कोरोना के बाद कर्ज की महामारी

बिहार में कोरोना के बाद एक बड़ी आबादी सूदखोरों और महाजनों के कर्ज के जाल में फंसती नजर आ रही है.

बेसहारा : जमुई जिले के सिंगारपुर गांव की कोमल अपने पति सुशील की फोटो के साथ; सुशील ने एक प्राइवेट फाइनेंसर से कर्ज लेकर ऑटो खरीदा था लेकिन कर्ज नहीं चुका पाए. बीते साल कर्ज वसूलने वालों के दबाव के चलते उन्होंने आत्महत्या कर ली.
बेसहारा : जमुई जिले के सिंगारपुर गांव की कोमल अपने पति सुशील की फोटो के साथ; सुशील ने एक प्राइवेट फाइनेंसर से कर्ज लेकर ऑटो खरीदा था लेकिन कर्ज नहीं चुका पाए. बीते साल कर्ज वसूलने वालों के दबाव के चलते उन्होंने आत्महत्या कर ली.

पुष्यमित्र/अशोक प्रियदर्शी

कहां गायब हो गए, मिलेंगे या नहीं, इसकी चिंता अब रही कहां. अब तो हम इस बात को लेकर परेशान हैं कि हम लोग जिंदा बच पाएंगे या नहीं. पैसे मांगने वाले हमें मार डालेंगे, या फिर हम लोग टेंशन से ही मर जाएंगे. पैसे मांगने आने वाले ऐसी-ऐसी गंदी बातें मेरे और मेरी बेटी के बारे में बोलते हैं, हम सुन नहीं पाते. बर्दाश्त नहीं कर पाते... यह बोलते-बोलते पूजा देवी फफक-फफक कर रोने लगती हैं. जमुई शहर की पूजा देवी यहां अपने पति चंद्रभूषण प्रसाद के लापता होने की बात कर रही हैं.

जमुई में सर्राफे की एक दुकान चलाने वाले चंद्रभूषण प्रसाद दो नवंबर को बनारस गए थे और तब से उनकी कोई खोज-खबर नहीं मिल रही. पूजा देवी बताती हैं कि चंद्रभूषण के लापता होने की खबर फैलते ही उनके पास ऐसे लोगों की बाढ़ आ गई है, जो यह दावा कर रहे हैं कि उनके पति ने उन लोगों से पैसे उधार लिए हैं.

वे कहती हैं, ''अब तक जितने लोग पैसे मांगने आए हैं, अगर सबको जोड़ दिया जाए तो ऐसा लगता है कि मेरे पति ने 14-15 करोड़ रुपए का कर्ज ले लिया है. वे एक व्यापारी आदमी हैं, पैसों का लेन-देन लगा रहता है, मगर लोगों से इतने पैसे उधार ले लेंगे, यह बात मुझे सच नहीं लगती.

हद से हद उन्होंने 10-15 लाख रुपए उधार लिए होंगे.’’ पूजा देवी आगे दावा करती हैं, ''मुझे तो लगता है मेरे पति को इन लोगों ने ही गायब करा दिया है और अब ये लोग संपत्ति के लोभ में मुझे और मेरे तीन बच्चों को भी जीने नहीं देंगे.’’

पूजा देवी की बातें इसलिए डराती हैं, क्योंकि जिस नवंबर महीने में जमुई शहर में यह कारोबारी परिवार उधार देने वालों की प्रताड़ना का शिकार हो रहा है, उसी महीने बिहार में दो अन्य व्यवसायी परिवारों ने कर्ज और साहूकारों के आतंक की वजह से सामूहिक खुदकुशी कर ली है.

पहली घटना नवादा जिले में घटी, जहां एक फल व्यापारी के परिवार में सभी छह सदस्यों ने जहर खाकर जान दे दी. वहीं सिवान में एक दर्जी अपनी दो बेटियों के साथ इसलिए फांसी पर लटक गया, क्योंकि उस पर 12 लाख रुपए का कर्ज था. इसे चुकाने के लिए साहूकार लगातार उस पर दबाव डाल रहे थे.

हाल के दिनों में कर्ज की वजह से पूरे परिवार द्वारा सामूहिक खुदकुशी की घटनाएं बिहार में बढ़ी हैं. इसी साल जून में समस्तीपुर जिले में एक ऑटोचालक के परिवार के सभी पांच लोगों ने फांसी लगाकर जान दे दी थी. वहीं अलग-अलग लोगों द्वारा कर्ज की वजह से खुदकुशी करने की घटनाएं तो दर्जनों में हैं. इन सभी मामलों में कई बातें साझा हैं.

जैसे कि कर्ज लेकर जान देने वाले ज्यादातर शहरी व्यापारी हैं और इन लोगों ने अवैध रूप से साहूकारी का काम करने वाले लोगों से कर्ज लिया था. कर्ज पर सूद की दर काफी अधिक होती है और चक्रवृद्धि ब्याज के चलते कर्ज की रकम थोड़े ही वक्त में काफी बढ़ जाती है. कोरोना की वजह से पहले ही चौपट कारोबार के चलते कर्जदार यह रकम चुकाने में असफल हो रहे हैं.

इधर निजी साहूकार कर्ज वसूलने में जुल्म की इंतिहा कर देते हैं. ऐसे में उधार लेने वाले खुदकुशी करने या कोई बड़ा कदम उठाने पर मजबूर हो जाते हैं. नवादा में 10 नवंबर को जिस परिवार के सभी छह सदस्यों ने जहर खाकर जान दे दी, बताया जाता है कि कर्ज न चुकाने पर साहूकार ने उस परिवार की बेटी और बेटे को उठा लेने की धमकी दी थी.

इसी महीने जमुई में एक साहूकार के जुल्म की एक और घटना सामने आई जब जिले के झाझा कस्बे के एक गरीब मजदूर परिवार के बेटे को उन्होंने किडनेप कर लिया. अपने बेटे को बचाने के लिए वह मजदूर परिवार अपनी दुधमुंही बच्ची को बेचने के लिए तैयार हो गया था.

पुरानी बाजार के मुशहरी टोला में रहने वाले इस परिवार के मुखिया मेघू मांझी बताते हैं, ''पिछले साल दशहरा के वक्त हम लोगों ने अपने भाई के जरिए मजदूरों के एक ठेकेदार से पांच हजार रुपए उधार लिए थे, ताकि हरियाणा जाकर वहां एक ईंट भट्ठे पर मजदूरी कर सकें. वहां सात महीने काम करने के बाद जब लौटे तो हमसे पांच के बदले 25 हजार रुपए की मांग की गई.

कहा गया कि एक साल में बीस हजार रुपए का सूद हो गया है. हम बोले कि हम तो रोज 50 रुपए किसी तरह कमाते हैं, 25 हजार कहां से दे पाएंगे. ज्यादा से ज्यादा दस हजार दे सकते हैं. मगर ठेकेदार माना नहीं, उसने मेरे दस साल के बेटे को किडनैप कर लिया.’’

मेघू की पत्नी मधु देवी आगे बताती हैं, ''जब मेरे बेटे को उठा लिया, तो हम लोग लाचार हो गए. अपनी बेटी को बेचने के लिए तैयार हो गए. इस बच्ची का जन्म दशहरे के दिन हुआ था. एक बिना बच्चे वाली औरत अस्पताल से ही हमको कहती थी, अपनी बेटी हमको दे दो.

बदले में 30 हजार रुपए देने को तैयार थी. अपने पोसे हुए बेटे को बचाने के लिए हम अपनी बेटी देने के लिए तैयार हो गए. लेकिन तब तक मीडिया और पुलिस को पता चल गया और वह औरत पैसा देकर बच्ची को नहीं ले जा पाई. हां, पुलिस के आने से यह फायदा हुआ कि ठेकेदार ने मेरे बेटे को भी वापस भेज दिया. अब पैसे भी नहीं मांग रहा.’’

कोरोना के बाद कर्ज बना जानलेवा 
वैसे तो बिहार में लोगों के साहूकारों और महाजनों के चंगुल में फंसने के मामले हमेशा से आते रहे हैं, मगर कोरोना के बाद ये बहुत तेजी से बढ़े हैं. महामारी के बाद लोगों की आर्थिक स्थिति को समझने के लिए बिहार में दो अध्ययन हुए हैं. दोनों अध्ययनों से यह जाहिर हुआ है कि राज्य में बड़ी संख्या में लोग इस दौरान कर्ज लेने के लिए मजबूर हुए हैं. लोगों ने खाने-पीने की रोजाना की जरूरतों से लेकर बीमारियों में इलाज कराने और नए रोजगार करने तक के लिए ऊंची ब्याज दर पर उधार लिया. 

बिहार इंडस्ट्रीज एसोसिएशन के चेयरमैन अरुण अग्रवाल कहते हैं, ''उस वक्त जो कुछ हुआ उसका असर अब धीरे-धीरे सामने आ रहा है. तब मजबूरन लोगों ने कर्ज ले लिया था, अब ढाई-पौने तीन साल बाद जब वे कर्ज नहीं चुका पा रहे हैं, तो उधार देने वाले उन्हें परेशान करते हैं. इधर देश की अर्थव्यवस्था लगातार खराब चल रही है. कोरोना से पहले भी नोटबंदी और जीएसटी की वजह से परेशानी थी, फिर कोरोना ने कमर तोड़ दी, अब यूक्रेन युद्ध का असर है.

बाजार बिल्कुल मंदा है. ऐसे में कारोबारियों की आमदनी इतनी ही बच गई है कि वे अपने परिवार के भोजन का इंतजाम कर सकें. जाहिर सी बात है, ऐसे में वह कर्ज कैसे चुकाएगा. मगर जिसने कर्ज दिया है, उसे इन बातों से क्या मतलब. वह तो वसूली करेगा ही. इसी वजह से सारा तनाव है. कारोबारी परेशान हैं. खुदकुशी के लिए मजबूर हो रहे हैं.’’

नए-नए साहूकार
राज्य में हाल के दिनों में लोगों की कर्ज लेने की जरूरत बढ़ी, तो नए-नए साहूकार भी तैयार हो गए हैं. जमुई के झाझा में सरकारी लाइसेंस लेकर साहूकारी का काम करने वाले एक व्यक्ति नाम उजागर न करने की शर्त पर बताते हैं, ''पहले बहुत कम लोग सूद पर पैसे देने का धंधा करते थे.

उनमें से ज्यादातर सरकार से लाइसेंस लेकर यह काम करते थे. बिहार सरकार साहूकारी अधिनियम के तहत ऐसे लाइसेंस जारी करती है. मगर हाल के वर्षों में कई दबंग और अराजक तत्व इस पेशे में आ गए हैं. उन्हें लगता है कि वे ताकत के दम पर पैसे वसूल लेंगे. ऐसे ही लोगों की वजह से इस कारोबार में हिंसा, तनाव और आत्महत्या जैसी घटनाएं बढ़ी हैं.’’

''गुंडा बैंक’’ फिर से सक्रिय
कोसी-सीमांचल और भागलपुर के कुछ इलाकों में 1990 से 2006 के बीच बाहुबली और दबंग लोग अपनी अवैध कमाई व्यापारियों और जरूरतमंद लोगों को बिना गारंटी के कर्ज के तौर पर देते थे. कर्ज वापसी न होने पर ये लोग अपहरण, मारपीट, हत्या और संपत्ति पर कब्जा करने जैसे काम करते थे.

इन्हीं लोगों के लिए बिहार में ''गुंडा बैंक’’ का शब्द चलन में रहा है. हालांकि 2006 में चले सघन प्रशासनिक अभियान के बाद लेन-देन का यह अवैध कारोबार काफी हद तक बंद हो गया. मगर नोटबंदी और कोरोना के बीच इसके फिर से सक्रिय होने की खबर आई. फरवरी, 2020 में कटिहार के एक व्यवसायी ने सपरिवार खुदकुशी कर ली, तो पता चला कि उस व्यापारी ने इन्हीं लोगों से कर्ज लिया था.

फिर पटना हाईकोर्ट के हस्तक्षेप के बाद एसआईटी गठित हुई और इस तरह के मामलों की जांच शुरू हुई. एडीजी कमल किशोर सिन्हा के नेतृत्व में गठित इस विशेष जांच टीम ने पाया कि इस इलाके में 547 ऐसे लोग हैं, जो सूद पर पैसे देते हैं और पैसे न चुकाने पर कर्जदार की जमीन और संपत्ति हथियाने की कोशिश करते हैं. इस जांच के आधार पर अगस्त, 2022 में भागलपुर में एक दर्जन के करीब लोगों के ठिकानों पर राज्य की आर्थिक अपराध इकाई ने छापामारी की. इनमें से एक भागलपुर का पूर्व डिप्टी मेयर भी रहा है. 

एडीजे कमल किशोर सिन्हा ने इंडिया टुडे को बताया कि वे जांच से संबंधित दो रिपोर्ट पटना हाइकोर्ट को सौंप चुके हैं. तीसरी और अंतिम रिपोर्ट बहुत जल्द सौंप देंगे. उनके मुताबिक सबसे बड़ी दिक्कत यह है कि जब तक कोई अनहोनी नहीं घट जाती, लोग पुलिस से संपर्क करने में हिचकते हैं, इसलिए कई बार मामलों का पता नहीं चल पाता.

बैंकों का असहयोग
बिहार में अवैध साहूकारों के पनपने के पीछे एक बड़ी वजह यहां के सरकारी और निजी बैंकों का असहयोग भी है. बिहार के ज्यादातर बैंक छोटे व्यवसायियों को कर्ज देने में हिचकते हैं. कर्ज देने की प्रक्रिया भी इतनी जटिल है कि पैसे जरूरत के वक्त तत्काल नहीं मिल पाते.

बिहार में इस वक्त बैंकों का क्रेडिट-डिपॉजिट (सीडी) रेश्यो सिर्फ 47.92 ही है. यानी अगर राज्य के लोग बैंकों में सौ रुपए जमा करते हैं तो बैंक यहां के लोगों को सिर्फ 47.92 रुपए का ही कर्ज देते हैं. जबकि देश के कई राज्यों में यह रेश्यो सौ के करीब या अधिक है.

अगर देश के स्तर पर देखें तो सीडी रेश्यो  70 से अधिक है. बिहार में लोगों को कर्ज देने में सबसे अधिक आनाकनी सरकारी बैंक करते हैं. उनका सीडी रेश्यो 40 से भी कम है, जबकि नॉन बैंकिंग फाइनेंस कंपनियां जो आसानी से कर्ज देती हैं और कर्ज वसूली में साहूकारों जैसी ही निर्मम हैं, का सीडी रेश्यो बिहार में 400 से अधिक है.

इस बारे में इंडिया टुडे ने बिहार की स्टेट लेवल बैंकर्स कमिटी (एसएलबीसी) से संपर्क करने की कोशिश की. मगर वे मसले पर बातचीत के लिए उपलब्ध नहीं हो पाए. उनका यह जरूर कहना है कि अभी उनकी संस्था ऐसे अधिकारी का नाम तय कर रही है जो संबंधित सवालों का जवाब दें. राज्य में बैंकों के सीडी रेश्यो कम होने के सवाल पर सरकार के कई वित्त मंत्री चिंता जाहिर कर चुके हैं. राज्य के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने भी पिछले साल बैंकरों की एक बैठक में इस मसले पर चिंता जताई थी. 

राज्य के वर्तमान वित्त मंत्री विजय कुमार चौधरी ने इंडिया टुडे से बात करते हुए बताया, ''राज्य के बैंकों का सीडी रेश्यो पहले के मुकाबले थोड़ा बढ़ा है, मगर अपेक्षित से कम है. एसएलबीसी की बैठक में हमने इसे बढ़ाने का निर्देश दिया है. हम कोशिश कर रहे हैं कि लोग सरकारी और राष्ट्रीय बैंकों से ही कर्ज लें, ताकि इस तरह की घटनाओं पर रोक लगे.’’ जाहिर है, जब तक ऐसा नहीं हो जाता, बिहार में सूदखोरों पर लगाम लगाना मुश्किल बना रहेगा.

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