बूचड़खाने की राह
बांग्लादेश तक मवेशियों की तस्करी अब पश्चिम बंगाल में बेहद संगठित धंधा बना, कथित तौर पर इस कमाऊ गोरखधंधे में नेता, प्रशासक और बीएसफ के कुछ अफसरों की मिलीभगत.

मवेशियों की चोरी और तस्करी युगों-युगों से तमाम कृषि अर्थव्यवस्थाओं में मुफीद गोरखधंधा रहा है. ऐसे तौर-तरीके 17वीं और 18वीं शताब्दी के अमेरिका में बेइंतिहा चलन में थे, तो अब भी अफ्रीका में बेखौफ जारी हैं. मगर पश्चिम बंगाल में लगभग खुली सरहदों से बांग्लादेश में मवेशियों की तस्करी ने औद्योगिक या संगठित शक्ल अख्तियार कर ली है.
इसकी सुदूर शाखाएं नेताओं, प्रशासनिक अफसरों और सीमा सुरक्षा बल (बीएसएफ) के अफसरों की मिलीभगत से कथित तौर पर सत्तारूढ़ पार्टी का खजाना दिन दूना, रात चौगुना भर रही हैं. इसकी जड़ें माल्दा, बीरभूम और मुर्शिदाबाद जिलों के तमाम कोनों-कूचों तक फैली हैं.
मवेशी तस्करी के मुख्य राजनैतिक संरक्षक अनुब्रत मंडल की गिरफ्तारी के बाद इस गोरखधंधे से जुड़ी कई तरह की जानकारियां सामने आ रही हैं. तृणमूल कांग्रेस से जुड़ा बीरभूम का यह दबंग नेता महीनों से केंद्रीय एजेंसियों को चकमा देता आ रहा था लेकिन सीबीआइ ने उसे आखिरकार 11 अगस्त को पकड़ ही लिया. एजेंसी ने उन्हें मवेशी तस्करी मामले का मुख्य लाभार्थी और संरक्षक बताया है.
इस अवैध धंधे का कथित सरगना और मुख्य आरोपी इनामुल हक फरवरी से प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) की हिरासत में है और केंद्रीय जांच एजेंसियों की पूछताछ में कथित तौर पर उसने सारे राज उगल दिए कि तमाम स्तरों पर अधिकारियों की सरपरस्ती में पशु तस्करी किस तरह फलता-फूलता धंधा बन गई.
उसकी डायरी में कई चौंकाने वाली जानकारियां दर्ज हैं. मसलन, इसमें तस्करी के मुनाफे का एक हिस्सा लेने वाले ढेरों नाम दर्ज हैं. इनमें कुछ वीवीआइपी बताए जाते हैं. इन लाभार्थियों की फौज अब सीबीआइ और ईडी के रडार पर है और उनकी बेहिसाब दौलत और आमदनी से ज्यादा संपत्तियां खंगाली जा रही हैं.
मवेशियों की तस्करी हालांकि बंगाल के लिए नई नहीं है, पर पहले यह छोटे पैमाने पर होती थी. टीएमसी की हुकूमत के दौरान इसका विशाल और जटिल तानाबाना खड़ा हो गया. पिछले दशक के दौरान बड़ी तादाद में लोग पानी की तरह पैसा उलीचने वाले इस संगठित गोरखधंधे की तरफ खिंचे चले आए. उद्योग न होने से कमाऊ रोजगार मिलना मुश्किल था. ऐसे में कइयों के लिए यह आसान विकल्प बना. फिर सरहद पार बांग्लादेश में गायों का तैयार बाजार इंतजार कर रहा था, लिहाजा तस्करी तेजी से परवान चढ़ी.
पश्चिम बंगाल और बांग्लादेश के बीच 2,100 किमी लंबी अंतरराष्ट्रीय सीमा में से 913 किमी की निगरानी बीएसएफ का साउथ बंगाल फ्रंटियर करता है. करीब 538 किमी सरहद पर बाड़ नहीं है और इस झिरझिरी सीमा पर माल्दा, मुर्शिदाबाद और उत्तर 24 परगना में दर्जन भर से ज्यादा ऐसे ठिकाने हैं—मसलन, मुर्शिदाबाद में बीरभूम और उमरपुर का लोहापुर—जहां से मवेशियों की तस्करी के लिए आसान और सुचारु रास्ता मिल जाता है.
बीएसएफ के आधिकारिक दस्तावेजों से पता चलता है कि 2018 और 2022 के बीच तस्करी-विरोधी कार्रवाइयों में 76,091 मवेशी जब्त किए गए, जिनकी कीमत 76 करोड़ रुपए थी. दरअसल, भारत में 40,000-50,000 रुपए में मिलने वाले एक मवेशी के बांग्लादेश में 1.5-2 लाख रुपए मिल जाते हैं. बीएसएफ के साउथ बंगाल फ्रंटियर के डीआइजी अमरीश कुमार आर्य के मुताबिक, जब्त किए गए मवेशियों की संख्या 2018 में 38,657 से घटकर 2021 में 1,611 पर आ गई.
नए और पुराने तस्कर
हर शनिवार को पौ फटने से कुछ घंटे पहले पुराने एनएच 60 के एक गुमनाम-से इलाके में सैकड़ों ट्रक और दूसरी गाड़ियों का रेला लगता हैं और इसे चहल-पहल से भरे सुखबाजार हाट में तब्दील कर देता है. बीरभूम जिले के इस इलाके में कुछ ट्रक और गाड़ियां बंगाल के ही दूसरे हिस्सों के होते हैं, तो कुछ बिहार, झारखंड और उत्तर प्रदेश से आते हैं. हाट के किसी भी एक दिन मवेशियों की तादाद 5,000 से 10,000 के बीच होती है.
लेन-देन होते ही बांग्लादेश ले जाए जाने वाले मवेशी अंतिम रवानगी के लिए अड्डों की तरफ जाने वाले वाहनों में ठूंस दिए जाते हैं. दो छोटे रास्ते बांग्लादेश में अंतिम रवानगी के टर्मिनल बिंदु हैं—एक लोहापुर से और दूसरा पूर्वी बर्दवान की पचुंडी गोरूर हाट से मुर्शिदाबाद के मोरग्राम या उमरपुर जाने वाला रास्ता. बांग्लादेश से सटी अंतरराष्ट्रीय सीमा मोरग्राम और उमरपुर से 20-25 किमी दूर है. सरहद पार करने का आखिरी पड़ाव बागुरघाट है. सीबीआइ के मुताबिक, इनामुल का प्रमुख सहायक मवेशी खरीदता था और बांग्लादेश की सरहद तक सुरक्षित रास्ता बनाने के लिए मंडल को अच्छी-खासी रकम अदा की जाती थी.
पहले मवेशियों को पैदल सरहद तक ले जाने के लिए 100-500 रुपए के बदले राखाल लड़कों या डाकियों (नौजवान चरवाहों) की सेवा ली जाती थी. वक्त के साथ उनकी जगह मोटे तौर पर वाहनों ने ले ली. कानून के रखवालों सहित इस कथित अवैध धंधे में शामिल हर शख्स को गाड़ियों की संख्या, उनमें सवार पशुओं की गिनती और इस तरह उन्हें मिलने वाली रकम के बारे में ठीक-ठीक पता होता है.
इसके अलावा मवेशियों के बेढंगे झुंड को संभालने से यह ज्यादा आसान है. विभिन्न राज्यों से मवेशियों को बाजार में लाने वाले ट्रक ड्राइवर उन्हें सरहद तक नहीं ले जाते. उनकी जगह ऐसे जानकार ले लेते हैं जो इस इलाके की बिसात और तमाम मोड़ों पर गर्म की गई हथेलियों से वाकिफ होते हैं. पुलिस चौकियां कथित तौर पर हर ट्रक से 500 रुपए और मैटाडोर से 200 रुपए लेती हैं. कहा जाता है कि अकेले बीरभूम में ही ऐसे 27 पड़ाव तस्करों के पेरोल पर हैं.
सरहद पर मवेशियों को या तो गंगा नदी पर नावों से बना पॉन्टून पुल पार करके बांग्लादेश ले जाया जाता है या उन्हें आहिस्ते से तैराकर ले जाया जाता है. इसमें ताजातरीन टेक्नोलॉजी की झलक भी मिलती है—कभी-कभी पशुओं के सींगों से माइक्रो चिप बांध दी जाती है ताकि वे रास्ता न भटकें.
कभी इस रैकेट का हिस्सा रहा 25 बरस का एक चरवाहा बताता है, ''पहले राखालों को 10 रुपए का फटा नोट या कोड संख्या लिखा सिगरेट का पैकेट दिया जाता था. नोट का बाकी हिस्सा देने और कोड संख्या मिलने पर ही सामने वाले को भेजा गया माल सौंपा जाता था.’’ उधर, माल लेने वाला भी बैल/गाय की पीठ पर लगी भेजने वाले की मोहर की जांच और तस्दीक करता.
अलबत्ता पुलिस-नेताओं-बीएसएफ के सुचारु गठजोड़ के नियंत्रण से बाहर अपने दम पर काम करने वाले तस्कर भी हैं. जब वे बीएसएफ के हाथों मवेशियों की गैरकानूनी खेप के साथ पकड़े जाते हैं—और सैकड़ों मवेशी जब्त कर लिए जाते हैं—तब एक दूसरा ही खेल खेला जाता है. कागजों में मवेशियों की तादाद बहुत कम दिखाई जाती है और फिर वे कुछ चुनिंदा लोगों को नीलाम कर दिए जाते हैं, ताकि सही 'चैनल’ से फिर उनकी तस्करी की जा सके.
मुर्शिदाबाद के सागरदिघि गांव के ग्रामीणों का कहना है कि दिन में बीएसएफ के हाथों पकड़े गए मवेशी रात में गायब हो जाते हैं, ''बीएसएफ के कैंप के बाहर ट्रकों को सुरक्षित पनाह मिलती है. अगली सुबह हम नदी पर नावों का फोराश (पुल) बनते और उससे मवेशियों को सीमा पार करके बांग्लादेश जाते देखते हैं.’’
मुर्शिदाबाद के एक सियासी नेता नाम न बताने की शर्त पर जानकारी देते हैं, ''उमरपुर स्थित बीएसएफ और कस्टम के दफ्तर जब्त मवेशियों की नीलामी करते हैं और इनामुल के आदमी नीलामी में हिस्सा लेकर बैल/गाय 8,000 रुपए में मिट्टी के मोल खरीदकर बाद में उन्हें तस्करी के रास्ते 1.5 लाख रुपए में बेचते हैं.’’
कहानी के किरदार
बीते एक दशक में सरहद पार तस्करी किए जाने वाले मवेशियों पर अंग्रेजी के 'एच’ अक्षर की मोहर लगने लगी है, जो अब्दुल लतीफ उर्फ 'हिंगुर’ का पहला अक्षर है. कभी सुखबाजार के पशु हाट में भूसा सप्लाई करने वाला गड़रिया लतीफ बीते सालों के दौरान तस्करी के धंधे में इनामुल का दाहिना हाथ बन गया.
लतीफ कथित तौर पर गायों की खरीद-फरोख्त में उसकी मदद करने के साथ-साथ सुचारु कामकाज के लिए तैयार पुलिस और प्रशासनिक सांठगांठ को चुस्त-दुरुस्त रखता था. फरवरी में इनामुल की गिरफ्तारी के बाद उसकी डायरी सीबीआइ के हाथ लगी, जिससे उसे इस रैकेट में अनुब्रत मंडल की भूमिका की जानकारी मिली थी.
सीबीआइ के दो आरोपपत्रों (आखिरी अगस्त में दाखिल) में बंगाल पुलिस, प्रशासन, कारोबारियों और बीएसएफ के लोगों की इस गोरखधंधे में कथित मिलीभगत का जिक्र है. बीएसएफ के अधिकारी, 36वीं बटालियन के पूर्व कमांडेंट, सतीश कुमार को उनकी कथित भूमिका के लिए सीबीआइ ने इसी साल गिरफ्तार किया. 28 दिनों बाद उन्हें जमानत मिली. बीएसएफ के तीन और अफसर जांच के दायरे में हैं. ईडी ने भी कुछ आइपीएस अफसरों की शिनाख्त की है, जिन पर इस रैकेट में लिप्त होने का संदेह है.
मुख्य आरोपियों में एक पूर्व पुलिस कॉन्स्टेबल सैगल हुसैन है. उधर पार्टी में मंडल का कद बढ़ा और इधर हुसैन उसका निजी बॉडीगार्ड और दुलारा कारिंदा बन गया. सीबीआइ के आरोपपत्र में हुसैन का नाम मुख्य आरोपी इनामुल और मंडल के बीच बिचौलिए के रूप में आया है. हुसैन रैकेट को बेहद अहम संरक्षण मुहैया करने के एवज में मंडल की तरफ से इनामुल और लतीफ दोनों से कथित तौर पर रकम वसूल करता था.
इनामुल की डायरी से सीबीआइ के अफसरों को मंडल की कथित शिरकत के काफी सुराग मिले, तो हुसैन के फोन से मिले कॉल के ब्योरों से रैकेट की और ज्यादा बातों का राजफाश हुआ, जिससे मंडल की गर्दन पर फंदा और कस गया. इनसे इनामुल, लतीफ और हुसैन के बीच कड़ियां जोड़ने में मदद मिली. मवेशियों की तस्करी से जुड़े मंडल के सारे कॉल हुसैन के फोन पर आते थे.
सीबीआइ के आरोपपत्र के मुताबिक, हुसैन ने मंडल की तरफ से तस्करी के एक जोड़ा मवेशियों के बदले लतीफ और इनामुल से 62,000 रुपए वसूले. इस रकम से पुलिस थानों से लेकर अफसरों, पंचायत सदस्यों और नेताओं तक लंबी शृंखला का पेट भरा जाता था. रकम के भारी-भरकम होने से गुरेज नहीं था, क्योंकि मवेशियों के लिए सरहद के उस पार भारत में मिलने वाली कीमत के मुकाबले दो या तीन गुना रकम मिलती थी.
टीएमसी के अंदरूनी जानकार आरोप लगाते हैं कि मवेशियों की तस्करी से मंडल महीने में 10-20 करोड़ रुपए बटोरता था, जिसका एक बड़ा हिस्सा मुरमुरों की पैकिंग के लिए बने टिन के डिब्बों में कोलकाता जाता था. टीएमसी के पार्षद और मंडल के पुराने सहयोगी ने आरोप लगाया, ''केश्टो दा (मंडल) खुलेआम कहते कि उन पर बीरभूम से सालाना 200 करोड़ रुपए उगाहने की जिम्मेदारी है जिसमें 100 करोड़ रुपए तो अकेले मवेशियों की तस्करी से आते थे. ऐसे आंकड़ों पर वे इसलिए इठलाते थे ताकि दिखा सकें कि पार्टी के लिए कितने जरूरी हैं.’’
इस बीच हुसैन ने न केवल अपना फोन मंडल की खिदमत में रख दिया बल्कि अपना और अपने रिश्तेदारों का नाम भी कथित तौर पर मंडल की रकम और संपत्तियां रखने के लिए उधार दे दिया. एजेंसियों के पास मौजूद दस्तावेजों के मुताबिक, हुसैन ने डोमकोल (मुर्शिदाबाद), बोलपुर, सिउरी (बीरभूम), बिधाननगर और राजारहाट (कोलकाता) में 59 अचल संपत्तियां खरीदीं. शानदार अपार्टमेंट, डोमकोल में आलीशान इमारत के अलावा रिजॉर्ट और पेट्रोल पंप सहित इन संपत्तियों की कीमत कम से कम 150 करोड़ रुपए है. इसके अलावा मंडल, उसके परिवार और करीबी सहयोगियों के नामों पर पंजीकृत 121 संपत्तियों की रजिस्ट्रियां भी खोद निकाली गईं.
मवेशियों की तस्करी के गोरखधंधे से मंडल की कड़ियां जोड़ने में वाकई लंबा वक्त लगा, वह भी तब जब कथित सरगना इनामुल को दो बार गिरफ्तार गया—एक बार नवंबर 2020 में सीबीआइ ने और अब फरवरी, 2022 में ईडी ने.
स्थानीय दबंग से तृणमूल के कद्दावर नेता तक मंडल का उभार धूमकेतु की तरह रहा. उसने जल्द ताड़ लिया कि रेत और पत्थरों की अवैध खुदाई और मवेशियों की तस्करी भारी रकम उगलने वाले धंधे हैं—ऐसी रकम जो वफादार सियासी संगठन खड़ा करने के लिए जरूरी है. बीरभूम की पूरी लगाम मिलने के बाद मंडल के पास कथित तौर पर पार्टी के केंद्रीय फंड में योगदान देने के लिए काफी रकम बच जाती थी.
जिला अध्यक्षों पर संसाधन उगाहने का काफी दबाव होता है, ऐसे में एक अध्यक्ष जितना ज्यादा धन उगाह सकता है, उतना ही ज्यादा उसका राजनैतिक दबदबा होता है. मंडल ने कभी विधानसभा या लोकसभा का चुनाव नहीं लड़ा. मगर उसने 11 विधानसभा और दो लोकसभा निर्वाचन क्षेत्रों में टीएमसी की जीत पक्की की. विधायक और सांसद उसके प्रति वफादार हों तो उसके खिलाफ सबूत जुटाना भला क्यों मुश्किल नहीं होता.
उधर विदेशों तक फैले धन के लेन-देन के सबूत सामने आने के बाद ईडी ने इनामुल को धन शोधन रोकथाम (पीएमएलए) कानून के तहत गिरफ्तार किया. ईडी के अफसरों के मुताबिक, इनामुल तृणमूल युवा कांग्रेस के नेता विनय मिश्रा को रकम पहुंचाता था, जो हवाला लेन-देनों के जरिए विदेशों में रखी जाती थी.
एक ईडी अधिकारी ने बताया, ''अक्तूबर 2016 और मार्च 2017 के बीच विनय को इनामुल हक से छह करोड़ रुपए मिले.’’ मिश्रा, जिसे सीबीआइ ने तस्करी की जांच के लिए बार-बार तलब किया, कभी टीएमसी के दूसरे नंबर के नेता अभिषेक बनर्जी का करीबी था. फिलहाल वह फरार है.
मवेशी तस्करी से गुजर-बसर
अलबत्ता मंडल, इनामुल और प्रशासन तथा बीएसएफ में उनके कथित सहअपराधी मवेशियों की तस्करी के विशाल गोरखधंधे के अकेले लाभार्थी नहीं हैं. हजारों साधारण लोग भी आजीविका के लिए इस पर निर्भर हैं, जो इधर-उधर के काम करने के बदले छोटी-मोटी रकम कमाते हैं. मसलन, पढ़ाई छोड़कर निठल्ला बैठा एक लड़का मवेशियों का जोड़ा 10 किमी दूर एक निश्चित जगह पर पैदल पहुंचाने के बदले दिन में 500-600 रुपए कमा सकता है.
मुर्शिदाबाद के सूती, सागरदिघि और मोरग्राम तथा बीरभूम में लोहापुर के कई गांव कुछ दिनों के लिए अपनी गौशालाएं मवेशी रखने के लिए उधार देकर इस गोरखधंधे में शामिल थे. बाद में सही मौका देखकर तस्कर इन मवेशियों को ले जाते. सागरदिघि के एक मजदूर कहते हैं, ''हमारे गांव के कई लोग गाय रखते थे. एक गाय के लिए एक रात का किराया 50 रुपए और 100 रुपए था. पांच-छह गायों से दिन में हमें अच्छा पैसा मिल जाता था. मगर जब टीएमसी ने कमान संभाली, छिपने-छिपाने की जरूरत नहीं रह गई.
पंचायतों ने पूरी सड़क किनारे तबेले बना दिए और उन्हें पुलिस सुरक्षा दिलवा दी.’’ ग्रामीण खलीलुर रहमान इतना और जोड़ते हैं, ''जब राखाल उन्हें चोरी-छिपे सरहद तक ले जाते, मवेशियों के खुरों की खड़-खड़ हमें रात भर जगाए रखती. मगर अब एक दशक से गायें छोटी मैटाडोर और ट्रकों में लाई जा रही हैं, क्योंकि तस्करी में उछाल आया है और गाड़ियों पर नजर रखना स्थानीय पुलिस थानों के लिए कहीं ज्यादा आसान होता है.’’
शिक्षक भर्ती घोटाले के आरोपी पूर्व मंत्री पार्था चटर्जी के मामले के विपरीत, टीएमसी जाहिरा कारणों से मंडल को पूरी ताकत से समर्थन दे रही है. 8 सितंबर को कोलकाता में टीएमसी के जमीनी कार्यकर्ताओं को संबोधित करते हुए पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने सभी को मंडल के जेल से छूटने के बाद उनका 'वीरोचित स्वागत’ करने की नसीहत दी. उन्होंने कहा, ''मैं तुम्हें एक बात बताऊंगी, घास काटले आरो बारे (घास जितना काटते हो उतनी ही बढ़ती जाती है). इसी तरह सीबीआइ और ईडी हमारे ऊपर जितना कैंची चलाएंगी, उतने ही हम बढ़ेंगे.’’
इस तथ्य के बावजूद कि ममता बनर्जी के शब्दों से मवेशी तस्करों का मनोबल बढ़ सकता है, पर्यवेक्षकों का कहना है कि यह इतना लंबा-चौड़ा गोरखधंधा है कि जल्द सिमटेगा नहीं. राजनैतिक विश्लेषक शोभोनलाल दत्ता गुप्ता कहते हैं, ''यह विशाल शृंखला है और इस नेटवर्क में बीरभूम और मुर्शिदाबाद के लाखों लोग शामिल हैं. यह शृंखला आसानी से तोड़ी नहीं जा सकती, इससे भारी-भरकम रकम जुड़ी है और नामी-गिरामी लोग पेरोल पर हैं.’’ यानी समस्या का समाधान कहीं और ढूंढना होगा.