पासवान परिवार में टकराव बढ़ाएगा भाजपा की मुश्किल

साल 2024 के लोकसभा चुनाव से पहले भाजपा के सामने रामविलास पासवान के कुनबे के दोनों धड़ों को साधने की चुनौती है

रामविलास पासवान के बेटे चिराग
रामविलास पासवान के बेटे चिराग

खगड़िया के शहरबन्नी गांव में 8 अक्टूबर को लोक जनशक्ति पार्टी (लोजपा) के संस्थापक और दिवंगत रामविलास पासवान की तीसरी पुण्यतिथि पर उनका परिवार जुटा. उनके पुत्र चिराग पासवान ने गांव में उनकी मूर्ति का अनावरण किया. उनके कुनबे के लोगों ने एकजुट होकर तस्वीर खिंचवाई. मगर उसमें न तो रामविलास के छोटे भाई केंद्रीय मंत्री पशुपति कुमार पारस का परिवार था और न ही उनके एक अन्य दिवंगत छोटे भाई रामचंद्र पासवान का परिवार. इन दोनों परिवारों के लोग दिल्ली में पशुपति के आवास पर जुटे थे. वहीं उन लोगों ने रामविलास को याद किया. अगले दिन पारस हाजीपुर पहुंचे और उन्होंने एक चौराहे पर लगी रामविलास की प्रतिमा पर पुष्पांजलि अर्पित की. 

इसके महज तीन दिन बाद ही इस विशाल पासवान कुनबे की आपसी तकरार सतह पर आ गई. 11 अक्टूबर को अपने संसदीय क्षेत्र जमुई से चिराग ने ऐलान कर दिया कि वे अपने पिता की संसदीय सीट हाजीपुर से अपनी मां रीना पासवान को चुनाव लड़ाने की तैयारी कर रहे हैं. इस सीट से वर्तमान सांसद और उनके चाचा पारस उनकी बात से तिलमिला गए और महज दो दिन बाद उन्होंने भी कह दिया, "अगर वे अपनी मां को यहां से लड़वा सकते हैं, तो हम भी जमुई से उसी की मां या बहन को लड़ा सकते हैं." पारस का इशारा चिराग की पहली मां राजकुमारी देवी और सौतेली बहन आशा की ओर था.    

पारस इतने पर ही नहीं रुके. उन्होंने कह दिया, "हम तो एनडीए के परमानेंट मेंबर हैं, वह तो आता-जाता रहता है. उसका क्या?" इस तरह दोनों पासवान धड़ों में हाजीपुर सीट के बहाने फिर से जोर-आजमाइश शुरू हो गई. दिलचस्प है कि यह सब तब हो रहा था जब महज एक हफ्ते पहले एनडीए की सबसे बड़ी पार्टी भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जे.पी. नड्डा राजधानी पटना में यह कह कर गए कि देश में क्षेत्रीय पार्टियों का खात्मा तय है क्योंकि वे परिवारवादी पार्टियां बन कर रह जाती हैं. 

रामविलास के निधन के बाद से ही उनका कुनबा बिखरने लगा था. उनकी पहली पुण्यतिथि से पहले ही उनकी पार्टी लोजपा आधिकारिक रूप से दो हिस्सों में बंट गई. एक हिस्सा राष्ट्रीय लोक जनशक्ति पार्टी पारस के हिस्से गया, दूसरा हिस्सा लोक जनशक्ति पार्टी (रामविलास) चिराग के हिस्से. दिलचस्प कि दोनों पार्टियां अभी एनडीए का हिस्सा हैं, मगर दोनों के बीच कई मसलों को लेकर अदावत बरकरार है.

इनमें हाजीपुर सबसे बड़ा मुद्दा है क्योंकि यह रामविलास की पारंपरिक संसदीय सीट है. वहां वे 1977 में रिकॉर्ड मार्जिन से चुनाव जीते थे और आठ बार सांसद रहे. इस क्षेत्र में उन्होंने इतना काम किया कि उनके नाम पर किसी का भी चुनाव जीत जाना आसान है. इसलिए 2019 के लोकसभा चुनाव में पारस भी आराम से जीत गए और अब वे उस सीट को किसी सूरत पर छोड़ना नहीं चाहते. वहीं, चिराग अपने पिता की विरासत वाली सीट को फिर से हासिल करना चाहते हैं. लोजपा (रामविलास) के मुख्य प्रवक्ता राजेश भट्ट कहते हैं, "हाजीपुर से हम लोग ही लड़ेंगे. रीना पासवान जी को मनाया जा रहा है. चिराग पासवान चाहते हैं कि उनकी मां इस सीट से लड़ें. दरअसल, वे अपने चाचा के व्यवहार के काफी दुखी हैं. उन्होंने केंद्र में मंत्री बनने के लिए जिस तरह छल किया, परिवार और पार्टी को तोड़ा चिराग उसे भूल नहीं पा रहे."

लोकसभा चुनाव से पहले कई मुद्दे दोनों के बीच विवाद की वजह बन सकते हैं. सबसे बड़ा मुद्दा सीटों का है. लोजपा के दोनों धड़ों के पास अभी छह सीटें हैं. इनमें हाजीपुर के अलावा जमुई है जहां से चिराग सांसद हैं. फिर, वैशाली से वीणा देवी, खगडिय़ा से महबूब अली कैसर, नवादा से चंदन सिंह और समस्तीपुर से प्रिंस राज सांसद हैं. 

रामविलास की मृत्यु के बाद पारस ने चिराग को पार्टी से बेदखल कर दिया था और उस वक्त उनके अलावा पांचों सांसद पारस के साथ थे. इसलिए उनकी पार्टी इन पांचों सीटों पर अपना दावा करती है. वहीं, चिराग का दावा सभी छह सीटों पर है. भट्ट कहते हैं, "ये सभी सीटें तो लोजपा के बैनर तले लड़ी गई थीं और हमारे नेता रामविलास पासवान की वजह से इन्हें जीत मिली. इसलिए इन सभी सीटों पर हमारा दावा है." चिराग अपने चचेरे भाई प्रिंस राज के व्यवहार से भी नाराज हैं. जब चिराग को पार्टी से बेदखल किया गया तो प्रिंस भी चाचा पारस के साथ खड़े थे.

असल में, रामविलास ने ही पारस और रामचंद्र को राजनीति में स्थापित किया था. पारस को वे 1977 में ही राजनीति में ले आए. इमरजेंसी के बाद जब चुनाव होने लगे तो उन्होंने अपनी अलौली विधानसभा सीट छोड़ दी और हाजीपुर से संसदीय चुनाव लड़ने की तैयारी करने लगे. तब उन्होंने अलौली से पारस को जनता पार्टी से टिकट दिलाया जहां से वे सात बार चुनाव जीते. इस दौरान वे तीन बार राज्य सरकार में मंत्री रहे. इसी तरह, अपने सबसे छोटे भाई रामचंद्र को उन्होंने दलित सेना का अध्यक्ष बनाया. 1999 में उन्हें रोसड़ा संसदीय सीट से उतारा और वे वहां से दो बार सांसद चुने गए. जब रोसड़ा लोकसभा सीट का विलोपन हो गया तो उन्हें समस्तीपुर सीट से उतारा, वहां भी रामचंद्र दो बार जीते. जुलाई, 2019 में रामचंद्र के निधन के बाद उपचुनाव में उन्होंने रामचंद्र के पुत्र प्रिंस राज को उस सीट से उतारा. प्रिंस भी जीत गए और अभी सांसद हैं. 2019 में उन्हें बिहार लोजपा का अध्यक्ष भी बनाया गया. 

रामविलास पासवान को पुष्प अर्पित करते पारस पासवान

पासवान कुनबे के एक और सदस्य अनिल साधु भी राजनीति में हैं. वे रामविलास की पहली पत्नी राजकुमारी देवी की बेटी आशा के पति हैं. 2015 में वे लोजपा से विधानसभा चुनाव लड़ना चाहते थे, पर उन्हें टिकट नहीं मिला. उन्हें फिर पार्टी विरोधी गतिविधियों के आरोप में छह साल के लिए निष्कासित कर दिया गया. 2018 में वे राजद से जुड़ गए और अभी राजद के एससी मोर्चा के स्टेट प्रेसिडेंट हैं. वे भी चिराग के खिलाफ हमलावर रहते हैं.

अब सबसे बड़ा सवाल यह है कि 2024 में एनडीए रामविलास के कुनबे को कैसे संभालता है, क्योंकि सभी छह सीटों को लेकर दोनों धड़ों के बीच जोरदार लड़ाई होगी. माना जा रहा है कि एनडीए दोनों धड़ों को छह सीटें देने के लिए तैयार है. मगर कोई भी आपसी समझौते के लिए तैयार नहीं दिखता. खासकर चिराग, जिन्होंने अपने पिता की पार्टी से अपने निष्कासन को दुश्मनी की तरह ले लिया और उस अपमान का बदला लेना चाहते हैं. बिहार में यह भी माना जाता है कि भले ज्यादा सांसद पारस के साथ हैं, लेकिन लोजपा के कोर वोटर ज्यादातर चिराग के पीछे खड़े हैं. 

इधर रामविलास परिवार के तीन सांसदों को छोड़ दिया जाए तो बाकी तीन सांसद भले ही आधिकारिक तौर पर पारस के गुट का हिस्सा हैं, मगर उन्होंने दोनों तरफ आना-जाना लगा रखा है. ऐसा माना जा रहा है कि सीटें जिस तरफ गईं, वे उधर चले जाएंगे. मगर दिक्कत यह है कि यह अभी तय नहीं है कि इन छह में से किस धड़े को कितनी सीटें मिलेंगी और वे कितनी सीटों पर मान जाएंगे. मामला खानदानी अदावत का जो है.

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