बस बदनाम ही रहेगा लौंडा?
बिहार सरकार ने लौंडा नाच और इसके कलाकारों को बढ़ावा देने के लिए पटना में एक महोत्सव का आयोजन तो किया लेकिन वह इसको लेकर सहज नहीं दिखती. आखिर क्यों?

पुष्यमित्र
पिछले दिनों (15-16 मार्च को) बिहार की राजधानी पटना में एक अनूठा लोक नाच महोत्सव हुआ. इस महोत्सव में भाग लेने वाले सभी नर्तक स्त्रियों का भेस रच कर नाचने वाले पुरुष थे. इनमें ज्यादातर पारंपरिक कलाकार थे, जो सदियों से अपने समाज में इस तरह का नृत्य करते रहे हैं और जिन्हें लोग नटुआ या लौंडा कहते हैं.
अमूमन समाज में इन कलाकारों को अच्छी नजर से नहीं देखा जाता. इसलिए जब सरकारी मदद से पहली दफा लौंडा नाच महोत्सव हुआ तो सहज ही लोगों का ध्यान उधर चला गया. खासतौर पर लौंडा नाच कलाकारों को लगा कि इस आयोजन से समाज में उनका सम्मान बढ़ेगा.
इस साल बिहार दिवस पर एक लौंडा नर्तक उदय के जीवन पर बनी फिल्म द लिपस्टिक बॉय का प्रीमियर भी बिहार सरकार ने कराया, इस वजह से भी कलाकार काफी उत्साहित थे. मगर महोत्सव में पहुंचे दर्शक और कलाकार उस वक्त चौंक गए, जब उन्हें पता चला कि सरकारी महोत्सव होने के बावजूद सरकार का कोई नुमाइंदा उनकी हौसला अफजाई के लिए इस आयोजन में नहीं पहुंचा. इसके अलावा महोत्सव के नाम को भी लौंडा नाच से बदलकर राष्ट्रीय लोक नाच महोत्सव कर दिया गया था.
महोत्सव के प्रचार-प्रसार के लिए जो पोस्टर बने थे, उनमें आयोजन का नाम राष्ट्रीय लौंडा नाच महोत्सव ही रखा गया था. मगर 15 मार्च को जिस रोज महोत्सव का उद्घाटन होना था, आयोजन स्थल प्रेमचंद रंगशाला में नए पोस्टर लग गए, जिन पर राष्ट्रीय लोक नाच महोत्सव, 2023 लिखा था. इस आयोजन के सूत्रधार लौंडा नाच कलाकार उदय का कहना था, ''शायद ट्रांसजेंडरों के एक समूह ने लौंडा शब्द पर आपत्ति जताई है, या जो भी वजह हो. जहां तक लौंडा नाच कलाकारों का सवाल है, हमें इस नाम को लेकर कोई आपत्ति नहीं है. हमें तो समाज इसी नाम से पुकारता है, अब यही हमारी पहचान है.’’
उस रोज सिर्फ इतना ही नहीं हुआ. महोत्सव का उद्घाटन शाम पांच बजे होना था. मगर उद्घाटन करने वाले मंत्री और अधिकारियों में से कोई नहीं आया. आयोजन के पोस्टर पर उद्घाटनकर्ता के रूप में कला संस्कृति विभाग के मंत्री जितेंद्र कुमार राय, सचिव वंदना प्रेयसी और अपर सचिव दीपक आनंद का नाम था.
जब शाम साढ़े सात बजे तक कोई नहीं आया तो मजबूरन बिहार संगीत नाटक अकादमी की सचिव सुषमा कुमारी से आयोजकों को समारोह का उद्घाटन कराना पड़ा. दूसरे दिन भी विभाग के मंत्री और सचिव स्तरीय अधिकारियों ने आयोजन से दूरी बनाए रखी. आयोजकों ने तो इस बारे में साफ-साफ नहीं कहा, मगर ऐसी चर्चाएं थीं कि लौंडा नाच की समाज में बदनामी की वजह से ही मंत्री और अधिकारी इस महोत्सव से बचते रहे. हालांकि कला-संस्कृति सचिव बंदना प्रेयसी ने कहा कि उन्होंने कभी औपचारिक रूप से इस आयोजन में आने की सहमति नहीं दी थी.
इस सबके बावजूद आयोजन के दोनों दिन लोगों की अच्छी भीड़ जुटी और लगभग सभी प्रस्तुतियों को दर्शकों की भरपूर सराहना मिली. मगर जब भी कलाकारों को अपनी बात रखने का मौका मिलता उनका यह दर्द छलक ही जाता था कि मंच पर तो उन्हें तालियां मिलती हैं, वहां से उतरकर बाहर निकलते ही गालियों और कटाक्ष का सिलसिला शुरू हो जाता है.
आयोजक उदय बताते हैं, ''इस आयोजन में बिहार के भोजपुर, बक्सर, सीवान, सारण और बेगूसराय जिले की आठ टीमें ऐसी थीं जो पारंपरिक रूप से अपने इलाके में लौंडा नाच किया करती हैं. इनमें से ज्यादातर कलाकार बूढ़े हो गए हैं. मगर ऐसे कलाकारों को पहली दफा मंच मिला. पहली बार इन कलाकारों को लगा कि इन्हें प्रतिष्ठा मिली. इसके अलावा तीन नाट्य समूह थे. एक रंग समूह पटना का, एक बलिया का और एक आजमगढ़ का.
ये समूह लौंडा नाच की शैली को अपनाकर सांस्कृतिक प्रस्तुतियां दिया करते हैं. इनके अलावा मुंबई से बॉलीवुड कलाकार मनोज पटेल भी आए थे.’’ मनोज लौंडा नाच के मसले पर बनी फिल्म द लिपस्टिक बॉय में मुख्य कलाकार की भूमिका में हैं. यह फिल्म इस महोत्सव के सूत्रधार लौंडा नाच कलाकार उदय के जीवन और संघर्ष पर बनी है और इस साल बिहार दिवस के मौके पर पटना में उसका प्रीमियर भी हुआ.
द लिपस्टिक बॉय के निर्माता दीपक सावंत और निकुंज शेखर हैं. इसके निर्देशक अभिनव ठाकुर हैं. निर्माता निकुंज शेखर बताते हैं, ''यह फिल्म उदय जी के जीवन पर बनी है. इसमें हमने यह दिखाने की कोशिश की है कि एक लौंडा नाच कलाकार के जीवन में कितने संघर्ष होते हैं. उपलब्धि पाते-पाते उसे काफी वक्त लग जाता है और इस दौरान कलाकार खुद ही कहीं खो जाता है. यह फिल्म क्लास ऑडिएंस के लिए है. फिल्म अमिताभ बच्चन की आवाज और उनकी उपस्थिति से शुरू होती है.’’
फिल्म कलाकार के रूप में पॉपुलर होने की वजह से मनोज पटेल की दोनों प्रस्तुतियों को खूब सराहना मिली और दूसरे दिन जब उनसे मंच से बोलने को कहा गया तो वे भी बहुत भावुक हो गए. उदय कहते हैं, ''यह भावुकता ही लौंडा नाच कलाकारों के जीवन का हिस्सा है.’’
लौंडा नाच और उसकी बदनामी
लौंडा शब्द बिहार के समाज में सहज स्वीकार्य नहीं है. यही इस नाच परंपरा की बदनामी की असल वजह है और शायद इसलिए ही सरकार ने इस महोत्सव का नाम बदल दिया. प्रेयसी कहती हैं, ''यह उचित नाम है भी नहीं. दरअसल इस आयोजन को शुरू करने की हमारी प्रेरणा भिखारी ठाकुर के समूह के कलाकार रामचंद्र मांझी थे, जिन्हें 2021 में भारत सरकार ने पद्मश्री अवार्ड दिया. मगर मैं मानती हूं कि उनकी नृत्य शैली का नाम बिदेसिया था. लौंडा नाच नहीं. लौंडा शब्द सभ्य समाज के अनुकूल नहीं है.’’
हालांकि यह सिर्फ सरकारी पक्ष नहीं था. आधुनिक रंगमंच पर बिदेसिया नाटक को देश भर में ले जाने वाले जाने-माने नाट्य निर्देशक संजय उपाध्याय भी अलग वजहों से लौंडा शब्द से असहमत दिखते हैं. वे कहते हैं, ''यह एक सामंती शब्द है, जिसे जमींदारों ने इन लोक नर्तकों की पहचान को पुल्लिंग तक सीमित कर देने के लिए रचा है.’’
उपाध्याय आगे बताते हैं, ''दरअसल स्त्री का भेस रचकर नृत्य करने की परंपरा आज की नहीं है. यह संभवत: चैतन्य महाप्रभु के वक्त से शुरू हुई है, जब कृष्ण प्रेम में वे और उनके अनुयायी खुद को स्त्री समझने लगते थे. बिहार में विदापत नाच समेत कई लोक नाच शैलियां हैं. जिनमें पुरुष स्त्री की भूमिका निभाते हैं. मगर उन नाच शैलियों का कंटेंट अलग है. उनमें सामाजिक मसले उठाए जाते हैं. आज तो जो लौंडा नाच है, वह महज आइटम सांग बनकर रह गया है.’’
बिहार की लोककलाओं पर अच्छी पकड़ रखने वाले निराला बिदेसिया इस परंपरा को शिव और विष्णु तक ले जाते हैं और कहते हैं कि कृष्ण ने तो अपने जीवन में कई दफा स्त्री रूप धरा. उनके शब्दों में, ''दरअसल लौंडा नाच की जो परंपरा है, वह एक तरह का विद्रोह भी है. क्योंकि उस जमाने में जितनी अच्छी नर्तकियां थीं, वे राजाओं और जमींदारों की महफिलों के लिए रिजर्व थीं. ऐसे में लोक को ऐसे स्त्री बनने वाले पुरुषों से ही काम चलाना पड़ता था.’’
हालांकि बिहार की लोक संस्कृति पर शोध करने वाले जेएनयू के कला और सौंदर्यशास्त्र संस्थान में असिस्टेंट प्रोफेसर ब्रह्म प्रकाश इन विचारों से असहमत दिखते हैं. उनका निष्कर्ष है, ''लौंडा नाच दरअसल वॄकग क्लास का नृत्य है. पूरे देश में वर्किंग क्लास के ऐसे नृत्य हर जगह हैं. इनमें भदेसपन है और अक्सर सरकारी सहायता पाने की कोशिश में इनका नाम बदला जाता है और इन्हें शास्त्रीय स्वरूप देने की कोशिश की जाती है. मगर यह ठीक नहीं. लौंडा नाच की अपनी पहचान है, कंटेंट है. इन पर सवाल उठाना बेमतलब, बेमानी है.’’
लौंडा नाच पर मौजूदा खतरा सिर्फ बदनामी का नहीं है. गली-गली में खुल गई ऑर्केस्ट्रा कंपनियां भी इन्हें चुनौती दे रही हैं. लौंडा नाच समूहों की आजीविका विवाह, मुंडन और दूसरे राजनैतिक-सामाजिक आयोजनों में किराए पर बुलाए जाने से चलती रही हैं. मगर अब ऑर्केस्ट्रा समूह बहुत कम दरों पर डांसर लड़कियों की सेवा उपलब्ध करा दे रहे हैं. ऐसे में लौंडा नर्तकों की मांग लगातार घट रही है.
बहरहाल अच्छी बात यह है कि बिहार सरकार ऐसे महोत्सव को आगे भी आयोजित करना चाहती है. हालांकि विभाग लौंडा नाच की भदेस संस्कृति और इसके नाम को लेकर अभी भी सहमत नहीं. यही वजह है कि कला-संस्कृति सचिव बंदना प्रेयसी कहती हैं, ''हम इसे सॉफेस्टिकेटेड और ऑर्गेनाइज तरीके से लगातार करना चाहते हैं. बस हम चाहते हैं कि यह थोड़ा-सा सभ्य समाज के अनुकूल हो जाए.’’
लौंडा नाच की लोकप्रियता इसके भदेसपन की वजह से है. यहीं से इसका नाम भी निकला है.नाम बदलने की सरकार की कोशिश इस कला की स्वीकार्यता बढ़ाने में कारगर तो साबित हो सकती है, लेकिन इस बदलाव को उस समाज तक पहुंचने में शायद बहुत लंबा अरसा लगे जिसने यह नाम ईजाद किया है.ठ्ठ
लौंडा नाच का भूत-वर्तमान
लौंडा नाच यानी पुरुष के स्त्री के भेस में नाचने की परंपरा काफी पुरानी है, यहां तक कि मिथकों में भी इसका खूब जिक्र मिलता है. खुद भगवान विष्णु ने भी मोहिनी का रूप धर कर नृत्य किया था. हालांकि जाने-माने नाट्य निर्देशक संजय उपाध्याय मानते हैं कि इस परंपरा की शुरुआत चैतन्य महाप्रभु के जमाने से हुई, जब कृष्ण भक्तों ने खुद को राधा और गोपी मानकर स्त्री रूप और भाव में नृत्य करना शुरू किया.
बिहार के इलाकों में परंपरा के रूप से ऐसे कई लोक नृत्य हैं, जिनमें पुरुष स्त्री की भूमिका निभाते हैं. इनमें विदापत नाच प्रमुख है. ऐसा माना जाता है कि बिहार में जब सामंती युग शुरू हुआ तो जमींदारों ने स्त्री का भेस रचकर नृत्य करने वाले पुरुषों को संरक्षण देना शुरू किया. वजह?
उस वक्त जो स्त्रियां महफिलों और कोठों में नाचती-गाती थीं, उनका प्रदर्शन अमूमन राजा और अत्यंत धनी लोगों तक ही सीमित रहता था. आजादी के बाद जमींदारी खत्म हुई तो लौंडा नाच करने वालों ने इसे आम जनों के लिए उपलब्ध किया और लोग अपने यहां के सामाजिक आयोजनों में उन्हें नाचने के लिए बुलाने लगे.