तीसरे दांव में राव की मुश्किलें

बीआरएस प्रमुख का 2024 में विपक्षी गठबंधन का नेतृत्व करने का सपना धूमिल होने लगा. अब वे सियासी मैदान में अलग-थलग पड़ते नजर आ रहे. अब तो सवाल है कि वे तेलंगाना का अपना किला भी बचाए रख पाएंगे या नहीं?

संगारेड्डी जिले में 22 जून को आवास योजना की एक लाभार्थी के साथ मुख्यमंत्री केसीआर
संगारेड्डी जिले में 22 जून को आवास योजना की एक लाभार्थी के साथ मुख्यमंत्री केसीआर

भारत राष्ट्र समिति (बीआरएस) सुप्रीमो और तेलंगाना के मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव के लिए मुश्किलें लगातार बढ़ती जा रही हैं. केसीआर नाम से चर्चित बीआरएस प्रमुख अब खुद को सियासी तौर पर घिरा पा रहे हैं. पड़ोसी राज्य महाराष्ट्र के कुछ किसान नेताओं को छोड़ दें तो उनकी राष्ट्रीय महत्वाकांक्षाओं को सिरे चढ़ाने वाला कोई खेवनहार दूर-दूर तक दिखाई नहीं दे रहा. अगर उनके अपने राज्य की बात की जाए तो साल के अंत में प्रस्तावित तेलंगाना विधानसभा चुनाव में लगातार तीसरी बार जीत के इरादे के साथ मैदान में उतरने वाले केसीआर को सत्ता-विरोधी लहर से जूझना होगा.

केसीआर ने पिछले करीब दो साल में अपनी पार्टी को राष्ट्रीय स्तर पर भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) और कांग्रेस के विकल्प के तौर पर खड़ा करने की हरसंभव कोशिश की. यहां तक कि पिछले साल पार्टी का नाम ही तेलंगाना राष्ट्र समिति से बदलकर भारत राष्ट्र समिति कर दिया. वे चाहते थे कि एक महागठबंधन बनाकर 2024 में उसका नेतृत्व कर सकें लेकिन उनकी कवायद किसी को ज्यादा रास नहीं आई और आखिरकर बीआरएस प्रमुख अलग-थलग पड़ गए. दूसरी तरफ, कांग्रेस और भाजपा ने उनके कैबिनेट सहयोगियों और तेलंगाना में पार्टी के कुछ अन्य नेताओं के खिलाफ भ्रष्टाचार के आरोप लगाकर उनकी मुश्किलें बढ़ा दी हैं.

कुछ बीआरएस विधायकों पर महत्वाकांक्षी दलित बंधु और 2बीएचके आवास योजनाओं सहित कई कल्याणकारी कार्यक्रमों के लाभार्थियों से 'कट मनी’ लेने के आरोप लग रहे हैं. आरोप इस कदर गंभीर हैं कि केसीआर को 27 अप्रैल में पार्टी के पूर्ण अधिवेशन के दौरान उन्हें बर्खास्तगी का सामना करने को तैयार रहने के लिए आगाह करने पर बाध्य होना पड़ा. विपक्ष इस मुद्दे को हवा न दे पाए इसलिए केसीआर सरकार ने यह भी पक्का किया कि नवनियुक्त राज्य भाजपा प्रमुख जी. किशन रेड्डी 20 जुलाई को राजधानी हैदराबाद के बाहरी इलाके में अधूरे पड़े 2बीएचके अपार्टमेंट की साइट तक न पहुंच पाएं. दिल्ली से आए रेड्डी को प्रतिनिधिमंडल का नेतृत्व करने से रोकने के लिए पुलिस ने एयरपोर्ट के पास ही एक मुख्य सड़क पर रोक दिया. रेड्डी विरोध में वहीं धरने पर बैठ गए.

रेड्डी ने अगले दिन तेलंगाना भाजपा अध्यक्ष के तौर पर पद संभालने के मौके पर कहा, ''केसीआर प्रगति भवन (अपने आधिकारिक निवास और मुख्य कार्यालय) में बैठे हैं और विपक्ष की आवाज दबा रहे हैं.’’ साथ ही उन्होंने चेताया, ''हम भ्रष्टाचार में डूबी इस सरकार को गिराकर रहेंगे.’’ पड़ोसी राज्य कर्नाटक में विधानसभा चुनाव में लगे झटके के बाद भाजपा को यह महसूस होने लगा है कि अगर केसीआर को कोई गंभीर चुनौती देनी है तो उसे केसीआर की नाकामियों को लेकर बेहद आक्रामक तेवर अपनाने होंगे. भाजपा जहां आक्रामक ढंग से हमलावर है, वहीं कर्नाटक में जीत ने दूसरे विपक्षी दल कांग्रेस में भी नई ऊर्जा भर दी है. बीआरएस में गहराते आंतरिक मतभेद पार्टी की मुश्किल बढ़ा रहे हैं.

इसके अलावा, केसीआर के लिए सही उम्मीदवार चुनना भी एक बड़ी चुनौती बना हुआ है. वे उन्हीं प्रत्याशियों को मैदान में उतारना चाहते हैं जो फंडिंग कर सकते हों और अपना अभियान खुद चला सकें. बीआरएस प्रमुख खुद पेड्डापल्ली निर्वाचन क्षेत्र से उतरने का मन बना रहे हैं क्योंकि गजवेल में भारी जीत को लेकर पूरी तरह आश्वस्त नहीं हैं. उन्होंने 2018 में इस सीट पर करीब 60,000 वोटों से जीत दर्ज की थी.
119 विधानसभा क्षेत्रों की कम से कम 25 सीटें ऐसी हैं, जहां 2018 में बीआरएस उम्मीदवार चुनाव अभियानों पर भारी-भरकम रकम खर्च करने के बावजूद हारे थे. अब वे चाहते हैं कि पार्टी उन्हें एक और मौका दे. लेकिन कई जगह कांग्रेस छोड़कर आए नेता उन पर भारी पड़ते जा रहे हैं. कांग्रेस के इन दलबदलुओं ने बीआरएस में आने से पहले 2018 में इन्हीं उम्मीदवारों को हराया था.

हालांकि केसीआर ने पिछले चुनाव में 119 में से 88 सीटें जीतकर स्पष्ट बहुमत हासिल कर लिया था, फिर भी अपने प्रमुख प्रतिद्वंद्वी दल को और कमजोर करने के लिए उन्होंने कांग्रेस के टिकट पर निर्वाचित 18 में से 12 विधायकों को पार्टी में शामिल कर लिया था. आंतरिक सर्वेक्षण बताते हैं कि कांग्रेस के 12 दलबदलुओं की स्वीकार्यता संबंधी रेटिंग 'असंतोषजनक’ है. और पार्टी के निष्ठावान सदस्यों की जगह इन दलबदलुओं को मौका देने से आंतरिक मतभेद और बढ़ेंगे.

करीब 15 अन्य क्षेत्रों में पार्टी विधायकों को युवा पीढ़ी के नेताओं से चुनौती मिल रही है. मसलन, जगतियाल के जिला परिषद के अध्यक्ष दावा वसंत इस सीट से बीआरएस का टिकट चाहते हैं, जिस पर अभी पार्टी विधायक एम. संजय कुमार काबिज हैं. वहीं, कोठागुडेम जिला परिषद के अध्यक्ष कोराम कनकैया पहले ही पार्टी छोड़ चुके हैं और येलांडु सीट से कांग्रेस का टिकट पाने की कोशिश में लगे हैं. कई अन्य निर्वाचन क्षेत्रों में भी इस तरह की स्थितियां उत्पन्न होना चिंता बढ़ा रहा है. इसे देखते हुए केसीआर ने दोनों संतानों—बेटे और कैबिनेट मंत्री के.टी. रामाराव और बेटी कविता—को गुटबाजी रोकने का जिम्मा सौंपा है.

बीआरएस खासकर इसे लेकर बेहद सतर्कता बरत रही है कि कहीं सत्तारूढ़ पार्टी के बागी कांग्रेस का दामन थामकर विपक्षी दल को मजबूत न कर दें. पार्टी के पूर्व सांसद और अब तेलंगाना योजना बोर्ड के उपाध्यक्ष बी. विनोद कुमार का मानना है, ''कांग्रेस ही हमारी मुख्य प्रतिद्वंद्वी है.’’ जहां तक भाजपा की बात है तो उनकी नजर में यह सब 'हवाबाजी’ है. उनका कहना है कि भगवा पार्टी के पास '10 से ज्यादा सीटों पर मैदान में उतरने के लिए अच्छे और नामी चेहरे तक नहीं हैं.’ बीआरएस के टिकट चाहने वाले कुछ दावेदारों को यह डर भी सता रहा है कि अगर केसीआर ने वामदलों के साथ सीट-बंटवारे का समझौता कर लिया तो कुछ सीटें भाकपा और माकपा उम्मीदवारों के खाते में भी जा सकती हैं. कम्युनिस्टों की नजर खम्मम, करीमनगर और नलगोंडा क्षेत्रों की करीब 10 सीटों पर टिकी है. हालांकि, अभी केसीआर ने माकपा को सिर्फ एक सीट देने की पेशकश की है.

अन्य आठ निर्वाचन क्षेत्रों में बीआरएस का पिछले चुनाव की तरह ही असदुद्दीन ओवैसी की ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुसलमीन (एआइएमआइएम) के साथ 'मैत्रीपूर्ण’ मुकाबला होगा. कुल मिलाकर देखा जाए तो 119 सीटों में से आधे से अधिक पर केसीआर को अनिश्चितता का सामना करना पड़ रहा है. ऐसी चुनौतियों से उबरने के लिए वे कांग्रेस के दिग्गजों को पाले में लाने पर दांव लगा रहे हैं. इसकी शुरुआत उन्होंने भोंगिर जिला कांग्रेस प्रमुख के. अनिल रेड्डी के साथ शुरू की है, जिन्होंने 24 जुलाई को पार्टी का दामन थामा. 

टिकट बंटवारे पर केसीआर भले तमाम दुविधाओं से जूझ रहे हों लेकिन उन्हें उम्मीद है कि नई चुनावी सौगातों के बलबूते वे सत्ता विरोधी लहर को नाकाम कर देंगे, जो उनके समर्थकों की नजर में बीआरएस सुप्रीमो का 'ब्रह्मास्त्र’ है.

इनमें अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी), मुसलमानों और गरीब ईसाई परिवारों को एकमुश्त 1 लाख रुपए का अनुदान जैसी योजनाएं शामिल हैं. फिर, आरोग्यश्री स्वास्थ्य योजना के तहत बीमा कवर 2 लाख रुपए से बढ़ाकर 5 लाख रुपए करने और 10 साल के लिए वैध डिजिटल कार्ड पेश करने की भी तैयारी है. वरिष्ठ नागरिकों और विधवाओं के लिए आसरा पेंशन को 2,016 रुपए से बढ़ाकर 3,016 रुपए किया जाना है. इनकी और अन्य सौगातों की घोषणा पार्टी के घोषणापत्र के साथ की जाएगी, जिसे अगस्त में उम्मीदवारों की पहली सूची के साथ जारी किया जाना है.

लेकिन हर कोई इससे प्रभावित नहीं. कांग्रेस के पूर्व सिंचाई मंत्री पोन्नला लक्ष्मैया कहते हैं, ''तथ्यों की हेराफेरी करने में माहिर होना केसीआर को नई योजनाओं की घोषणा करने में सक्षम बनाता है. जबकि वे मौजूदा योजनाएं लागू करने में विफल रहे हैं.’’ उन पर इस तरह के आरोप  लगने की वजहें भी हैं.

बीआरएस सरकार विभिन्न कल्याणकारी योजनाओं पर प्रतिवर्ष 90,000 करोड़ रु. खर्च करती हैं. लेकिन राज्य की बकाया देनदारियां, खासकर उधार की रकम, पिछले पांच वर्षों में लगभग दोगुनी हो गई है. नतीजतन, उसे भुगतान रोकने पर मजबूर होना पड़ा है. दलित बंधु योजना—जिसे 2021 में लॉन्च किया गया था और हुजूराबाद विधानसभा क्षेत्र में 1,100 अनुसूचित जाति परिवारों को व्यवसाय शुरू करने के लिए 10-10 लाख रुपए दिए गए थे—को राज्य भर में 1,30,000 लाभार्थियों तक पहुंचाया जाना था. चार महीने बाद भी वे वादे के मुताबिक लाभ का इंतजार कर रहे हैं.

हैदराबाद स्थित एनएएलएसएआर यूनिवर्सिटी ऑफ लॉ में राजनीति विज्ञान पढ़ाने वाले हरथी वागीशान के मुताबिक, ''सत्ता विरोधी लहर बीआरएस के लिए एक बड़ी चुनौती है. बेरोजगार युवाओं और सरकारी कर्मचारियों जैसे विभिन्न समूहों में निराशा बढ़ रही है. यह उनकी पार्टी के लिए हानिकारक साबित हो सकता है.’’ वे शासन-संबंधी मुद्दों को भी रेखांकित करते हैं, जैसे धरणी पर ठीक से अमल न होना, इलेक्ट्रॉनिक राजस्व रिकॉर्ड पोर्टल और तेलंगाना राज्य सड़क परिवहन निगम में कुप्रबंधन. विपक्ष विधानसभा चुनाव से पहले केसीआर सरकार को घेरने के लिए इन मुद्दों को जोरशोर से उठा सकता है.

बहरहाल, अपनी ताकत बढ़ाने की कवायद में जुटी बीआरएस वोट बंटने से बचने के तरीकों पर मंथन के लिए अपने ओबीसी नेताओं के साथ बैठकों की तैयारी कर रहा है. राज्य की कुल आबादी में ओबीसी की हिस्सेदारी 50 फीसद से कुछ ज्यादा ही है. हैदराबाद यूनिवर्सिटी के राजनीति विज्ञान विभाग से जुड़े ई. वेंकटेसु का कहना है, ''चुनाव बीआरएस और कांग्रेस के बीच सीधा मुकाबला बनता जा रहा है. लाख टके का सवाल यह है कि क्या कांग्रेस के जाति जनगणना और उन्हें (आनुपातिक) प्रतिनिधित्व देने के वादे के आगे ओबीसी बीआरएस की कल्याणकारी योजनाओं को नजरअंदाज कर देंगे?’’ उनका कहना है कि बीआरएस को इस चुनौती से निबटने के लिए टिकट बंटवारे के दौरान जातिगत समीकरणों पर खास ध्यान देना होगा. ऐसा लगता है कि राष्ट्र और राज्य के बीच फंसे केसीआर को सियासी मोर्चे पर अपनी मजबूती के लिए सीमित समय में बहुत कुछ करना होगा.

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