कहां फंस रहा जाति जनगणना और मराठा आरक्षण का पेच?

एकनाथ शिंदे के नेतृत्व वाली महाराष्ट्र सरकार मराठाओं के आरक्षण को लेकर चल रहे विरोध प्रदर्शनों से किसी तरह अस्थायी राहत पाने में कामयाब रही है

कराड में 30 अक्टूबर को मराठा आरक्षण के लिए हुआ विरोध प्रदर्शन
कराड में 30 अक्टूबर को मराठा आरक्षण के लिए हुआ विरोध प्रदर्शन

महाराष्ट्र भी जाति आधारित सर्वेक्षण का सियासी सुर अलापने में पीछे नहीं है, खासकर डिप्टी सीएम अजित पवार और देवेंद्र फडणवीस के रुख को देखकर तो यही लगता है. अक्टूबर में बिहार में जाति गणना के नतीजे सार्वजनिक किए जाने और महाराष्ट्र में मराठाओं को जाति आधारित कोटा के लिए विभिन्न समूहों के विरोध प्रदर्शन के बीच राज्य में यह मांग जोर पकड़ने लगी है.

अजित पवार ने पिछले महीने कहा था, "नीतीश कुमार ने बिहार में यह किया और मुझे लगता है कि यहां भी जाति आधारित गणना होनी चाहिए. हमें महाराष्ट्र में अनुसूचित जाति, जनजाति, ओबीसी, खानाबदोश समुदायों, अल्पसंख्यकों और यहां तक कि खुली श्रेणी में आने वाले लोगों की संख्या पता होनी चाहिए." फडणवीस ने थोड़ा अधिक सतर्कता बरतते हुए कहा कि राज्य सरकार इस विचार के खिलाफ नहीं है लेकिन सवाल यह है कि इसे कैसे किया जाए ताकि "यह सुनिश्चित हो सके कि बिहार जैसी कोई समस्या नहीं होगी." एनसीपी दिग्गज शरद पवार और भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष चंद्रशेखर बावनकुले भी जाति गणना के पक्षधर हैं.

जाति गणना का मुद्दा ऐसे समय जोर पकड़ रहा है जब एकनाथ शिंदे के नेतृत्व वाली सरकार मराठाओं के आरक्षण को लेकर चल रहे विरोध प्रदर्शनों से किसी तरह अस्थायी राहत पाने में कामयाब रही है. आमरण अनशन पर बैठे एक्टिविस्ट मनोज जारांगे-पाटिल को आखिरकार भूख हड़ताल खत्म करने पर राजी कर लिया गया. जारांगे-पाटिल चाहते हैं कि अगड़ी जाति के क्षत्रिय मराठाओं को कुनबियों (कृषक) में शामिल किया जाए ताकि वे ओबीसी (अन्य पिछड़ा वर्ग) कोटा के पात्र हो सकें. आवाजें तो इसे लेकर भी उठ रही हैं कि मराठा जैसे कृषक समुदायों की समस्या आरक्षण की मांग से कहीं आगे तक जाती हैं. खेती लाभकारी व्यवसाय न रहने और उच्च शिक्षा पहुंच से बाहर होने ने उन्हें गहरा झटका दिया है और इसने निजी क्षेत्र में उनकी संभावनाओं को भी लगभग खत्म कर दिया है. उनका तर्क है कि इसीलिए सरकारी नौकरियों के लिए मारामारी है.

हालांकि, मराठाओं की कोटे की मांग का कुनबियों और व्यापक ओबीसी समूह ने कड़ा विरोध किया है. इस समुदाय का कहना है कि राज्य की राजनीति और राजनैतिक अर्थव्यवस्था दोनों पर मराठाओं का खासा नियंत्रण है. वहीं, महाराष्ट्र में ओबीसी की एक उप-श्रेणी खानाबदोश जनजाति (एनटी) में आने वाले धनगर (चरवाहे) जैसे समूह अनुसूचित जनजाति (एसटी) श्रेणी में शामिल होना चाहते हैं.

वहीं, कुछ हिंदू दलित नेता अनुसूचित जाति (एससी) श्रेणी के भीतर कोटे की मांग उठा रहे हैं. ओबीसी जाति समूहों के उप-वर्गीकरण पर मंथन करने वाले जस्टिस जी. रोहिणी (सेवानिवृत्त) के नेतृत्व वाले आयोग ने जुलाई में अपनी रिपोर्ट केंद्र को सौंपी थी. आयोग ने आरक्षण के लाभों में असमानता का पता लगाया और यह आकलन किया कि कैसे लाभ का एक बड़ा हिस्सा ओबीसी के बीच प्रमुख जाति समूहों के खाते में जा रहा है. हालांकि, जाति का मुद्दा गरमाने के बावजूद इनकी संख्या का कोई वैज्ञानिक आकलन नहीं किया गया. यही वजह है कि बढ़ा-चढ़ाकर तमाम दावे किए जा रहे हैं. पिछली जाति जनगणना 1931 में ब्रिटिशकालीन भारत में हुई थी और मौजूदा अनुमान उसी को आधार बनाकर किए गए हैं.

बहरहाल, जातिगत सर्वेक्षण से महाराष्ट्र में सामाजिक और राजनैतिक समीकरण बिगड़ने की आशंका भी कम नहीं है. इसे ऐसे समझ सकते हैं कि मराठा इस धारणा के आधार पर सामाजिक और राजनैतिक क्षेत्रों में हावी हैं कि इस समुदाय की आबादी 31.5 फीसद है. हालांकि, इसमें कुनबी शामिल हो सकते हैं, जिनकी कोंकण और विदर्भ में अच्छी-खासी आबादी है. अधिक यथार्थवादी अनुमानों के मुताबिक, मराठा केवल 12 से 16 फीसद के आसपास हो सकते हैं. और एक अनुमान यह भी है कि ओबीसी करीब 52.1 फीसद हैं (जिसमें 8.4 फीसद गैर-हिंदू हैं).

ओबीसी को अविभाजित शिवसेना और भाजपा के मजबूत जनाधार के तौर पर देखा जाता है, जबकि मराठा समुदाय को राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (एनसीपी) का प्रमुख वोट बैंक माना जाता है, जो अब अजित और उनके चाचा शरद पवार के नेतृत्व वाले गुटों में बंट गया है. मराठाओं के विरोध प्रदर्शन के बाद ओबीसी समूह भी जाति आधारित गणना को लेकर अधिक मुखर हो गए हैं. उनका दावा है कि ऐसा सर्वे राज्य में मराठाओं को इर्द-गिर्द केंद्रित व्यवस्था में बदलाव वाला साबित होगा. राष्ट्रीय ओबीसी महासंघ के बबनराव तायवाड़े का कहना है, "यह दावा कि ओबीसी आबादी 52 फीसद है, 1931 की जनगणना पर आधारित है. अब तो यह करीब 60 फीसद हो सकती है."

उनका आकलन बी.पी. मंडल आयोग की रिपोर्ट (1980) पर आधारित है, जिसने महाराष्ट्र में 270 पिछड़े वर्गों की पहचान की थी और यह संख्या अब बढ़कर लगभग 400 हो गई है. मुख्यधारा से बाहर रहने वाले गैर-अधिसूचित और खानाबदोश जनजाति जैसे कुछ वर्गों में प्रजनन दर अधिक है. तायवाड़े यह भी कहते हैं कि जाति जनगणना से आरक्षण पर 50 फीसद की सीमा हटाने और ओबीसी को अधिक कोटा आवंटित करने की मांग मजबूत होगी. राज्य में जाति आधारित सर्वेक्षण की योजना करीब दो साल से लंबित है. मार्च 2021 में सुप्रीम कोर्ट ने स्थानीय निकायों में ओबीसी के लिए राज्य के 27 फीसद राजनैतिक कोटा को उनके पिछड़ेपन के बारे में ठोस डेटा के अभाव में रद्द कर दिया था. बाद में उसी साल महाराष्ट्र राज्य पिछड़ा वर्ग आयोग (एमएससीबीसी) ने जाति जनगणना के लिए 435 करोड़ रुपए का प्रस्ताव पेश किया. हालांकि, तत्कालीन महाराष्ट्र विकास अघाड़ी (एमवीए) सरकार ने कोविड महामारी और सर्वेक्षण में आने वाले भारी खर्च का हवाला देते हुए इसे लंबित रखा.

अंतत: मार्च 2022 में महाराष्ट्र सरकार ने पूर्व मुख्य सचिव जे.के. बंठिया की अगुआई में एक आयोग गठित किया, जिसे ओबीसी में पिछड़ेपन की स्थिति पर डेटा जुटाने का जिम्मा सौंपा गया. आयोग ने ओबीसी की आबादी 37 फीसद बताई और जुलाई 2022 में उसकी यह रिपोर्ट सुप्रीम कोर्ट ने स्वीकार कर ली. एमएससीबीसी की अंतरिम रिपोर्ट ने पहले इनकी आबादी 39 फीसद होने का अनुमान लगाया था. एमएससीबीसी के एक सदस्य के मुताबिक, "जब कोई कल्याणकारी नीति बनाने की बात आती है, तो यह निर्धारित करने के लिए ठोस अनुभव पर आधारित डेटासेट की जरूरत पड़ती है कि कौन 'अगड़े' वर्ग में आता है और कौन-सा समाज 'पिछड़ा' है."

उन्होंने यह भी बताया, "यह हमारी समझ को मूलत: बदल देगा और मानदंडों का एक नया आधार तय करने में मदद करेगा. लेकिन इसके लिए हमें भूमि जोत, पानी की उपलब्धता, आवास, शिक्षा के स्तर और नौकरियों जैसे संकेतकों पर वैज्ञानिक डेटा की जरूरत होगी, जो पिछड़ेपन के स्तर पर फिर से समझने में मदद करेगा." पूर्व विधायक और धनगर समुदाय के नेता प्रकाश शेंडगे का कहना है कि जाति जनगणना से पिछड़ी आबादी की सही संख्या का पता चलेगा और साथ ही यह भी सुनिश्चित हो सकेगा कि इसके आधार पर उनके लिए बजटीय प्रावधान हो सके, जैसा एससी/एसटी के लिए होता है. वे कहते हैं, "जाति जनगणना से सही संख्या और सामाजिक पिछड़ेपन का पता चलेगा. अगर केंद्र जाति गणना शुरू करने को तैयार नहीं है, तो राज्य सरकार को ही पहल करनी चाहिए."

पूर्व राज्यसभा सदस्य और कोल्हापुर के शाही घराने के वंशज युवराज संभाजीराजे छत्रपति भी जाति सर्वेक्षण और जातियों के लिए उनकी आबादी के अनुपात में कोटा निर्धारित करने के पक्षधर हैं. संभाजीराजे स्वराज्य नामक राजनैतिक संगठन का नेतृत्व करते हैं और पूर्व में मराठा आरक्षण आंदोलन के चेहरों में से एक रहे हैं. लेकिन इसे लेकर संशय भी कम नहीं है. लेखक और एक्टिविस्ट संजय सोनवानी बताते हैं कि ब्रिटिशकालीन भारत में जाति गणना के दौरान कई जातियों ने उत्थान के लिए खुद को उच्च सामाजिक समूह से संबंधित बताया. बतौर उदाहरण, अहमदनगर जिले में कोलियों ने अपने कुनबी होने का दावा किया. इसी तरह, बारामती और पुणे के मालेगांव में धनगरों ने सागर राजपूत होने का दावा किया. उनकी जाति पंचायतों ने इससे जुड़े प्रस्ताव भी पारित किए.

सोनवानी इसे स्पष्ट करते हैं, "उन्होंने सामाजिक उत्थान के लिए ऊंची जाति का दर्जा मांगा था. अब एक उल्टी प्रक्रिया चल रही है जहां कोटा लाभ के लिए सामाजिक व्यवस्था में निचली जाति से संबंधित होने की होड़ लगी है. जाहिर है कि गणना करने वालों के लिए भी यह आसान नहीं होगा कि उत्तरदाता अपनी जाति के सामाजिक पदानुक्रम को लेकर जो दावे कर रहे हैं, वे कितने सही हैं."

Read more!