्षेत्र में किया है—मलयालम और अंग्रेजी में 60 पेज की एक रिपोर्ट में सारे ब्योरे हैं कि मैंने क्या किया है. दूसरा दूसरा अर्थ है 'अभिनय' या मंच पर प्रदर्शन. यह वह है जो भाजपा करती है—मीडिया के कैमरों के सामने प्रदर्शन, आम जनता के आगे प्रदर्शन. भाजपा शासित केंद्र ने केरल से तीन वादे किए थे. एक भी पूरा नहीं किया, जिसमें एम्स की स्थापना का वादा भी था."
यह लड़ाई ऊंचे दांव की
थरूर और चंद्रशेखर दोनों अच्छी तरह जानते हैं कि तिरुवनंतपुरम की लड़ाई में कितने ऊंचे दांव लगे हैं. भाजपा ने केरल में अभी तक लोकसभा सीट नहीं जीती, जहां राज्य के दो अव्वल गठबंधन—कांग्रेस की अगुआई वाला यूनाइटेड डेमोक्रेटिक फ्रंट (यूडीएफ) और मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (माकपा) की अगुआई वाला लेफ्ट डेमोक्रेटिक फ्रंट (एलडीएफ)—आम तौर पर राज्य की 20 सीटें आपस में बांट लिया करते हैं. इतने सालों के दौरान पेंडुलम मोटे तौर पर इन्हीं दो मोर्चों के बीच झूलता रहा है, जिसमें 2019 में 20 में से 19 सीटें जीतकर यूडीएफ का पलड़ा भारी रहा था.
लेकिन थरूर का कहना है कि उनकी सीट की लड़ाई कुछ ज्यादा मुश्किल हो गई है क्योंकि राज्य के दूसरे ज्यादातर निर्वाचन क्षेत्रों के विपरीत यहां भाजपा स्पष्ट विकल्प के तौर पर उभर रही है. 2019 का चुनाव उन्होंने 41.1 फीसद वोट हिस्सेदारी के साथ 1,00,000 वोटों के अंतर से जीता था, भाजपा उम्मीदवार के. राजशेखरन 31.3 फीसद वोटों के साथ दूसरे नंबर पर आए थे और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (भाकपा) के सी. दिवाकरण को उन्होंने तीसरे नंबर पर धकेल दिया था.
इस बार भी थरूर को उम्मीद है कि चंद्रशेखर ही उनके मुख्य प्रतिद्वंद्वी होंगे, हालांकि भाकपा ने अपने राज्य सचिव 79 वर्षीय पन्नियन रवींद्रन को उम्मीदवार बनाया है. भाकपा के उम्मीदवार के लंबे बाल इमरजेंसी के जमाने से चली आ रही नाफरमानी का जीता-जागता सबूत हैं—उन्होंने तभी से विरोध में इन्हें कटवाने से इनकार कर दिया जब इंदिरा गांधी की पुलिस ने हिप्पी हेयरस्टाइल वाले युवा विद्रोहियों को निशाना बनाना शुरू किया था. हालांकि, यूडीएफ और एलडीएफ दोनों इंडिया गठबंधन का हिस्सा हैं, पर राज्य में दोनों के बीच सीटों के बंटवारे का कोई समझौता नहीं है, जिसका कुछ फायदा भाजपा को मिलेगा.
अगर चंद्रशेखर उलटफेर करते हैं, तो उन्हें राज्य से भाजपा के बिल्कुल पहले-पहल लोकसभा सांसद होने का बिरला गौरव हासिल होगा. भाजपा के लिए इसका मतलब वह गढ़ फतह करना भी होगा जिसे भेदने के लिए वह तीन दशकों से बहुत कड़ी पर नाकाम मेहनत कर रही है. कांग्रेस के लिए थरूर का निर्वाचन क्षेत्र सबसे नाजुक है क्योंकि तिरुवनंतपुरम की आबादी में 64 प्रतिशत हिंदू जबकि ईसाई 19.1 फीसद और मुसलमान 13.7 फीसद हैं. ज्यादा अहम यह कि करीब 24 फीसद नायर हैं, जो ऐतिहासिक रूप से वाम-विरोधी रहे हैं लेकिन हाल में भगवा दिशा का रुख करते बताए जाते हैं.
थरूर ने कामयाबी से जो 'सॉक्रट हिंदू' मॉकटेल तैयार किया था, उसे चंद्रशेखर चुनौती दे रहे हैं, जिनकी पृष्ठभूमि उस डिजिटल पीढ़ी को अपील करती है जो इन्फॉर्मेशन टेक्नोलॉजी मंत्री के उनके दर्जे से मोहित है और कार्ड-होल्डर राजनीति की बंधक नहीं है. पश्चिम में वनों से लदी ऊंची पर्वतमालाओं और इसके तटीय क्षेत्रों को परिभाषित करती मछलीपालन की अर्थव्यवस्था के बावजूद एक व्यापक हकीकत यह है कि तिरुवनंतपुरम 72 फीसद शहरी सीट है, जहां युवा मतदाता मछली पकड़ने के बजाए इन्फोटेक की नौकरी हासिल करने का सपना देखते हैं.
विरोधाभासी व्यक्तित्व
कुछ लोग इसे दो विरोधाभासी व्यक्तित्वों के बीच संघर्ष के तौर पर देखते हैं—एक अपने अंग्रेजी भाषा ज्ञान और बेहद सहजता के साथ वैश्विक नागरिकता के प्रतिनिधित्व के साथ आधुनिक केरल की इन दो प्रमुख उम्मीदों पर खरा उतरता है, और सही मायने में नेहरूवादी परंपरा को आगे बढ़ा रहा है. वहीं, दूसरा एक ऐसा राजनीतिक व्यक्तित्व है, जिसका बायोडाटा नब्बे के दशक के बाद उपजी भावनाओं के विस्तार को प्रतिध्वनित करता है.
यही नहीं, बात अगर सामाजिक-आर्थिक अपेक्षाओं की करें तो वह समकालीन केरल में थरूर के योगदान की बराबरी तो करता ही है, बल्कि डिजिटल प्रगति के क्षेत्र में अहम योगदान के साथ अपने खाते में कुछ और उपलब्धियां भी रखता है. अब थरूर को अगर अपनी सियासी जमीन खिसकती लग रही है तो इसका बड़ा कारण यह भी है कि करीब 10-11 फीसद आबादी वाला लैटिन कैथोलिक मछुआरा समुदाय उनसे नाराज है, क्योंकि उन्होंने विझिंजम में अदाणी पोर्ट के खिलाफ विरोध में उनका साथ नहीं दिया.
जनसांख्यिकी में करीब इनके जितनी ही हिस्सेदारी वाले मुस्लिम समुदाय की बात करें तो गजा संघर्ष पर थरूर का नपा-तुला रवैया उन्हें रास नहीं आया है, खासकर इसलिए भी क्योंकि अक्तूबर में इंडियन यूनियन मुस्लिम लीग की तरफ से आयोजित फलस्तीन समर्थक रैली में उन्होंने हमास को 'आतंकवादी समूह' करार दे दिया था. मौजूदा माहौल में यही दोनों समूह उनके स्वाभाविक समर्थक हो सकते थे. थरूर के लिए चिंता की एक और बात यह है कि चंद्रशेखर उनके हिंदू वोट बैंक में भी गंभीर रूप से सेंध लगा सकते हैं.
दूरदर्शन पर फिल्म द केरल स्टोरी (2022) के प्रसारण पर विवाद से जुड़ा एक अन्य मुद्दा भी मतदाताओं के ध्रुवीकरण का आधार बन सकता है, जिसमें राज्य की चार महिलाओं के इस्लाम धर्म अपनाने और इस्लामिक स्टेट (आईएस) में शामिल होने की कहानी दिखाई गई है. माकपा और कांग्रेस ने इस फिल्म के प्रसारण के लिए चुने गए समय का विरोध किया, थरूर ने इसे "प्रचार का सबसे सस्ता और सबसे घटिया तरीका" करार दिया. वहीं, भाजपा ने इसका बचाव किया और फिल्म प्रसारण का विरोध करने वालों पर "अतिवाद को बढ़ावा देने" का आरोप भी मढ़ दिया. इस बीच, दो साइरो-मालाबार कैथोलिक चर्च के फैसले ने भी हलचल बढ़ा दी है, जो लव जिहाद के खिलाफ किशोरों को जागरूक करने के लिए अपने कार्यक्रमों में इस फिल्म को दिखाने वाले हैं.
उधर, चंद्रशेखर के लिए भी मुश्किलें कम नहीं हैं. कांग्रेस ने 8 अप्रैल को निर्वाचन आयोग के समक्ष एक शिकायत दर्ज कराई है, जिसमें चंद्रशेखर पर अपनी संपत्ति छिपाने और चुनावी हलफनामे में गलत जानकारी देने का आरोप लगाया गया है. इसमें कोविड के बाद वाले वित्त वर्ष 2021-22 में अपनी कर योग्य आय 680 रुपए घोषित करने पर सवाल उठाया गया है. हालांकि, चंद्रशेखर ने आरोपों को खारिज करते हुए कहा है, "यह एकदम सही ब्योरा है और दर्शाता है कि मेरी संपत्ति कितनी है." आयोग ने अब केंद्रीय प्रत्यक्ष कर बोर्ड (सीबीडीटी) से इस हलफनामे की सत्यता परखने को कहा है.
सवाल यह है कि आखिरकार कौन-सा मुद्दा किसी उम्मीदवार का पलड़ा भारी कर सकता है? 19 अप्रैल को पहले चरण में इस सीट के लिए मतदान हो चुका है. थरूर भाजपा की हिंदुत्ववादी विचारधारा पर निशाना साधते हुए उस पर देश के सामाजिक ताने-बाने को चोट पहुंचाने का आरोप लगाते हैं. उनका कहना है, "उसने जिस तरह मुसलमानों को निशाना बनाया है, वह स्वतंत्र भारत की उस पवित्र भावना के साथ किसी विश्वासघात से कम नहीं है, जिसके लिए महात्मा गांधी ने अपनी जान तक गंवा दी थी. मृत्यु के समय उनके आखिरी शब्द 'हे राम' थे और भाजपा राम राज्य की बात करती है. ऐसे में यह पूछना जायज है कि क्या भाजपा गांधीजी के राम राज्य के बारे में बात कर रही है या गोडसे के राम राज्य के बारे में?"
वहीं, चंद्रशेखर बेहद सतर्कता के साथ सांप्रदायिक कार्ड पर थरूर के साथ किसी बहस में उलझने से बचते हैं, और इसे "अल्पसंख्यकों को डराने के लिए भ्रम और झूठ फैलाने की पुरानी रणनीति" करार देते हैं. इसके बजाय, वे कहते हैं, "मेरा अभियान लोगों की उम्मीदों पर केंद्रित है, जिसमें सभी समुदायों की प्रगति के साथ निवेश, नौकरी, कौशल विकास पर जोर दिया गया है."
थरूर का पलड़ा उस स्थिति में भारी होने की संभावना बनती है, जब माकपा विपक्षी गठबंधन इंडिया के हिस्से के तौर पर अपना वोट कांग्रेस के खाते में ट्रांसफर कराए ताकि भगवा पार्टी की जीत को रोका जा सके. माकपा ने 2014 में यही किया था. हालांकि, लगातार दो बार करीब 30 फीसद वोट पाने के साथ भाजपा के भी हौसले बुलंद हैं. माना जा रहा है कि यही वजह है कि माकपा को विचारधारा से परे जाकर कांग्रेस का समर्थन करने की जरूरत महसूस हुई है, ताकि टीम मोदी को केरल की राजधानी में अपनी पहली जीत दर्ज करने से रोका जा सके.