जान बचाने वाली मशीनों को पड़े जान के लाले

एक ओर जहां वेंटिलेटर की आस में मरीज भटक रहे, वहीं कोरोना काल में अस्पतालों में लगाए गए सैकड़ों वेंटिलेटर शो-पीस बनकर रह गए हैं. संचालन के अभाव में खराब हो रही हैं जीवनरक्षक मशीनें

यूं ही पड़े हुए: गंभीर मरीजों के लिए वेंटिलेटर काफी जरूरी होते हैं. लेकिन बांदा के जिला अस्पताल समेत यूपी के कई अस्पतालों में ये बेकार पड़े हुए हैं
यूं ही पड़े हुए: गंभीर मरीजों के लिए वेंटिलेटर काफी जरूरी होते हैं. लेकिन बांदा के जिला अस्पताल समेत यूपी के कई अस्पतालों में ये बेकार पड़े हुए हैं

उत्तर प्रदेश के बांदा जिले की नरैनी तहसील के गुमानगंज गांव की 65 वर्षीया शकुंतला देवी कई वर्षों से सांस की गंभीर बीमारी क्रॉनिक ऑब्सट्रेक्टिीव पल्मोनरी डिजीज (सीओपीडी) से पीडि़त थीं. हर वर्ष ठंड बढ़ने पर इनकी बीमारी भी बढ़ जाती थी. इस बार भी ऐसा ही हुआ. जनवरी के पहले हफ्ते में जैसे ही सर्दी ने जोर पकड़ा, उनकी बीमारी ने घातक रूप ले लिया. 8 जनवरी की शाम से उन्हें सांस लेने में बहुत तकलीफ होने लगी. परिजन उन्हें स्थानीय सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र (सीएचसी) लेकर गए तो डॉक्टर ने उन्हें वेंटिलेटर की जरूरत बताकर दूसरे बड़े अस्पताल के लिए रेफर कर दिया. परिजन उन्हें बांदा मेडिकल कॉलेज लेकर पहुंचे, पर वहां वेंटिलेटर न होने की बात कहकर भर्ती नहीं किया गया. शकुंतला के बेटे रामराज ने बांदा के जिला अस्पताल में अपने फार्मासिस्ट मित्र से संपर्क किया तो पता चला कि वहां वेंटिलेटर तो हैं लेकिन वे चालू हालत में नहीं हैं. वेंटिलेटर का जुगाड़ न होने से शकुंतला की तबियत बिगड़ती जा रही थी. अंतत: रामराज ने पैसों का इंतजाम किया और मां को प्रयागराज के बारा इलाके में एक निजी अस्पताल के आइसीयू में भर्ती कराया. 12 दिन के इलाज के बाद शकुंतला अस्पताल से डिस्चार्ज हो गईं, पर परिवार पर डेढ़ लाख रुपए से ज्यादा का कर्ज चढ़ गया.

हरदोई के बिलग्राम निवासी एलआइसी एजेंट 52 वर्षीय राहुल वाजपेयी शकुंतला की तरह भाग्यशाली नहीं रहे. 23 जनवरी की रात वे शहर से अपने गांव लौट रहे थे कि उन्हें किसी गाड़ी ने पीछे से टक्कर मार दी. उनके सिर पर गंभीर चोट आई. स्थानीय निवासियों ने पुलिस और उनके परिजनों को सूचना दी. राहुल के परिजन उन्हें लेकर पास के निजी अस्पताल पहुंचे, पर वहां वेंटिलेटर युक्त आइसीयू न होने के कारण उन्हें लखनऊ रेफर कर दिया गया. परिजन लखनऊ के किंग जॉर्ज मेडिकल कॉलेज (केजीएमयू) के ट्रॉमा सेंटर पहुंचे. वहां मौजूद सभी वेंटिलेटर युक्त 78 बेड मरीजों से भरे हुए थे. राहुल से पहले पांच बेहद गंभीर मरीज वहां वेटिंग थे. संजय गांधी स्नातकोत्तर आयुर्विज्ञान संस्थान (एसजीपीजीआइ) समेत बलरामपुर और लोहिया अस्पताल में संपर्क करने पर भी निराशा हाथ लगी. निराश परिजनों ने राहुल को ठाकुरगंज के एक निजी अस्पताल के आइसीयू में भर्ती कराया जहां कुछ घंटों के इलाज के बाद उन्होंने दम तोड़ दिया. 

ये दोनों मामले महज बानगी हैं. यूपी के सरकारी अस्पतालों और मेडिकल कॉलेजों में वेंटिलेटर की आस में सैकड़ों मरीजों को भटकना पड़ रहा है. दूसरी ओर कोविड काल के दौरान पिछले तीन वर्षों में यूपी के अस्पतालों में सप्लाई किए गए 5,000 से अधि‍क वेंटिलेटर में एक चौथाई भी प्रयोग में नहीं लाए जा रहे हैं. लखनऊ में केजीएमयू के ट्रामा सेंटर को ही लें. यहां आइसीयू में कुल 78 वेंटिलेटर हैं. पल्मोनरी मेडिसिन, क्रिटिकल केयर समेत अन्य विभागों में कुल मिलाकर 250 वेंटिलेटर युक्त बेड हैं जो पूरी तरह से मरीजों से भरे हुए हैं.

नए मरीजों को वेंटिलेटर पाने के लिए तीन-चार दिन इंतजार करना पड़ रहा है. वहीं केजीएमयू के लाल बहादुर शास्त्री लिंब सेंटर के दूसरे तल पर बने कोविड वार्ड के स्टोर रूम में 40 से ज्यादा वेंटिलेटर ताले में बंद हैं. रायबरेली रोड पर स्थित एसजीपीजीआइ के अपेक्स ट्रामा सेंटर की स्थिति भी बहुत अच्छी नहीं है. इस पांच मंजिला इमारत में केवल 70 बेड पर मरीजों की भर्ती हो रही है जिनमें केवल 26 वेंटिलेटर युक्त हैं. वहीं, कोविड काल में 200 से अधिक मरीजों का इलाज इस ट्रामा सेंटर में हो रहा था और 100 से ज्यादा वेंटिलेटर मरीजों की जान बचाने में जुटे थे. इस वक्त यहां दूसरे तल पर स्थित वेंटिलेटर युक्त आइसीयू में ताला लगा हुआ है. पूरी बिल्डिंग में करीब 100 वेंटिलेटर बेकार पड़े हुए हैं. अपेक्स ट्रामा सेंटर के मेडिकल सुपरिटेंडेंट डॉ. हर्षवर्धन के अनुसार, सभी वेंटिलेटर को चलाने के लिए पीजीआइ के पास पर्याप्त स्टाफ नहीं हैं. 

दरअसल, कोविड का संक्रमण बढ़ने पर वर्ष 2021 में पीएम केयर फंड, विधायक एवं सांसद निधि, कंपनियों के कॉर्पोरेट सोशल रेस्पांसिबिलिटी (सीएसआर) फंड और अन्य लोगों से दान के जरिए सरकारी अस्पतालों और मेडिकल कॉलेजों में 5,000 से अधिक वेंटिलेटर मुहैया कराए गए थे. इनमें पीएम केयर फंड से चिकित्सा शि‍क्षा विभाग को 2,497 वेंटिलेटर मिले जिन्हें 33 मेडिकल कॉलेजों में लगाया गया था. इसके अलावा सरकारी अस्पतालों और डेडीकेटेड कोविड अस्पतालों में भी 2,500 से अधिक वेंटिलेटर लगाए गए थे. केंद्र सरकार के निर्देश पर 27 दिसंबर को जब सभी अस्पतालों में कोविड से जुड़े इंतजाम की जांच के लिए मॉकड्रिल का आयोजन हुआ तो पता चला कि प्रदेशभर में 3,000 से अधिक वेंटिलेटर बेकार पड़े हैं. गोंडा, आंबेडकरनगर, बहराइच, देवरिया जैसे जिलों में लगे वेंटिलेटर इस्तेमाल के बगैर खराब हो गए हैं (देखें ग्राफि‍क्स). मॉकड्रिल के दौरान गोंडा जिला अस्पताल में बने कोविड एल-1 अस्पताल में लगे 30 वेंटिलेटर में 27 नहीं चले. जांच में पता चला कि कोविड अस्पताल के लिए पीएम केयर से स्थापित 1,500 लीटर प्रति मिनट (एलपीएम) का ऑक्सीजन प्लांट पहले और दूसरे तल पर मौजूद वार्ड में पर्याप्त प्रेशर के साथ ऑक्सीजन नहीं पहुंचा पाया. कम प्रेशर के कारण भी वेंटिलेटर चलाने में दिक्कतें आईं. गोंडा जिला अस्पताल के प्रमुख चिकित्सा अधीक्षक डॉ. पी.डी. गुप्ता बताते हैं, ''वेंटिलेटर में कुछ गड़बड़ी आ गई है जिसे ठीक कराने के लिए संबंधित कंपनी को जानकारी दी गई है.''

एनुअल मेंटीनेंस कॉन्ट्रैक्ट (एएमएसी) में गड़बड़ी भी वेंटिलेटर के मरम्मत में बाधा पैदा कर रही है. चिकित्सा शिक्षा विभाग के एक अधिकारी बताते हैं, ''केंद्र से सभी वेंटिलेटर सीधे मेडिकल कॉलेजों को भेजे गए थे. चिकित्सा और स्वास्थ्य विभाग के अधिकारियों ने इन वेंटिलेटर के एएमसी पर ध्यान नहीं दिया. जब जांच में वेंटिलेटर खराब मिले तब संबंधित कंपनी से संपर्क किया गया तो कंपनी वेंटिलेटर की कीमत की दस फीसद से अधिक धनराशि एएमसी शुल्क के रूप में मांग रही है.'' स्वास्थ्य विभाग के प्रावधान में किसी भी मशीन की कुल कीमत की पांच फीसद धनराशि‍ ही एएमसी के लिए निर्धारित है. चिकित्सा शिक्षा विभाग की महानिदेशक डॉ. श्रुति सिंह बताती हैं, ''सभी मेडिकल कॉलेजों को अपने स्तर पर वेंटिलेटर ठीक कराने का निर्देश दिया गया है. इसके अलावा राज्य के बजट से भी वेंटिलेटर की मरम्मत कराने का प्रावधान किया गया है.'' स्वास्थ्य विभाग ने 'साइरेक्स' कंपनी को वेंटिलेटर की देखरेख का जिम्मा सौंपा है. इसके लिए 'ऑक्सीकेयर' नाम का एक पोर्टल बना हुआ है. वेंटिलेटर में गड़बड़ी होने पर इसकी जानकारी पोर्टल पर डाली जाती है. 'साइरेक्स' कंपनी के राज्य प्रबंधक प्रशांत कुमार बताते हैं, ''पोर्टल के डैशबोर्ड पर इस वक्त वेंटिलेटर में खराबी से जुड़ी कोई शिकायत दर्ज नहीं है. जहां भी शिकायत मिली थी उसे 48 घंटे में दूर किया गया. अगर कोई डॉक्टर अपने अस्पताल में खराब पड़ी मशीनों की सूचना समय पर नहीं दे रहा है तो उनके ठीक होने में भी विलंब होता है.'' 

कोविड काल में सैकड़ों वेंटिलेटर अस्पतालों में लगे, पर उनके संचालन के लिए डॉक्टर-कर्मचारि‍यों का इंतजाम न होने से ये मशीनें वार्डों में डंप पड़ी हैं. अंतरराष्ट्रीय मानकों के अनुसार, वेंटिलेटर चलाने में मुख्य भूमिका एनस्थेटिस्ट (बेहोशी के डॉक्टर) की है. प्रदेश में प्रांतीय चिकित्सा सेवा संवर्ग में कुल 410 एनेस्थेटिस्ट मौजूद हैं. इसके अलावा 96 एमबीबीएस डॉक्टरों को मेडिकल कॉलेजों से 'लाइफ सेविंग एनस्थिसिया स्किल्स' का छह महीने का कोर्स कराकर वेंटिलेटर चलाने योग्य बनाया गया है. इस तरह स्वास्थ्य विभाग के पास करीब 500 डॉक्टर ही वेंटिलेटर चलाने के लिए मौजूद हैं. दूसरी ओर, स्वास्थ्य विभाग के तहत आने वाले कुल 855 सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र (सीएचसी) और 165 जिला अस्पतालों में 24 घंटे राउंड द क्लॉक ड्यूटी करने के लिए करीब 4,000 एनस्थेटिस्ट की जरूरत है. वैसे निदेशक, चिकित्सा उपचार डॉ. के. एन. तिवारी का अपना तर्क है.

वे बताते हैं, ''वेंटिलेटर की जितनी जरूरत है उससे ज्यादा सप्लाई है. सप्लाई इस बात को ध्यान में रखते हुए की गई है कि कोविड जैसी महामारी दोबारा आई तो क्या होगा. महामारी आएगी तो मानव संसाधन भेजे जाएंगे.'' डॉ. तिवारी ओटी ऑपरेटर और अन्य टेक्नीशियन को भी प्रशिक्षण देकर वेंटिलेटर संचालन में दक्ष बनाने की बात कहते हैं. गैर चिकित्सकीय स्टाफ से वेंटिलेटर संचालन को विशेषज्ञ गलत फैसला बता रहे हैं. लखनऊ के एक निजी अस्पताल में क्रिटिकल केयर यूनिट के प्रभारी डॉ. मयंक अग्रवाल बताते हैं, ''वेंटिलेटर चलाने में पूरी तरह दक्ष लोगों का ही इस्तेमाल होना चाहिए. वेंटिलेटर के प्रेशर रेग्युलेटेड वॉल्यूम कंट्रोल (पीआरवीसी) और सिन्क्रोनाइज्ड इंटरमिटेंट मैंडेटरी वेंटीलेशन (एसआइएमवी) मोड में सांस लेने की पूरी प्रकिया मशीनी हो जाती है. अगर वेंटिलेटर ने ठीक से सांस नहीं दी तो मरीज स्वयं से भी नहीं ले पाएगा और ऐसी स्थिति में अनहोनी हो सकती है.'' स्वास्थ्य विभाग भले ही मानकों के अनुसार संसाधन न होने को वेंटिलेटर संचालन में सबसे बड़ी बाधा मान रहा हो लेकिन निजी अस्पताल में यही मानक धरे के धरे हैं. दिसंबर, 2021 में पुराने लखनऊ के आइसीयू में भर्ती एक मरीज की मौत के बाद तोड़फोड़ हुई थी.

पूरे प्रकरण की शिकायत मिलने पर मुख्य चिकित्साधिकारी कार्यालय की टीम ने निजी अस्पताल के आइसीयू की जांच की तो पता चला कि यहां आइसीयू में मौजूद पांच वेंटिलेटर को चलाने के लिए महज एक ही एनस्थेटिस्ट मौजूद था. वह डॉक्टर दूसरे अस्पतालों को भी अपनी सेवाएं दे रहे थे. निजी अस्पताल में एक वेंटिलेटर बेड पर भर्ती शुल्क 8,000 रुपए प्रति दिन की दर से वसूला जा रहा था, जबकि यही सुविधा सरकारी अस्पतालों में मुफ्त मिल रही है. विडंबना कि सरकारी अस्पतालों में कोविड काल में लगे हजारों वेंटिलेटर धूल फांक रहे हैं. दार्शनिक अंदाज में डॉ. तिवारी कहते हैं, ''हम अस्पतालों में दवा खरीदते हैं. मरीज ज्यादा आते हैं तो दवा कम पड़ जाती है और कम आए तो दवा रखे-रखे खराब हो जाती है. दवा खराब भले ही हो जाए लेकिन उसके अभाव में किसी की मौत न हो.'' इसका मतलब क्या कि दूसरी गंभीर बीमारी से पीडि़त रोगी वेंटिलेटर के अभाव में भले मर जाएं लेकिन कोविड से नहीं मरने देंगे. यही संवेदनहीनता रोगियों को वेंटिलेटर के लिए दर-दर भटकने को मजबूर कर रही है. 

जीवन की तलाश में जीवन रक्षक उपकरण

आंबेडकरनगर: टांडा के एल-1 कोविड अस्पताल में लगे 6 में से 2 वेंटीलेटर मॉकड्रिल के दौरान ठीक से काम नहीं कर रहे थे. ऑक्सीजन की सप्लाई बंद मिली.

बहराइच: मॉकड्रिल के दौरान डेडीकेटेड कोविड वार्ड में जांच के दौरान यहां लगे 8 वेंटिलेटर में से 3 खराब थे.

गोंडा: कोविड एल-1 अस्पताल में 30 में से 27 वेंटीलेटर मॉकड्रिल के दौरान चालू हालत में नहीं मिले. पर्याप्त प्रेशर में ऑक्सीजन उपलब्ध न होने से हुई दिक्कतें.

बस्ती: मेडिकल कॉलेज के डेडीकेटेड कोविड अस्पताल में 80 बेड का एचडीयू वार्ड है. मॉकड्रिल के दौरान यहां लगे 5 वेंटीलेटर स्टोर में डंप मिले.

देवरिया: मॉकड्रिल के दौरान महर्षि देवरहा बाबा मेडिकल कालेज के कोरोना वार्ड में लगे चार वेंटीलेटर जैसे ही चालू किए गए उनमें से धुआं निकलने लगा.

झांसी: महारानी लक्ष्मीबाई मेडिकल कॉलेज झांसी में पीएम केयर से 94 वेंटिलेटर भेजे गए थे जिनमें दो दर्जन के खराब होने पर इन्हें ठीक कराने की प्रक्रिया जारी है.

बांदा: रानी दुर्गावती मेडिकल कॉलेज में 125 और जिला अस्पताल में 23 वेंटिलेटर हैं. इनमें से 10 फीसद का उपयोग भी नहीं हो पा रहा है.

आजमगढ़मेडिकल कॉलेज में कोरोना काल के दौरान 96 वेंटिलेटर लगाए गए थे इनमें 20 पूरी तरह से चालू हालत में नहीं हैं.

वाराणसी: कोविड काल में बीएचयू को 100, जिला अस्पताल को 34, मंडलीय अस्पताल को 20 और ईएसआइसी अस्पताल को 8 वेंटिलेटर मिले.बीएचयू को छोड़कर कहीं भी वेंटिलेटर का उपयोग नहीं हो रहा है. 

सोनभद्र: जिला अस्पताल के एमसीएच विंग के समीप बने कोविड अस्पताल में पीएम केयर के 12 समेत कुल 22 वेंटिलेटर लगे हैं लेकिन इनका कोई उपयोग नहीं हो रहा है.

कानपुर: जीएसवीएम मेडिकल कॉलेज में पीएम केयर फंड से 126 वेंटिलेटर भेजे गए थे जिनमें 60 खराब हो गए जिन्हें ठीक कराया जा रहा है.

इटावा:उत्तर प्रदेश ग्रामीण आयुर्विज्ञान एवं अनुसंधान संस्थान, सैफई में कोरोना काल में लगाए गए 134 वेंटिलेटर में से 50 खराब हो चुके हैं. इनकी मरम्मत करने की प्रक्रिया जारी है.

क्या हैं वेंटिलेटर
यह ऐसा उपकरण है जो फेफड़ों में हवा को पंप करके सांस लेने की प्रक्रिया में सहयोग करता है. आइसीयू में भर्ती रोगियों को कई बार इसकी जरूरत पड़ती है. मुख्य रूप से वेंटिलेटर दो प्रकार (इनवेसिव और नॉन इनवेसिव) के होते हैं

नॉन इनवेसि‍व वेंटिलेटर: इसमें मुख्य रूप से फेस मास्क वेंटिलेटर को शामिल किया जाता है. इसके जरिए रोगी के मुंह और नाक में फिट बैठने वाले मास्क के जरिए सांस दी जाती है और ऑक्सीजन का स्तर बनाए रखा जाता है. 

इनवे‍सिव वेंटिलेटर: इनवेसिव वेंटिलेटर में या तो एक ट्यूब को रोगी के श्वसन मार्ग में रखा जाता है या फिर इसे गर्दन में छेद के माध्यम से डाला जाता है. इस वेंटिलेटर को मैकेनिकल वेंटिलेटर भी कहा जाता है. 

हाइ फ्लो नेजल कैनुला
(एचएफएनसी): इसमें रोगी की नाक पर एक 'नेजल कैनुला' जोड़कर इसके जरिए ऑक्सीजन दी जाती है. एचएफएनसी में ऑक्सीजन की खपत ज्यादा होती है. इसमें 60 लीटर प्रति मिनट की दर से ऑक्सीजन दी जा सकती है. पीएम केयर से अस्पतालों को इस मोड के वेंटिलेटर भी मिले हैं. 

संचालन के मानक: 30 बेड का आइसीयू चलाने में पांच बेड पर वेंटिलेटर, 7 पर बाइपैप मशीन, 8 पर एचएफएनसी, 10 पर फेस मास्क वेंटिलेटर की व्यवस्था होती है. इसके लिए फि‍जीशि‍यन, एनस्थेटिस्ट, सर्जन समेत 4 डॉक्टर, 4 नर्स, 3 वार्ड बॉय, 3 स्वीपर की जरूरत पड़ती है. राउंड द ब्लॉक 24 घंटे ड्यूटी के लिए 12 डॉक्टर, 12 नर्स, 9 वार्ड ब्वॉय और 9 स्वीपर की जरूरत पड़ेगी.

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