खास रपटः लद्दाख का शीत युद्ध
भारत-चीन गतिरोध के बीच ठंड दस्तक देने वाली है और इस मौसम में टिके रहने के लिए सैन्य बलों ने अपनी क्षमताओं में बढ़ोतरी की है. पहाड़ पर साजोसामान पहुंचाने की जंग कौन जीतेगा?

फोटोः बंदीप सिंह
धूसर रंग का आइएएफ सीएच-47 चिनूक लेह के कुशु रिक्वपोचे हवाई अड्डे के रनवे पर धीमी रफ्तार से दौडऩा शुरू करता है. उसके खास जुड़वा रोटर पहाड़ों की विरल हवा को चीरते हुए प्रचंड वेग से घनघना रहे हैं ताकि जमीन से ऊपर उठने की ताकत पैदा कर सकें.
अमेरिका-निर्मित इस हेलिकॉप्टर के भीतर सलीके से भरे कार्डबोर्ड के कार्टन रखे हैं. इनमें ऊंचे पहाड़ों पर पहने जाने वाले कपड़े, सर्दियों के जूते, डिब्बाबंद तेल में तली टूना मछली और खास चॉकलेट मिल्क है. ये ग्राउंड क्रू ने चंडीगढ़ से आए एक अन्य मजबूत और मेहनती और भारी वजन उठाने वाले अमेरिकी विमान बोइंग सी-17 से उतारे हैं.
यह सारा साजो-सामान उन हजारों भारतीय सैनिकों के लिए है, जो पूर्वी लद्दाख में चीन से सटी वास्तविक नियंत्रण रेखा (एलएसी) पर अलग-अलग चौकियों पर तैनात हैं, ताकि वे पीएलए का सामना कर सकें. बीते तीन दशक में दोनों सेनाएं सबसे नजदीकी सैन्य टकराव की स्थिति में हैं. गतिरोध पांचवें महीने में प्रवेश कर रहा है और रिश्तों में तनाव पिघलने की कोई सूरत नजर नहीं आती.
सारा ध्यान लॉजिस्टिक्स पर आ गया है ताकि नए तैनात 40,000 से ज्यादा सैनिकों को नजदीक आती सर्दियों के दौरान खाना, कपड़े और खराब मौसम से बचने का अस्थायी ठिकाना मिल सके. नवनिर्मित केंद्र शासित प्रदेश लद्दाख की राजधानी लेह जबरदस्त सैन्य अभियान का मुक्चय आधार बन गई है.
कुशोक बकुला रिक्वपोचे हवाई अड्डा उस हवाई सेतु या हवाई मार्ग का एक छोर है जो अपने दाएं तरफ भारत के भीतरी इलाकों में 700 किमी दूर तक फैला है. रूसी आइएल-76 और अमेरिका में बने सी-17 मालवाहक विमान अनिवार्य रसद पहुंचाने के लिए चंडीगढ़ से यहां तक लगातार उड़ान भर रहे हैं. यहां हेलिकॉप्टरों से सारा सामान उतार लिया जाता है और हवाई रास्ते या ट्रकों से सेना की अग्रिम चौकियों तक पहुंचाया जाता है.
लॉजिस्टिक की इस कवायद को आकाश में लड़ाकू विमानों की समन्वित सैन्य उड़ानों की छत्रछाया में अंजाम दिया जाता है, जो बिना नागा पौ फटने के साथ ही शुरू हो जाती है. मिग-29, सुखोई एसयू-30 और मिराज-2000 विमान उत्तर भारत के अड्डों से लड़ाकू हवाई गश्तों में नीले आसमान के चन्न्कर लगाते हैं और बंदूकों से लैस अपाचे हेलिकॉप्टर नाराज पतंगों की तरह हवाई अड्डे के इर्द-गिर्द फडफ़ड़ाते हैं.
आर्मी एविएशन कोर के उन्नत हल्के विमान ध्रुव के कॉकपिट के दरवाजे पर एक संकेत चिह्न चिपका है, जो बेरहमी से याद दिलाता है कि सैन्य लॉजिस्टिक सस्ती नहीं है: 'क्रलाइंग कॉस्ट—7,17,000 रु. प्रति घंटा.’
खाने-पीने की चीजों और ईंधन का यह भंडार, जिसे सेना 'एनहैंस्ड विंटर स्टॉकिंगÓ या ईडब्ल्यूएस कहती है, इसलिए जमा किया जाता है ताकि सर्दियों में बर्फबारी होने तक मोर्चों पर तैनात सैनिकों को कोई कमी न हो. इलाके में दो ही सड़क मार्ग हैं और बर्फबारी में दोनों बंद हो जाते हैं—श्रीनगर-लेह राष्ट्रीय राजमार्ग और मनाली-लेह सड़क जो मई और सितंबर के बीच ही खुली रहती है.
मगर इस साल ईडब्ल्यूएस से भी ज्यादा साजो-सामान जुटाना पड़ रहा है. आखिर सेना को उस भारी पलटन के लिए भी खाना, कपड़े, आश्रय और उपकरणों की जरूरतें पूरी करनी है जिसे इस साल जून की शुरुआत में इस रणभूमि में तैनात किया गया था.
उस पार तिब्बती पठार पर चीनी सैनिक भी इतनी ही तादाद में हैं. संक्चया के लिहाज से ही, दो दिग्गज एशियाई देशों की ये तैनातियां सैन्य गतिरोध के इतिहास में इतनी ऊंचाई पर सैनिकों का शायद सबसे बड़ा जमावड़ा है.
मॉस्को में 4 सितंबर को विदेश मंत्री एस. जयशंकर और उनके चीनी समकक्ष वांग यी के बीच और रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह और चीनी रक्षा मंत्री जनरल वेइ फेंगहे के बीच दो दौर की उच्चस्तरीय बातचीत मामले को संतोषजनक ढंग से हल करने में नाकाम रहीं. सैन्य, कूटनीतिक और एनएसए स्तर की वार्ता के दर्जन भर दौरों में भारत ने चीनियों से एलएसी पर अप्रैल 2020 की स्थिति बहाल करने, यानी पीएलए को शिनजियांग सैन्य इलाके की बैरकों में वापस भेजने और 'यथापूर्व स्थिति’ बहाल करने के लिए कहा था.
यह मुहावरा बातचीत के इन दो दौरों के बाद बयानों से गायब हो गया है. 15 सितंबर को संसद में दिए सख्त बयान में रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने सीमा पर सैन्य टुकडिय़ां जमा करके बहुत-से समझौतों का उल्लंघन करने के लिए पूरी तरह चीन को दोषी ठहराया. उन्होंने कहा, ''हाल की घटनाओं में चीनी बलों का हिंसक आचरण परस्पर सहमत नियमों का पूरी तरह उल्लंघन करता है.’’
पूर्वी लद्दाख में मोर्चों पर दोनों पक्ष ऊंचे पहाड़ों पर 'दुस्साहसी मुकाबले’ के तनावपूर्ण खेल में डट गए हैं—जो पहले पीछे हटेगा, वह हारेगा. चीनियों ने उत्तरी लद्दाख में पैंगांग झील पर फिंगर 4 से आठ किमी और गोगरा चौकी से दो किमी पीछे हटने से इनकार कर दिया है.
भारतीय सेना पैंगांग झील के दक्षिण में चुशुल सब-सेक्टर के उस इलाके की, जो पहले नो मेंस लैंड हुआ करता था, पहाड़ी चोटियों पर और झील के उत्तर में चीनी मोर्चों के सामने पडऩे वाली ऊंची पहाडिय़ों पर मौजूद है. जैसे-जैसे भीषण सर्दी करीब आ रही हैं, इन दोनों पहाडिय़ों के पीछे अग्रिम मोर्चों पर तैनात सैनिकों को ताकत देने के लिए रसद ले जा रहे लोगों की कतारें रेंगने लगी हैं.
लॉजिस्टिक शृंखला
भारत के इस सबसे बड़े और ऊंचे पहाड़ी शीत रेगिस्तान लद्दाख में सितंबर के अंत तक सर्दियों का मौसम आ जाएगा. आसमान में बादल घिर आएंगे, त्वचा को चीर देने वाली बर्फीली हवाएं पूरे बंजर भूदृश्य पर सनसनाने लगेंगी, पारा शून्य से 40 डिग्री तक नीचे चला जाएगा और 40 फुट तक ऊंची बर्फ जम जाएगी. चंडीगढ़ से हवाई सेतु के जरिए ले जाए गए ताजे अंडे, फलों के रस और सब्जियां अग्रिम चौकियों पर पहुंचते-पहुंचते पत्थर की तरह जम जाएंगे.
यह बात लेह स्थित 14 कोर में काम कर रहे लोगों से बेहतर कोई नहीं जानता. इसकी स्थापना 1999 में पाकिस्तान और भारत के बीच करगिल जंग के बाद हुई थी. यह दुनिया की अकेली सैन्य कोर (दो डिविजनों से मिलकर बनी) है जो स्थायी रूप से ऊंचे पहाड़ों पर तैनात है. इसका सामना पश्चिम में पाकिस्तान से और पूर्व में चीन से है. सर्दियों की मार दोनों तरफ पड़ती है. करगिल और द्रास बर्फबारी से घिर जाते हैं. पूर्वी लद्दाख में, जहां यह गतिरोध चल रहा है, छिटपुट बर्फबारी होती है, लेकिन ठंड उतनी ही और बर्फीली हवाएं कहीं ज्यादा तेज होती है.
सर्दियों से लडऩे का जवाब सेना के कैच-ऑल, एफओएल या फ्यूल, ऑयल और लुब्रिकेंट में है. कुछ अनुमानों के मुताबिक, रणक्षेत्र में टुकडिय़ों की लॉजिस्टिक जरूरतों में 60 फीसद से ज्यादा एफओएल हैं. तेल से जलने वाली बुखारियां आर्कटिक टेंट को गरम रखती हैं. खाना तेल के स्टोव पर पकाया जाता है, जिनका इस्तेमाल बर्फ पिघलाकर पेयजल तैयार करने के लिए भी किया जाता है. पेट्रोल-डीजल से वाहन चलते हैं और जेटऑइल आपूर्ति में लगे आइएएफ हेलिकॉप्टरों और हवाई जहाजों को ऊर्जा देता है.
लेह के बिल्कुल सामने मनोरम घाटी में एक साइनबोर्ड 'द स्कैटर्ड टैंक्स’ आपका स्वागत करता है. यह दुनिया का सबसे ऊंचाई पर बना एफओएल डिपो है. हवा में तेल की तेज गंध है. जहां तक नजर जाती है, हजारों हरे ड्रम और जेरीकैन के अंबार दिखाई देते हैं. सेना के अफसर धातु की जाली से घिरे कंक्रीट के विशाल टैंक पर खड़े हैं, जिसमें 4,00,000 लीटर डीजल आ सकता है.
यह ओलिंपिक के स्विमिंग पूल को आधा भरने के लिए काफी है और बताता है कि इस पूरे सेक्टर में जिंदगी का आधार कैसे आता है. असैन्य टैंकरों की कतार अपने टैंक इस भूमिगत कुंड में खाली कर देती है. यहां यह बैरलों और क्रयूल टैंकरों में भरा जाता है. इस प्रक्रिया को 'बल्क ब्रेकिंग’ कहते हैं. फिर इन्हें ट्रकों से एलएसी से सटी चौकियों पर ले जाया जाता है. सैन्य ट्रकों के विशाल काफिले, जिनमें हरेक ट्रक में 12,000 लीटर ईंधन है, लेह के बाहर चमचमाते हैं.
14 कोर के पूर्व जीओसी लेक्रिटनेंट जनरल राकेश शर्मा कहते हैं, ''बीते तीन दशकों में हमने बहुत कुछ सीखा है... ग्लेशियर (सियाचिन) ने हमें बहुत सिखाया.ÓÓ सैन्य टुकडिय़ां पूरी सर्दी भर टिक सकें, इसकी कुंजी लॉजिस्टिक में है. यूएस मैरीन कोर के जनरल रॉबर्ट एच. बरो ने चार दशक पहले लिखा था, ''नौसिखिए टैक्टिक्स की बात करते हैं, लेकिन पेशेवर लॉजिस्टिक्स का अध्ययन करते हैं.’’
यह साउथ ब्लॉक में सेना के डायरेक्टरेट जनरल ऑफ ऑपरेशनल लॉजिस्टिक्स ऐंड स्ट्रैटजिक मूवमेंट (डीजीओएलऐंडएसएम) के पेशेवरों का ध्येयवाक्य हो सकता है, जो लोगों और सामग्रियों की इस जबरदस्त आवाजाही में तालमेल का काम कर रहे हैं. सेना को सियाचिन में सर्दियों से लडऩे के लिए बुनियादी ढांचा स्थापित करने का तीन दशक पुराना अनुभव है. सियाचिन में हालात चीन से सटी सरहद के मुकाबले ज्यादा मुश्किल हैं. एलएसी पर वैसा ही बुनियादी ढांचा खड़ा करने के लिए उसे समय और संसाधन दोनों चाहिए होंगे.
सियाचिन ग्लेशियर पर सेना की एक ब्रिगेड यानी 3,000 से ज्यादा सैनिकों के रख-रखाव पर भारतीय सेना को रोज 5 करोड़ रुपए का खर्च उठाना होता है. फिलहाल कोई अनुमान नहीं है कि एलएसी पर नई तैनातियों का कितना खर्च आएगा, लेकिन यह अच्छा-खासा होगा. इसमें हवाई सेतु यानी दूरदराज की शीत चौकियों तक रसद ले जाने वाले ट्रांसपोर्ट विमानों तथा हेलिकॉप्टरों और मशीनों में होने वाली टूट-फूट की अहम लागत का तो कोई जिक्र नहीं है.
रक्षा मंत्रालय की सैन्य बुनियादी ढांचा बनाने वाली एजेंसी सीमा सड़क संगठन को यह जिक्वमेदारी सौंपी गई है कि वह श्रीनगर-लेह मार्ग को इस साल जब तक मुमकिन हो खुला रखना पन्न्का करे. इसके लिए उसे सड़क चौड़ी करनी होगी और बर्फ हटाने वाली और मशीनें खरीदनी होंगी ताकि लेह जाने वाले जोजिला दर्रा साफ रहे.
इसमें कोई संदेह नहीं है कि 14 कोर सीमा पर चल रहे लॉजिस्टिकल वॉरगेम का बहुत बारीकी से अध्ययन कर रही होगी और चीन तथा पाकिस्तान दोनों मोर्चों से हमले को ध्यान में रखकर आकस्मिक योजनाएं तैयार की गई होंगी. इसे न केवल एक अतिरिन्न्त सेना कोर को बनाए रखना पड़ता है जिसे जून में तेजी से शामिल किया गया था, बल्कि उन सैनिकों का भी प्रबंध करके रखना है जो नाटकीय रूप से आक्रामक कार्रवाई का हिस्सा होंगे.
29 अगस्त को, भारतीय विशेष बलों की एक ब्रिगेड ने चढ़ाई की और पैंगोंग झील के दक्षिण में 40 किलोमीटर लंबी पर्वत शृंखला पर कब्जा कर लिया जहां से चीन पर पूरी नजर रखी जा सकती है. भारतीय सेना इसे 'एरिया डिनाएल ऑपरेशनÓ यानी दुश्मन को इलाके में घुसने से रोकने का एहतियाती कदम बताती है. सेना का कहना है कि चीन यहां कब्जा करने की कोशिश कर रहा था लेकिन समय रहते भारत ने भांपकर उसे रोक दिया. यह हिस्सा एलएसी पर भारतीय क्षेत्र में है और 1962 के युद्ध तक इस पर भारत का कब्जा हुआ करता था.
भारतीय सेना के विशेष बलों के इन पहाडिय़ों को कब्जे में लेने के कुछ ही दिनों बाद, 4 सितंबर को लद्दाख दौरे पर आए सेना प्रमुख जनरल एम.एम. नरवाने ने समाचार एजेंसी एएनआइ को बताया, ''मैंने अधिकारियों, जेसीओ (जूनियर कमिशंड अधिकारियों) से बात की और तैयारियों का जायजा लिया. मैंने जमीन पर स्थिति की जानकारी ली. जवानों का मनोबल ऊंचा है और वे सभी चुनौतियों से निपटने के लिए पूरी तरह तैयार हैं.’’ इस तैनाती के बाद दोनों पक्षों की सेनाएं एक-दूसरे से अब कुछ सौ मीटर की दूरी पर हैं और संभावित रूप से पहले से कहीं अधिक टकराव के करीब हैं.
15 जून की झड़प जिसमें 20 भारतीय सैनिकों और नामालूम संक्चया में चीनी सैनिकों की मौत हो गई थी, के बाद सेना के संशोधित नियमों (आरओई) के अनुसार, अब कथित तौर पर, किसी भी उकसावे की स्थिति में मोर्चे पर तैनात जवानों को गोली चलाने का फैसला लेने के लिए अधिकृत किया गया है.
टास्क इस बात को सुनिश्चित करने का होगा कि खुली पहाडिय़ों पर बैठे सैनिकों को विभिन्न खतरों से कैसे सुरक्षित रखा जाए. एक सैन्य सर्जन अग्रिम मोर्चे पर तैनात सैनिकों के लिए चिकित्सा देखभाल सुनिश्चित कराने में तीन प्रमुख चुनौतियों की ओर इशारा करते हैं—तेजी से तैनाती के दौरान लाए गए जवानों की संक्चया, ऊंचाई पर होने के कारण पैदा होने वाली दिन्न्कतें और अग्रिम मोर्चों पर इलाज के लिए स्थायी बुनियादी ढांचे की अनुपस्थिति.
एलएसी पर जो चल रहा है उसमें और 1962 में अन्न्तूबर-नवंबर में जंग के दौरान सीमा पर हुई घटनाओं में बहुत समानताएं हैं. 1962 की लड़ाई में उकसावे की घटना सरकार की 'फॉरवर्ड पॉलिसी’ थी जिसमें सैनिकों की छोटी-छोटी टुकडिय़ों को एलएसी से लगती पोस्ट कब्जे में लेने के लिए कहा गया था. उनमें से कुछ जवान तो गॢमयों की वर्दी में थे और उनके पास जूते तक नहीं थे.
1962 की भारतीय सेना के पास बहुत सी चीजों की कमी थी. उसके पास ऊंचाई वाले सैन्य अभियानों के लिए इंजीनियरिंग उपकरणों की कमी थी, सैनिकों के लिए पर्याप्त राशन, रहने के लिए पर्याप्त टेंट नहीं थे. कुछ पहाड़ी सड़कें थीं इसलिए मोटरगाडिय़ां सीमाओं तक नहीं पहुंच सकती थीं.
जानवरों के जरिए रसद पहुंचाई जाती थी. भारतीय तैनाती बहुत छोटी संक्चया में थी जिसे ज्यादा संक्चया में और बेहतर सुसज्जित पीएलए ने आसानी से ध्वस्त कर दिया था. सेना का कहना है कि उसने उस युद्ध की कड़वी यादों और उसके भूत को खत्म कर दिया है. 14 कोर के चीफ ऑफ स्टाफ मेजर जनरल अरविंद कपूर लेह में युद्ध स्मारक के सामने मीडिया को संबोधित करते हुए कहते हैं, ''किसी अभियान को चलाने में रसद पहुंचाने की महत्वपूर्ण भूमिका है.
हमने पिछले 20 वर्षों में इसमें महारत हासिल की है. हमारा लॉजिस्टिक्स इन्फ्रास्ट्रन्न्चर इतनी चतुराई से बनाया गया है कि बाहर से आने वाली कोई भी यूनिट यहां की किसी भी यूनिट के साथ तुरंत तैयार होकर अभियान के लिए निकल सकती है. इससे युद्ध का रुख बदल जाता है.’’
सेना के अधिकारियों का कहना है कि पिछले चार महीनों में, उत्तरी कमान ने टैंक और बक्चतरबंद गाडिय़ों के लिए विशेष ईंधन तथा लुब्रिकेंट और रखरखाव के लिए पुर्जों का पर्याप्त स्टॉक किया है. इसने पानी के स्थान और नलकूप भी लगाए हैं. सेंट्रल हीटिंग सिस्टम जैसी सुविधाओं वाले बैरक तैयार किए गए हैं. छोटे हथियारों, मिसाइलों और टैंक तथा तोपखाने के लिए विभिन्न प्रकार के गोला-बारूद का स्टॉक किया गया है और चिकित्सा प्रणाली भी तैयार की गई है.
इस बीच, पीएलए जिस पश्चिमी राजमार्ग के किनारे तैनात है, वहां उसने अपना बुनियादी ढांचा बनाया है. पहले से तैयार शेल्टर सहित अन्य चीजों को लगातार स्थापित किया जा रहा है. विश्लेषकों का मानना है कि शिनजियांग सैन्य इलाके की दोनों डिविजन एलएसी पर अग्रिम मोर्चे पर तैनात रहेंगी. भारत को ऊंची जगहों से नीचे ले जाने के लिए पीएलए ने अपने प्रचार को आक्रामक बना दिया है.
चुशुल में भारतीय सेना के जवाबी हमले के बाद से चीनी कक्वयुनिस्ट पार्टी के मुखपत्र ग्लोबल टाइक्वस ने तिब्बती पठार पर चीन के बेहतर बुनियादी ढांचे का प्रदर्शन करने के लिए अपने प्रचार वीडियो की एक शृंखला चलाई है. इसमें भीषण सर्दी में अग्रिम मोर्चे पर मुस्तैद जवानों को तरोताजा रखने के लिए ड्रोन के जरिए गर्म खाना पहुंचाते दिखाया गया था.
ग्लोबल टाइक्वस के संपादक हू जिन ने ट्वीट किया, ''इन ड्रोन की मदद से सीमावर्ती इलाके में तैनात पीएलए के सैनिक सर्दियां शुरू होते ही गर्म भोजन का आनंद ले सकते हैं. आस-पास मौजूद भारतीय सैनिकों के प्रति सहानुभूति है जो केवल ठंडा और डिब्बाबंद खाना खा सकते हैं जिससे सर्दी और कोविड-19 के संभावित खतरे का सामना करना पड़ेगा.’’
सैन्य विश्लेषकों का कहना है कि जब तक सीमाओं का कायदे से निर्धारण नहीं किया जाता है, तब तक दोनों पक्षों के बीच रिश्ते ऐसे ही रहेंगे. आर्टिलरी के पूर्व डायरेक्टर जनरल चीन के साथ 1962 के युद्ध में शामिल रहे एक दिग्गज सैन्य अधिकारी लेक्रिटनेंट जनरल विनय शंकर कहते हैं,
''सैन्य तैयारियों के हिसाब से हमें बहुत चौकन्ना रहना चाहिए और 2020/21 की सर्दियों में एलएसी पर जमे रहने के लिए खुद को तैयार रखना चाहिए. इससे राजनयिकों और राजनैतिक नेतृत्व को एक समझौते पर पहुंचने या भविष्य के संबंध तय करने के लिए पर्याप्त समय मिलेगा.