महाराष्ट्र में धनगर आरक्षण पर चढ़ा पारा
धनगर ओबीसी के खानाबदोश जनजाति श्रेणी में शामिल हैं. वे एसटी दर्जा और कोटे में ज्यादा हिस्सेदारी की मांग कर रहे हैं

महाराष्ट्र में जातिगत आरक्षण के लिए मराठों के आंदोलन का असर अन्य सामाजिक समूहों पर भी पड़ा है. अब धनगर समुदाय भी ज्यादा कोटा हासिल करने के लिए अनुसूचित जनजाति (एसटी) श्रेणी में खुद को शामिल करवाना चाहता है. यह पारंपरिक तौर पर खानाबदोश चरवाहा समुदाय रहा है. कुछ अनुमानों के मुताबिक, राज्य की 12.6 करोड़ की कुल आबादी में यह करीब 12 फीसद है.
धनगर समुदाय में पास या दूर जाकर पशुओं को चराने वाले पशुपालक और खेती-बाड़ी करने वाले लोग शामिल हैं. महाराष्ट्र में मराठा-कुनबी के बाद इसे दूसरा सबसे बड़ा जाति समूह माना जाता है. चुनावी नजरिये से राज्य की 288 सीटों में से एक-चौथाई में इनकी मजबूत मौजूदगी है. वैसे, आदिवासी संगठन उनकी मांग का जोरदार विरोध कर रहे हैं, क्योंकि उन्हें आशंका है कि नए समूह की भागीदारी से नौकरियों, शिक्षा और राजनीति में मिलने वाले आरक्षण में उनकी हिस्सेदारी घट जाएगी, और अगर वे भूमि खरीदने के पात्र बने तो धीरे-धीरे उन्हें इससे भी वंचित कर सकते हैं.
धनगर अभी एनटी-सी यानी खानाबदोश जनजाति श्रेणी में आते हैं जो ओबीसी की एक उप-श्रेणी है, और महाराष्ट्र में इसे 3.5 फीसद कोटा हासिल है. आदिवासी दर्जा देने और 7 फीसद वाले उच्च कोटा श्रेणी में शामिल करने की उनकी मांग 'धांगड़/उरांव' के संविधान की अनुसूचित जनजाति सूची में शामिल होने पर आधारित है. इस समुदाय के नेताओं का दावा है कि धनगर और धांगड़ एक ही होते हैं और धांगड़ में वर्तनी की गलती है, जिसकी वजह से ही महाराष्ट्र ने उन्हें आरक्षण के लाभ से वंचित कर दिया है. हालांकि, आदिवासी नेता इसे भी रेखांकित करते हैं कि झारखंड, बिहार, पश्चिम बंगाल और ओडिशा में छोटा नागपुर पठार में बसे धांगड़ और उरांव भिन्न हैं. 2018 में टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज (टीआईएसएस) की एक रिपोर्ट में भी कहा गया कि धनगर और धांगड़/उरांव के बीच बहुत कम समानताएं पाई गई हैं.
बहरहाल, यह मुद्दा भाजपा के लिए गले की फांस बनता जा रहा है, जो महाराष्ट्र में सत्तारूढ़ गठबंधन का हिस्सा है. आदिवासी क्षेत्रों में पार्टी का अच्छा-खासा दबदबा है और इस समुदाय का वोट पाने के लिए वह धनगर आरक्षण की मांग को हवा देती रही है. भगवा पार्टी पारंपरिक तौर पर 'माधव' फॉर्मूले को अपनाए रही है, जिसका मतलब है महाराष्ट्र की राजनीति में मराठों के वर्चस्व की काट के लिए माली, धनगर और वंजारी जैसे शक्तिशाली ओबीसी समूहों के बीच पैठ बढ़ाना. इसकी बदौलत ही भाजपा को शेटजी (व्यापारियों) और भट्टजी (ब्राह्मण) की पार्टी वाली छवि से उबरने में मदद मिली.
इस बीच, आरक्षण में मराठों को कोटा देने की मांग बरकरार है. एक्टिविस्ट मनोज जरांगे-पाटील इसके लिए 29 अगस्त से अगले 17 दिनों तक अनशन पर रहे. उन्होंने मांग रखी कि मराठों को 'कुनबी' के तौर पर जाति प्रमाणपत्र हासिल करने की अनुमति दी जाए. अब, चूंकि कुनबी ओबीसी श्रेणी में आते हैं, इसलिए इससे मराठा भी कोटा के पात्र होंगे. वैसे, कुनबी और अन्य ओबीसी समूह इस मांग के खिलाफ हैं. लेकिन मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे की ओर से मराठों को आरक्षण देने का वादा किए जाने के बाद पाटील ने 14 सितंबर को अपना आंदोलन वापस ले लिया. गौरतलब कि सुप्रीम कोर्ट ने मई 2021 में मराठों को विशेष आरक्षण देने वाला कानून रद्द कर दिया था.
मराठा आंदोलन की देखादेखी धनगर एक्टिविस्टों ने भी 6 सितंबर से अहमदनगर के चौंडी में भूख हड़ताल शुरू कर दी. राज्य सरकार से यह आश्वासन मिलने के बाद उन्होंने 26 सितंबर को विरोध प्रदर्शन रोक दिया कि अगले 50 दिन में धनगरों को एसटी सूची में शामिल करने के लिए तकनीकी पहलुओं का अध्ययन किया जाएगा. भाजपा के वरिष्ठ नेता और ग्रामीण विकास मंत्री गिरीश महाजन कहते हैं कि इस मांग को लेकर राज्य सरकार का रुख 'पूरी तरह सकारात्मक' है.
भाजपा के एक वरिष्ठ नेता ने माना कि इस मुद्दे ने पार्टी की दुविधा बढ़ा दी है. 2014 के लोकसभा और राज्य विधानसभा चुनावों से पूर्व पार्टी ने राष्ट्रीय समाज पार्टी (आरएसपी) प्रमुख महादेव जानकर जैसे धनगर नेताओं से संपर्क साधा था, और समुदाय के समर्थन के बल पर ही राज्य की सत्ता तक पहुंची थी. जानकर को बाद में राज्य मंत्री भी बनाया गया था. इसके अलावा, पार्टी ने राम शिंदे और गोपीचंद पडलकर जैसे धनगर नेताओं को भी आगे किया. हालांकि, आदिवासी नेता वर्गीकरण को नए सिरे से परिभाषित करने का विरोध कर रहे हैं और इसमें भाजपा के गढ़ माने जाने वाले विदर्भ के नेता भी शामिल हैं.
अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित चार लोकसभा सीटों में से तीन नंदुरबार, गढ़चिरौली और डिंडोरी भगवा पार्टी के कब्जे में हैं. वहीं, पालघर का प्रतिनिधित्व शिवसेना का शिंदे गुट करता है. इसी तरह विधानसभा की 25 एसटी सीटों पर भाजपा मजबूत स्थिति में है. पिछले कुछ वर्षों में आदिवासी बहुल क्षेत्रों में संघ के सहयोगी संगठनों वनवासी कल्याण आश्रम और विश्व हिंदू परिषद की पैठ बढ़ी है, जिसका भाजपा को सियासी लाभ भी मिला है.
किसी जनजातीय समूह की पहचान के मानदंड बेहद कड़े हैं. पहले तो राज्य के जनजातीय अनुसंधान एवं प्रशिक्षण संस्थान (टीआरटीआइ) जैसे विशेषज्ञ निकाय की तरफ से अध्ययन किया जाता है, फिर इसके आधार पर सिफारिशों को जनजातीय विकास मंत्री और जनजातीय सलाहकार परिषद (टीएसी) के अधीन उप-समिति को भेजा जाता है. इसके बाद राज्य कैबिनेट सिफारिशों को मंजूरी देती है और इन्हें केंद्र सरकार को भेज देती है. इस पर भारत के रजिस्ट्रार जनरल और जनगणना आयुक्त तथा राष्ट्रीय अनुसूचित जनजाति आयोग की राय भी ली जाती है.
कांग्रेस नेता और पूर्व मंत्री पद्माकर वलवी की राय में, धनगर नेता अपनी जाति और धांगड़ आदिवासियों के बीच नाम की समानता का फायदा उठाना चाहते हैं. जनजातीय अधिकार संरक्षण समिति के प्रमुख वलवी कहते हैं, ''आदिवासी वैसे ही मुख्यधारा से बाहर हैं. अगर धनगर जितने बड़े समुदाय को इसमें शामिल किया गया तो उनकी स्थिति और खराब हो जाएगी.'' वलवी कहते हैं कि आदिवासियों के तौर पर वर्गीकरण के लिए समुदाय का कुछ मानदंडों पर खरा उतरना जरूरी है. मिसाल के तौर पर, आदिवासी शहरी और ग्रामीण दोनों तरह की बस्तियों से दूर रहते हैं, वे जीववाद में आस्था रखते हैं और वाघदेव (बाघ देवता) जैसे विशिष्ट देवताओं के उपासक होने के अलावा पेड़ों, मिट्टी और अनाज की पूजा करते हैं. अपने धार्मिक अनुष्ठानों में वे महुआ से बनी शराब इस्तेमाल करते हैं और उनकी अपनी बोलियां हैं, जैसे भीली या भिलोरी (भील जाति की), पावरा और कोकणी.
वलवी का कहना है कि एसटी कोटे के जरिए राज्य और केंद्र सरकार की नौकरियों में ज्यादा हिस्सेदारी हासिल करने की धनगर समुदाय की महत्वाकांक्षा की वजह से ही इस तरह की मांग तेज हुई है. वे कहते हैं, ''वे (धनगर नेता) भी एसटी के लिए आरक्षित सीटों से निर्वाचित होना चाहते हैं. यही नहीं, इस श्रेणी में शामिल होने से उनके लिए राष्ट्रीय राजमार्गों और बांधों से सटे इलाकों में आदिवासियों के कब्जे वाली प्राइम लैंड खरीदना आसान हो जाएगा.''
आदिवासी नेता और नंदुरबार जिला परिषद के उपाध्यक्ष सुहास नाइक का कहना है कि वे एक अभियान चलाएंगे जिसमें यह बात उजागर की जाएगी कि भाजपा कैसे 'आदिवासी विरोधी' है. उन्होंने कहा, ''जब तक आदिवासियों को इसका एहसास नहीं होगा, तब तक ऐसे प्रयास (एसटी श्रेणी में शामिल होने) जारी रहेंगे.'' उन्होंने कहा कि ऐसे कदम आदिवासियों को उनके संवैधानिक अधिकारों से वंचित कर देंगे.
हालांकि, पूर्व विधायक और धनगर नेता प्रकाश शेंडगे अपनी मांग को जायज ठहराते हैं. उनका कहना है, ''धनगर मध्य प्रांतों और बेरार क्षेत्र में आदिवासियों में गिने जाते थे. लेकिन स्थानीय भाषा में अंग्रेजी के 'आर' को बदलकर 'डी' कर दिया गया. यह भाषा की समस्या है जिसने धनगरों को आदिवासी दर्जे से वंचित कर दिया है क्योंकि एसटी सूची में उन्हें धांगड़ कहा गया है.'' शेंडगे का मानना है कि स्थापित राजनेता आदिवासी कल्याण की आड़ में मांग का विरोध कर रहे हैं. उनका दावा है, ''धनगरों को अगर एसटी श्रेणी में शामिल किया जाता है, तो बारामती जैसी विधानसभा सीटें उनके लिए आरक्षित हो जाएंगी और इससे स्थापित राजनेताओं के सियासी साम्राज्य हिल जाएंगे.'' बारामती पवार परिवार का गढ़ रहा है, और उनकी राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (एनसीपी) अब दो गुटों में बंट चुकी है. एक की अगुआई शरद पवार, तो दूसरे खेमे का नेतृत्व उनके भतीजे और डिप्टी सीएम अजीत पवार करते हैं. शेंडगे के मुताबिक, धनगरों की आबादी करीब 1.5 करोड़ है और वह 78 विधानसभा क्षेत्रों में निर्णायक भूमिका निभाते हैं.
एक्टिविस्ट डॉ. स्नेहा सोनकाटे का कहना है कि पशुपालक आदिवासियों की तरह रहते हैं और उनकी मांग है कि एक सरकारी प्रस्ताव (जीआर) जारी करके कहा जाए कि धनगर और धांगड़ एक ही हैं. वह कहती हैं कि महाराष्ट्र में इतनी बड़ी संख्या के बावजूद धनगर समुदाय से सिर्फ एक विधायक है, जबकि मराठों के मामले में यह संख्या 105 है. सोनकाटे जोर देती हैं, ''आरक्षण का मतलब होता है सामाजिक अन्याय को दूर करना.'' लेखक और एक्टिविस्ट संजय सोनवानी ने यह बताने के लिए पी.के. मोहंती के लिखे एनसाइक्लोपीडिया ऑफ शेड्यूल्ड ट्राइब्स का हवाला दिया कि धनगरों की हालत आदिवासियों से भी बदतर है. उनका सवाल है कि धनगरों को आदिवासी के बजाए ओबीसी श्रेणी में कैसे रखा जा सकता है जबकि पारंपरिक तौर पर वे ग्रामीण बसावट से बाहर जीवनयापन करते हैं.
धनगर कौन हैं?
2011 की जनगणना में महाराष्ट्र में एसटी आबादी लगभग 9.35 फीसद आंकी गई, जिसमें भील, गोंड, महादेव कोली, पावरा, ठाकर और वरली जैसी 48 जनजातियां शामिल थीं. कातकरी, कोलम और माडिया गोंड को आदिम जनजातीय समूहों के तौर पर वर्गीकृत किया गया.
- धनगर महाराष्ट्र के मूल ग्रामीण निवासियों के वंशज होने का दावा करते हैं
- ब्रिटिश प्रशासक आर.ई. एंथोवेन की ट्राइब्स ऐंड कास्ट्स ऑफ बॉम्बे को भारतीय नृवंशविज्ञान सर्वेक्षण का एक हिस्सा बनाया गया था, जिसमें कहा गया है कि दक्कन और कोंकण में धनगरों ने अपना मूल आदिवासी स्वरूप खो दिया और अलग-अलग नस्लों के समूहों में विभाजित हो गए जो भेड़-पालक थे
- कोल्हापुर के मराठा (क्षत्रिय) राजा छत्रपति शाहू ने अपनी चचेरी बहन की शादी इंदौर के युवराज यशवंतराव होल्कर से की थी. होल्कर धनगर जाति से ताल्लुक रखते थे
- हालांकि, छत्रपति शाहू के धार्मिक सलाहकार गुंडोपंत पिश्वीकर (धर्माधिकारी) ने उन्हें लिखकर भेजा था कि उन्होंने होल्करों की वंशावली की जांच की है, जिसमें दावा किया गया था कि वे राठौड़ क्षत्रिय हैं. यह विवाह 1924 में हुआ
- महाराष्ट्र सरकार ने मई में इंदौर की योद्धा-रानी अहिल्यादेवी होल्कर के नाम पर अहमदनगर जिले का नाम बदलकर अहिल्यानगर करने की मांग मंजूर कर ली थी.