क्या जातिगत जनगणना से बिहार में बदलेगा मुसहरों का हाल?
बिहार की महादलित जातियों में शुमार मुसहर जाति की बसाहटों में जाकर पता चलता है कि यह आबादी चौतरफा समस्याओं और मुसीबतों से घिरी है

पटना का बिहटा इलाका बिहार की राजधानी के एक उपनगर के रूप में विकसित हो रहा है. यहां एयरपोर्ट से लेकर आईआईटी जैसे शिक्षण संस्थान तक बने हैं और कई पॉश कॉलोनियां विकसित हो रही हैं. लेकिन इसी बिहटा का एक हिस्सा इस रौनक से बिलकुल अछूता लगता है. यहां बरामदे में मिट्टी के चूल्हे पर खिचड़ी पकाती महज सात-आठ साल की एक बच्ची को देखकर कोई भी हैरान-परेशान हो सकता है.
जाति गणना के आर्थिक-सामाजिक आंकड़े आने से पहले हम बिहार की सबसे अंत्यज समझी जाने वाली जाति मुसहर लोगों के आर्थिक-सामाजिक हालात समझना चाहते थे. इसके लिए हम राजधानी से दूर मुसहरों की किसी बस्ती में जाना चाहते थे. मगर बिहार में लंबे समय से इन मुसहरों के लिए काम करने वाली सामाजिक कार्यकर्ता पद्मश्री सुधा वर्गीज से जब इंडिया टुडे ने बात की तो उनका कहना था, "दूर जाने की जरूरत नहीं, आप बिहटा के बाटा मुसहरी जाकर देख लीजिए, आपको समझ आ जाएगा."
खिचड़ी बना रही जिस बच्ची का जिक्र हमने शुरू में किया, बाटा मुसहरी में उसका मकान पहला ही था. मिट्टी का मकान, मिट्टी का बरामदा और वहां बने मिट्टी के चूल्हे पर सोनिया के नन्हे हाथ खिचड़ी बनाने में व्यस्त थे. उससे कुछ पूछना चाहा तो वह सकपका गई. जो कुछ वह बोल रही थी, उससे कुछ समझ नहीं आ रहा था.
थोड़ी देर में उसका भाई बिसाय आया जो उससे एक या दो साल बड़ा था. उसने बताया कि उनकी मां नाना के यहां गई हैं और पिता कहीं बाहर भटक रहे होंगे. दो बच्चे और पिता साथ रहते हैं. यही नन्ही बच्ची तीनों लोगों का खाना पकाती है, दोनों में से कोई बच्चा स्कूल नहीं जाता. बच्ची एक नारी गुंजन में पढ़ने जाती थी, मगर अब जाना बंद हो गया.
आगे बढ़ने पर पता चला कि ढाई-तीन सौ घरों वाली मुसहरों की इस बस्ती में ऐसी दर्जनों सोनिया हैं, जो स्कूल जाने के बदले घरेलू काम में जुटी हैं. दर्जनों बिसाय एक गंदले पानी के जमाव वाली तालाबनुमा जगह में मछलियां पकड़ रहे हैं. वे जहां मछलियां पकड़ रहे थे, वहीं बगल में सूअर लोट रहे थे और जगह-जगह मानव और पशुओं का मल बिखरा था.
यह सब देखकर सहज ही अंग्रेजों के दौर में मुंगेर के डिस्ट्रिक्ट कलेक्टर रहे ई. लॉकवुड का 1873 में लिखा बयान याद आ गया, "बिहार के मुसहर अमूमन ऐसी जगहों में रहते हैं, जहां रहना ब्रिटेन का सूअर भी पसंद न करे." इस बयान के डेढ़ सौ साल बाद और भारत की आजादी के 76 साल बाद भी यह स्थिति बहुत बदली नहीं है.
यह मुसहरों की इस बस्ती का सौभाग्य है कि यहां नारी गुंजन जैसी संस्था काम करती है और बच्चों की पढ़ाई के लिए दो सेंटर चलाती है. एक में तीन से आठ साल के बच्चे पढ़ते हैं, दूसरे में नौ से 14 साल के बच्चे. हालांकि अगर मुजफ्फरपुर के हरपुर, औरंगाबाद के माली और गया के शेरघाटी के मुसहरों के बस्तियों में जाएं तो 10 साल से अधिक उम्र का लड़का मुश्किल से ही दिखता है. ज्यादातर बच्चे जयपुर की चूड़ी फैक्टरियों और हिमाचल के सेब बगानों और आंध्र प्रदेश के कारखानों में भेज दिए जाते हैं.
बिहटा के बाटा मुसहरी में नारी गुंजन के एक सेंटर में बच्चों को पढ़ा रहीं खुशबू कहती हैं, "हमारे सेंटर में 40 बच्चे पढ़ते हैं जबकि इस बस्ती में छोटी उम्र के इतने बच्चे और हैं. हर घर में कम-से-कम तीन से चार बच्चे हैं, कई घरों में छह-छह बच्चे हैं. मगर मां-बाप अपने बच्चों को पढ़ाने में रुचि नहीं लेते. हमें जबरदस्ती या समझा-बुझाकर बच्चों को पकड़ कर लाना पड़ता है. मां-बाप इन बच्चों को रात दो बजे ही कचरा चुनने भेज देते हैं."
इनके सेंटर में तो बच्चे आ भी जाते हैं, सरकारी स्कूलों में तो इस पूरे टोले से बमुश्किल डेढ़-दो दर्जन बच्चे ही जाते हैं. जीवन के संघर्ष के बीच मुसहर परिवारों की पढ़ाई-लिखाई में रुचि न के बराबर है. बिहार राज्य एससी-एसटी कल्याण विभाग के 2012 के आंकड़ों के मुताबिक, राज्य में मुसहर जाति की साक्षरता दर सिर्फ 4.6 फीसद है.
इस बस्ती में जहां जाएं, बच्चे ही बच्चे दिखते हैं. ऐसा लगता है कि परिवार नियोजन की जरूरत और तरीकों के बारे में यहां किसी को कुछ नहीं पता. सुधा वर्गीज बताती हैं, "एक बार किसी और बस्ती की एक मुसहर महिला को मैंने परिवार नियोजन अपनाने के लिए कहा. उसके चार बच्चे हो गए थे. ऑपरेशन के बाद अचानक ऐसा हुआ कि छह माह के भीतर उसके तीन बच्चे कॉलेरा से मर गए. अब एक ही बच्चा बचा है. तब समझ आया कि ये लोग ज्यादा बच्चे क्यों चाहते हैं. मुसहरों में बाल मृत्यु दर बहुत ज्यादा है."
पिछले दिनों बिहटा के इस टोले की दो बच्चियों की मौत डेंगू से हो गई. उनमें से एक सिमरन की उम्र दस साल थी. उसकी मां सुंदर देवी बताती हैं, "अचानक बुखार आया तो अस्पताल ले गए. वहां 50-55 हजार रुपए खर्च भी हो गए, मगर सिमरन बची नहीं." इनके तीन बच्चे थे, जिनमें सिर्फ सिमरन ही स्कूल जाती थी. 14 साल की बड़ी बहन स्कूल नहीं गई और छोटा भाई नाम लिखवाने के बाद भी स्कूल नहीं जाता. सुंदर देवी के पति गुजर गए हैं, मगर उन्हें विधवा पेंशन नहीं मिलती. इंदिरा आवास भी नहीं मिला है.
उनकी पड़ोसन इंदू देवी कहती हैं, "पूरी बस्ती गैरमजरुआ जमीन पर बसी है, किसी के पास एक धूर जमीन नहीं है." यह सिर्फ बिहटा के मुसहरी का ही नहीं, पूरे बिहार के मुसहरों का सच है. ज्यादातर मुसहर परिवार भूमिहीन हैं. बिहार के मुसहरों पर शोध करने वाले गौरांग आर. सहाय, 2019 में सेज पब्लिकेशन के जर्नल में प्रकाशित अपनी रिपोर्ट में लिखते हैं, "मुसहर संभवत: 12वीं सदी में छोटा नागपुर के आदिवासी इलाकों से बिहार के मैदानी भाग में आए. यहां के खेतिहर समाज ने इन्हें अपनी वर्ण व्यवस्था में अछूतों की श्रेणी में रखा. वे शुरुआत से ही भूमिहीन खेतिहर मजदूर का काम करते रहे. बंधुआ मजदूरी उनके हिस्से में आई. इसलिए ये हमेशा से गरीब, अछूत, भूमिहीन, निरक्षर और कुपोषित ही रहे. कभी इन्हें किसी तरह का कोई अधिकार नहीं मिला."
मुजफ्फरपुर के मोतीपुर प्रखंड के हरपुर गांव में मुसहरों की चार सौ घरों की बस्ती में इसी तरह अशिक्षा, भूमिहीनता और पलायन का नजारा दिखता है. बच्चे कुपोषित हैं और जवान लोग काम करने पंजाब गए हैं. घर में बुजुर्ग, महिलाएं और रोते-बिलखते छोटे बच्चे बच गए हैं. लड़कियां 12 साल की होते-होते ब्याह दी जा रही हैं. हरपुर में पलायन के बाद जो लोग बच गए हैं, वे बांस की टोकरियां बनाते हैं. जबकि बिहटा के बाटा मुसहरी के लोगों को शराबबंदी के बाद नया रोजगार मिला है. देसी शराब बनाने का. लोग बताते हैं कि यहां कई घरों में देसी शराब बनाकर बेची जाती है.
नारी गुंजन के एक दूसरे सेंटर की संचालिका कहती हैं, "अक्सर इस टोले में पुलिस दबिश देने आती है. दो दिन पहले एक पुलिस वाले ने कहा कि मैडम आप लोगों की वजह से इस मोहल्ले में कई बच्चे स्कूल जाने लगे हैं. तो मैंने कहा, सर, अगर इन्हें रोजगार मिल जाए तो मेरा दावा है कि यह काम पूरे टोले से खत्म हो जाएगा." मगर रोजगार मिलना बहुत मुश्किल काम है. टोले के लोग बताते हैं कि यहां कुछ ही लोग ऐसे हैं जो प्राइवेट नौकरी करते हैं. पटना जिले के मुसहरों के दस-बारह गांवों में उनकी जानकारी में एक ही युवक ऐसा है, जिसे सरकारी नौकरी मिली है. वह दरियापुर का रहने वाला है, उसे भी आर्मी या सीआरपीएफ में कहीं नौकरी मिली है.
कई युवक-युवतियां ग्रेजुएट करके बैठी हैं, मगर नौकरी नहीं मिली. फिलहाल जाति आधारित गणना में राज्य में मुसहरों की आबादी 3.08 फीसद बताई गई है, जो कुल मिलाकर 40 लाख से अधिक है. ऐसे में आर्थिक आंकड़े आने के बाद क्या उनके हालात बदलेंगे, ऐसी उम्मीद वहां किसी के चेहरे पर नहीं दिखती.
पूर्व मुख्यमंत्री जीतनराम मांझी से बातचीत का एक अंश:
●जाति आधारित गणना से मुसहरों के जीवन में क्या बदलाव आएगा?
यह गणना ठीक से नहीं हुई. मुसहरों की संख्या 1931 में तीन फीसद थी, आज भी उतनी ही है. माल्थ्यूजियन थ्योरी बताती है कि गरीबों की जनसंख्या ज्यादा तेजी से बढ़ती है. सबसे ज्यादा तो हमारी जनसंख्या बढ़नी चाहिए थी, फिर हम तीन के तीन कैसे रह गए? इसके अलावा जाति गणना में मुसहर और भुइयां को अलग कर दिया, जबकि दोनों एक ही जाति के हिस्से हैं.
●आज मुसहरों में सरकारी नौकरी करने वाला ढूंढे नहीं मिलता. इसकी क्या वजह है?
जब सरकारी स्कूलों में पढ़ाई होती ही नहीं है, नौकरी कैसे मिलेगी! मुसहरों के तो ज्यादातर बच्चे सरकारी स्कूलों में ही पढ़ते हैं. इसके अलावा बिहार में दलित छात्रों के लिए बने छात्रावासों में भी ज्यादातर समृद्ध और ताकतवर दुसाध, चमार, पासी और धोबी जाति के बच्चे रहते हैं, मुसहर बहुत कम दिखेंगे. जब मैं सत्ता में था, तो मैंने इन छात्रावासों में मुसहर-भुइयां बच्चों के लिए 40 फीसद सीटें आरक्षित रखने का नियम बनाया था. मगर मेरे जाते ही सिस्टम बदल गया.
●मुसहरों के हर घर में कम से कम तीन-चार बच्चे हैं. बच्चे स्कूल नहीं जाते. कचरा चुनते हैं या कमाने के लिए बाहर भेज दिए जाते हैं.
अभिभावक तत्काल लाभ चाहते हैं, आगे की नहीं सोचते. वे सोचते हैं कि बच्चे अधिक हैं तो कमाने वाला बढ़ गया है. पांच बरस का होते-होते बच्चे को होटल में थाली धोने या जानवर चराने के लिए भेज दिया जाता है. हमारे पिताजी नेटुआ का नाच करते थे. मगर उन्होंने हमें पढ़ाने का संकल्प लिया था. इसके लिए उन्हें पीटा गया, भूखों रहना पड़ा, कष्ट सहना पड़ा. मगर आज भी बहुत कम लोग ऐसा सोचते हैं.
●पहले तो यह भी होता था कि शादी-ब्याह के वक्त मुसहर जाति के लोग कर्ज लेते थे और बंधुआ मजदूर हो जाते थे.
मेरे साथ भी हुआ है. मेरी और मेरे भाई की शादी तय हो गई थी, दस-दस पंसेरी चावल में. हमारे यहां लड़की पक्ष को ही देन दिया जाता है. मेरे पिताजी जिनके यहां काम करते थे, उनसे मांगने गए तो उन्होंने कजरौटी और सादा कागज रख दिया और कहा, अपने दोनों बेटों की मजदूरी लिख दीजिए और चावल ले जाइए. मेरे पिताजी ने कहा कि हम तो मजदूर हैं ही, अपने बेटों को मजदूर नहीं बनाएंगे. इसलिए उन्होंने उनसे चावल नहीं लिया. किसी दूसरे से प्रेमवश चावल लिया, तब हम लोगों की शादी हुई.
●आज कैसी स्थिति है?
स्थिति बहुत बदली नहीं है. आज भी ज्यादातर लोग बारिश के मौसम में ईंट-भट्ठा मालिकों से दाबनी (एडवांस) ले लेते हैं. उन पैसों से जितिया-दशहरा वगैरह मनाते हैं. फिर इस मौसम में वे लोग भट्ठों पर जाने लगते हैं. वहां काम करते हैं और खाली हाथ वापस लौटते हैं. उन्हें सिर्फ किराया दिया जाता है. गलती से मेहनताना मांग लिया तो उनको वहीं चिमनी भट्ठा में डाल दिया जाता है, उनका पता भी नहीं चलता. यह भी एक तरह की बंधुआ मजदूरी ही है.
●मुसहर बस्तियों में लोग अवैध शराब निर्माण से जुड़े हुए हैं.
दरअसल, इसमें गलती मुसहरों की नहीं है. कुछ बड़े लोग जो शराब पीने के अभ्यस्त हैं, वे इन मोहल्ले में पैसे देकर शराब पीते हैं. उनका तो कुछ नहीं बिगड़ता, मगर पुलिस दबिश और मुकदमे में दलित बस्तियों के लोग फंसते हैं.
यही वजह है कि आज जेल में शराब पीने-बेचने के जुर्म में बंद 70 फीसद लोग दलित समुदाय के हैं. पहले मेरे घर में भी शराब बनती थी. मेरे कहने पर पिताजी ने यह काम छोड़ दिया. पर मैंने देखा है कि पहले आठ दिन में शराब बनती थी, आज दो घंटे में तैयार हो जा रही है. उसमें यूरिया-नौसादर और न जाने क्या-क्या मिलाते हैं. जाहिर है, वह जहरीला हो जाता है. इसलिए मैं शराब नीति को लागू करने के तरीके का विरोध करता हूं.
●जब आप सरकार में रहे तो मुसहर जाति के लिए क्या-क्या किया?
दरअसल, एससी की चार विकसित जातियां हैं. दुसाध, चमार, पासी और धोबी. इन लोगों को आरक्षण का लाभ 90 फीसद मिला, मुसहर समेत बाकी लोग दस परसेंट में अटके रहे. मेरी सलाह पर ही नीतीश कुमार ने दलितों में वंचित समूह के लिए महादलित श्रेणी बनाई, मगर बाद में सब खिचड़ी हो गया. हमने कहा था कि इंदिरा आवास आदि योजनाओं में भी इन जातियों के लिए अलग से आरक्षण हो. मगर इस बात का खूब विरोध हुआ और आरक्षण लागू नहीं हो पाया.