बांध से मिटेगा बिहार का शोक!

पटना हाइ कोर्ट के निर्देश के बाद सप्तकोसी हाइ डैम बनने की प्रक्रिया तेज होने की उम्मीद है, लेकिन यह परियोजना करीब आठ दशकों से अटकी क्यों रही और क्या यह स्थाई तौर पर उत्तरी बिहार को बाढ़ से निजात दिला सकती है?

कैसे बनेगा बांध : नेपाल के सोनाखंबी गांव के पास कोसी नदी, यहीं प्रस्तावित बांध का निर्माण होना है
कैसे बनेगा बांध : नेपाल के सोनाखंबी गांव के पास कोसी नदी, यहीं प्रस्तावित बांध का निर्माण होना है

पुष्यमित्र

''कहते हैं विष्णु के तीसरे अवतार बराह (वराह) ने पृथ्वी को सागर की लहरों से निकाला और अपने कंधे पर रख लिया था. इस कोशिश में उन पर इतना ताप चढ़ गया कि वे बेचैन हो गए. फिर उन्हें ठंडक कोसी और कोका नदी के संगम पर इसी जगह आकर मिली. यह हिंदुओं का बहुत फेमस मंदिर है. यहां दूर-दूर से बहुत लोग आते हैं. आपके इंडिया से भी आते हैं.'' नेपाल के बराहक्षेत्र मंदिर के पास प्रसाद बेचने और रूद्राक्ष से तरह-तरह की कलाकृतियां बनाने वाले नरबहादुर राई बड़े उत्साह से यह सब सुनाते हैं. मगर अगले ही पल उन्हें उदासी घेर लेती है. वे कहते हैं, ''लेकिन अब यहां कोसी पर हाइ डैम बन जाएगा. डैम बनने से अच्छा होगा कि नहीं, यह तो नहीं मालूम, लेकिन हमारा गांव डूब जाएगा. हमारी चार बीघा जमीन डूब जाएगी. अब जो हो. आप लोगों को बाढ़ से मुक्ति मिल जाए तो अच्छा ही है. बस हमको हमारे घर और जमीन के बदले सरकार कुछ दे दे. हमारा यही डिमांड है.''

नेपाली नागरिक नरबहादुर राई की यह बात सहज ही दिल को छू जाती है. अपनी तेज गति, भारी मात्रा में लाई गई गाद, भीषण बाढ़ और बार-बार रास्ता बदलने की प्रवृत्ति से सदियों से उत्तर-पूर्वी बिहार के इलाके के लोगों को चौंकाने और परेशान करने के लिए बदनाम कोसी नदी को काबू में करने से लिए कई दशकों से यह माना जाता है कि नेपाल के बराहक्षेत्र के पास एक ऊंचा बांध (हाइ डैम) बनाया जाना जरूरी है. मगर इस परियोजना का दूसरा सच यह भी है कि मौजूदा आकलन के हिसाब से इससे तकरीबन 190 वर्ग किमी भूमि के जलमग्न होने की संभावना है और इसकी वजह से 75 हजार से अधिक नेपाली लोगों को विस्थापित होना है.

बिहार के सुपौल जिले से सटे नेपाल के बराहक्षेत्र का भौगोलिक स्वरूप कुछ ऐसा है कि यहां तक आते-आते सड़कें खत्म हो जाती हैं. भारी मात्रा में गाद की वजह से बिहार में मटमैली दिखने वाली कोसी नदी का पानी बराहक्षेत्र में हरा नजर आता है. यहां पहाड़ों के बीच कलरव करती कोसी के आसपास का नजारा काफी मनोरम है. एक तरह से यह एक छिपा हुआ पर्यटन स्थल जैसा है. बराहक्षेत्र मंदिर से 1.6 किमी उत्तर की दिशा में, जहां संकरी खतरनाक पहाड़ी पगडंडियों से होकर जाया जा सकता है, या फिर तेज बहती पहाड़ी कोसी के रास्ते मोटर बोट के जरिए नदी की धारा पर उछलते-कूदते, वहां सोनाखंबी गांव के पास कोसी पर हाइ डैम बनने की बात चल रही है. और यह बात आज से नहीं तकरीबन 75 साल पहले से चल रही है. हालांकि इस मामले में सबसे ताजा हलचल पटना हाइ कोर्ट के 4 फरवरी के निर्देश के बाद हुई है, जिसमें उसने बाढ़ की आपदा से निबटने के लिए कोसी विकास प्राधिकरण बनाने और इसके जरिए हाइ डैम के निर्माण को गति देने की बात कही है.   

सबसे पहले 1937 में कोसी नदी पर बांध बनाने की संभावना तलाशने के लिए ब्रिटिश-भारत के प्रतिनिधि नेपाल गए थे. वहीं 1947 में भारत की अंतरिम सरकार के ऊर्जा मंत्री सी.एच. भाभा ने बराहक्षेत्र में 229 मीटर ऊंचे बांध निर्माण की घोषणा की थी. मगर पहले संभवत: आर्थिक वजहों से बांध नहीं बना और अस्थायी तौर पर भीमनगर पर बैराज बना लिया गया. बाद में जब यह समझ आया कि बैराज से कोसी की आपदाएं रोके नहीं रुक रहीं तो 1991 से फिर से कोसी पर हाइ डैम बनाने की द्विपक्षीय बातचीत शुरू हो गई, डीपीआर (डिटेल्ड प्रोजेक्ट रिपोर्ट) तैयार करने के लिए समझौता हुआ. 2004 से दोनों देशों के विशेषज्ञ मिलकर सप्तकोसी हाइ डैम (कोसी हाइ डैम का यह आधिकारिक नाम है) की संभावनाओं का हाइड्रोलॉजिकल अध्ययन भी कर रहे हैं. मगर इस परियोजना से प्रभावित होने वाले लोगों के विरोध की वजह से 19 साल बाद भी वह अध्ययन पूरा नहीं हो पाया है. 

यह जगह जहां सप्तकोसी हाइ डैम प्रस्तावित है, बराहक्षेत्र और त्रिवेणी संगम के बीच है. संगम में कोसी की तीन प्रमुख धाराएं अरुण कोसी, तमोर कोसी और सुन कोसी पहाड़ों से होकर आती हैं और आपस में मिल कर एक हो जाती हैं. अभी भी यह जगह काफी दुर्गम है. यदा-कदा कुछ स्थानीय लोग ही यहां से गुजरते हैं. बराहक्षेत्र मंदिर के पास से मोटर बोट के जरिए जब हम हाइडैम के निर्माण स्थल तक पहुंचे तो वहां हमें दोनों तरफ के पहाड़ों में अध्ययन के लिए ड्रिल किए गए छेद ही दिखाई दिए. स्थानीय विशेषज्ञ बताते हैं कि ऐसे 41 छेद पिछले कुछ वर्षों में यहां बांध की संभावनाओं का अध्ययन करने पहुंचे विशेषज्ञों ने किए हैं. और जब भी यहां ड्रिलिंग शुरू होती है, परियोजना से प्रभावित ग्रामीणों का विरोध प्रदर्शन शुरू हो जाता है.

2008-09 में तो प्रदर्शनकारियों ने यहां स्थित हाइ डैम के दफ्तर में तोड़-फोड़ भी की थी. इसके बाद 17 जनवरी, 2015 को सैकड़ों ग्रामीणों ने बराहक्षेत्र मंदिर के पास जमा होकर प्रदर्शन किया और मांग की कि ड्रिलिंग का काम तत्काल रोका जाए. दिसंबर 2017 में भी ड्रिलिंग टीम को लोगों ने भगा दिया था. इसके बाद ड्रिलिंग बंद करनी पड़ी. उसी साल जुलाई में लोगों ने ऐसे ही विरोध प्रदर्शन किए थे. हालांकि स्थानीय अधिकारी बताते हैं कि 2017 के बाद से लोगों ने बांध के विरोध में कोई बड़ा प्रदर्शन नहीं किया है.
 
परियोजना के ऑफिस में क्या चल रहा है

बराहक्षेत्र के पास स्थित सप्तकोसी हाइ डैम के परियोजना स्थल से तकरीबन 48 किमी दूर पूरब की दिशा में नेपाल का सबसे बड़ा औद्योगिक शहर विराटनगर है. यहां एक तिमंजिला भवन में सप्तकोसी हाइ डैम का अध्ययन करने के लिए बना जॉइंट प्रोजेक्ट ऑफिस संचालित होता है. 17 अगस्त, 2004 में स्थापित इस जॉइंट प्रोजेक्ट ऑफिस में शुरुआत में दोनों देशों के 32-32 एक्सपर्ट साथ बैठकर काम करते थे. इस वक्त नेपाली टीम में नौ लोग हैं और भारतीय टीम में सिर्फ तीन सदस्य. भारतीय टीम के तीन सदस्यों में से एक प्रोजेक्ट मैनेजर, एक इंजीनियर और एक अकाउंटेंट है. 

यह टीम इन दिनों सप्तकोसी हाइ डैम की ऊंचाई घटाने और ऊंचाई घटने पर परियोजना का नया स्वरूप क्या होगा, इसका आकलन करने में जुटी है. 23 सितंबर, 2022 को काठमांडू में हुई भारत-नेपाल की संयुक्त जल संसाधन कमिटी की नौवीं बैठक में सप्तकोसी हाइ डैम के मुद्दे पर दोनों देशों ने यह माना कि समुचित मुआवजा और पुनर्वास के मसले पर चल रहे स्थानीय प्रतिरोध की वजह से इस काम में अपेक्षित सफलता नहीं मिली है. मगर साथ ही यह भी तय हुआ कि बांध की ऊंचाई को घटाया जाए और उस हिसाब से नए तरीके से आकलन कर नई परियोजना रिपोर्ट सितंबर 2023 तक तैयार की जाए.

विराटनगर में जॉइंट प्रोजेक्ट ऑफिस के भारतीय दल के प्रोजेक्ट मैनेजर रामजीत वर्मा कहते हैं, ''अभी तक इस हाइ डैम की ऊंचाई भूतल से 269 मीटर तय की गई थी. इसी हिसाब से परियोजना के दूसरे कंपोनेंट तय थे. जैसे, विद्युत उत्पादन, सिंचाई क्षमता और डूब क्षेत्र आदि. अब इन तमाम चीजों का पुनर्निधारण होगा.'' पहले इस परियोजना से 3,300 मेगावाट बिजली उत्पादन का लक्ष्य तय किया गया था. दोनों देशों की 15.22 लाख हेक्टेयर जमीन की सिंचाई होनी थी और अपस्ट्रीम में 190 वर्ग किमी जमीन डूबने वाली थी. ये जानकारियां साझा करते हुए रामजीत वर्मा इशारा करते हैं कि बांध की ऊंचाई 232 मीटर तक आ सकती है और इसी अनुसार दूसरे कंपोनेंट में भी 35 फीसद तक की कमी हो सकती है.

वर्मा के मुताबिक, बांध की ऊंचाई घटाने का फैसला इसलिए किया गया क्योंकि कोसी नदी की सहायक नदियों पर नेपाल में कम से कम दस छोटी-बड़ी जलविद्युत परियोजनाओं पर काम चल रहा है. अगर सप्तकोसी हाइ डैम की ऊंचाई 269 मीटर रहती है तो ये परियोजनाएं जो डैम के ऊपर हैं, नदी के डूब क्षेत्र में आ सकती हैं. बहरहाल, नेपाल के इस सुझाव को मान लिया गया है. नेपाल सरकार के जलस्रोत मंत्रालय के संयुक्त सचिव मधु प्रकाश भेटुवाल भी इस बात को मानते हैं और बताते हैं, ''दोनों देश सप्तकोसी हाइ डैम की ऊंचाई लगभग 35 मीटर तक घटाने के लिए तैयार हैं. इससे हमें उम्मीद है कि परियोजना स्थल पर लोगों के विरोध में भी कमी आएगी, क्योंकि ऊंचाई घटने से डूब क्षेत्र भी 190 वर्ग किमी से घटकर सिर्फ 130 वर्ग किमी रह जाएगा.''

वे यह मानते हैं कि दोनों देशों के बीच 22 साल पहले 1991 में इस परियोजना के लिए समझौता हुआ था. दोनों देशों ने साथ मिलकर हाइड्रोलॉजिकल इन्वेस्टिगेशन का काम भी शुरू किया था. मगर स्थानीय स्तर पर लोगों ने ड्रिलिंग का विरोध किया, इसलिए अब तक काम पूरा नहीं हो पाया है. भेटुवाल के मुताबिक ''अब हम लोगों को इस परियोजना के लाभ और अपनी पुनर्वास और पुनर्स्थापन नीति के बारे में ठीक से बताएंगे तो लोग सहमत हो जाएंगे.''

वर्मा बताते हैं कि ड्रिलिंग का काम 30 से 40 फीसद तक पूरा हो गया है. अगर स्थानीय लोगों का विरोध न हुआ तो काम तेजी से आगे बढ़ेगा. अब सब कुछ सही रहा तो बांध कब तक तैयार हो जाएगा? इस सवाल पर वे मौन हो जाते हैं. काफी पूछने पर कहते हैं कि हम लोग सौभाग्यशाली होंगे अगर आपके और हमारे जीवनकाल में यह बांध तैयार हो जाए. वे अपनी बात को विस्तार देते हुए कहते हैं कि अभी सितंबर तक अगर यह रिपोर्ट तैयार हो गई तो फिर इसकी डीपीआर तैयार करने का काम शुरू होगा. इसमें दो से ढाई साल लग सकते हैं. इसके बाद दोनों देशों के बीच कॉस्ट और प्रोफिट शेयरिंग पर चर्चा होगी. फिर जिनकी जमीन बांध के डूब क्षेत्र में आ रही है और नहरों की वजह से अधिग्रहित की जाएगी उनसे जमीन लेने और मुआवजा देने का काम होगा. इस काम में भी चार से पांच साल लग सकते हैं. तब जाकर इस बांध का शिलान्यास होगा. वर्मा साफ नहीं बताते, मगर उनकी बातों से समझ आता है कि अगर दोनों मुल्कों के बीच सब कुछ सही तरीके से चला तो भी 22 से 25 साल तो लगेंगे ही. खास तौर पर यह देखते हुए कि भारत-नेपाल के बीच एक अन्य परियोजना पंचेश्वर डैम की डीपीआर 2003 में ही तैयार हो गया थी, मगर आज तक उस पर काम शुरू नहीं हो पाया है.
 
बांध का विरोध बिहार में भी

विराटनगर और बराहक्षेत्र से तकरीबन 320-325 किमी दूर बिहार की राजधानी पटना में 23-24 फरवरी को राज्य में कोसी नदी के किनारे और दोनों तटबंधों के बीच बसे लोग एकजुट होते हैं. कोसी नवनिर्माण मंच की अगुआई में इन लोगों ने कोसी पीपल्स कमिशन की एक रिपोर्ट तैयार की है, जिसे 24 फरवरी को नर्मदा बचाओ आंदोलन की नेता मेधा पाटेकर जारी करती हैं.

इस जुटान में सुपौल जिले के मन्नाटोला खोखनाहा के रामचंद्र यादव भी आए हैं. उनका गांव बिहार में कोसी नदी के दोनों तटबंधों के बीच है और नदी के कटाव की वजह से उनका घर सात बार इसकी धारा में विलीन हो चुका है. मगर वे इतनी परेशानी झेलने के बाद भी कोसी हाइ डैम के पक्ष में नजर नहीं आते. वे कहते हैं, ''कोसी में पानी आता है तो हमारे खेतों की मुफ्त में सिंचाई हो जाती है, उसके सिल्ट से हमारे खेत बिना खाद के उपजाऊ रहते हैं. इसलिए हमको कोसी का पानी भी चाहिए और गाद भी. बांध बनेगा तो हमारे इलाके में सिल्ट आना बंद हो जाएगा. हमें तो परेशानी कोसी की बाढ़ के अनियंत्रित होने से है, और इसकी वजह नदी के तटबंध हैं.'' 

इस आयोजन में जारी पीपल्स कमिशन की रिपोर्ट में सप्तकोसी हाइ डैम परियोजना का विरोध किया गया है और इसे उचित समाधान नहीं माना गया है. रिपोर्ट जारी करते हुए मेधा पाटकर कहती हैं, ''कोसी की ज्यादातर आपदाएं शासन निर्मित हैं. अगर कोसी के लोगों की समस्याओं पर सितंबर, 2023 तक ठोस कार्रवाई नहीं की गई तो कोसी अंचल के लोग पैदल चलकर राजधानी पटना पहुंचेंगे और वहां डेरा डाल देंगे. अगर कोसी पर बड़े बांध की बात हो रही है, तो यह विकास विरोधी है क्योंकि आज दुनिया भर में बड़े बांधों को सही विकल्प नहीं माना जा रहा. मैं वर्ल्ड कमिशन ऑन डैम की सदस्य रही हूं. हम लोगों ने ढाई साल तक कई देशों में जाकर बड़े बांधों का अध्ययन किया और पाया कि बड़े बांध सही विकल्प नहीं हैं. मगर आज भी राजनेता और सरकार बड़े बांधों की पैरवी करते हैं, क्योंकि यह वोट बैंक पॉलिसी का हिस्सा बन गया है. लोगों को बताया जाता है कि हम बड़े बांध बनाकर बाढ़ को रोक देंगे. मगर बड़े बांधों से बाढ़ नियंत्रण नहीं होता, उल्टा बाढ़ में बढ़ोतरी ही होती है.'' 

वहीं कोसी नदी का लंबे समय से अध्ययन करने वाले जानकार दिनेश कुमार मिश्र कहते हैं, ''जिस जगह बांध बनाए जाने का प्रस्ताव है, वहां से नीचे भी कोसी नदी का लगभग 14 हजार वर्ग किमी का जलग्रहण क्षेत्र है. ऐसे में बांध इस जलग्रहण क्षेत्र में आने वाली बाढ़ से कैसे बचाव करेगा. दूसरी बात किसी भी बांध का एक जीवन काल होता है. हिमालय में बनने वाले बांध का जीवन काल तो अत्यधिक सिल्ट की वजह से 37 से 40 साल ही होता है. फिर इसे कैसे स्थाई समाधान कह सकते हैं. जब यह बांध सिल्ट से भर जाएगा फिर क्या करेंगे.''

वहीं बिहार सरकार के जल संसाधन विभाग में संयुक्त सचिव रह चुके गजाजन मिश्र सवाल उठाते हैं, ''चीन में व्हांगहो नदी पर लगभग इसी तरह का बांध की परियोजना रिपोर्ट के निर्माण से लेकर उसको बनने तक लगभग 40 साल का समय लगा. अगर आज सप्तकोशी परियोजना पर काम शुरू हुआ तो उसे बनने में कम से कम इतना समय तो लगेगा. इस बीच के वक्त में बाढ़ नियंत्रण की क्या कोई योजना हमारे पास है?''

हालांकि बिहार के जल संसाधन मंत्री संजय कुमार झा इन सवालों को खारिज करते हैं. वे कहते हैं, ''अगर तत्परता से काम किया जाए तो बांध बहुत कम समय में बन सकता है और बांधों का जीवनकाल कम होने जैसे बातें भी सिर्फ कहने भर की होती हैं. कोसी बैराज के लिए भी कहा गया कि वह 25 साल ही चलेगा, लेकिन 60 साल से टिका है.'' वे यह भी दावा करते हैं कि यह हाइ डैम करोड़ों लोगों के जीवन को बेहतर बना देगा.

राज्य के बांध विरोधियों और सरकार के पक्ष को सुनकर लगता है कि बिहार का शोक कहलाने वाली कोसी पर जब तक यह परियोजना पूरी नहीं होती, लोगों की दुख-तकलीफें बनी रहेंगी लेकिन पूरी होने के बाद भी हो सकता है, एक बड़ा तबका इससे पीडि़त हो जाए. 

''दुनियाभर में बड़े बांधों को बाढ़ रोकने का सही विकल्प नहीं माना जाता. कोसी पर बनने वाला बांध भी विकास विरोधी ही है''
मेधा पाटकर, 
सामाजिक कार्यकर्ता

''अगर तत्परता से काम किया जाए तो कोसी हाइ डैम बहुत कम वक्त में बन जाएगा और इसका जीवनकाल क म होने की बात भी बेमतलब है''
संजय कुमार झा 
जल संसाधन मंत्री, बिहार

Read more!