पुस्तक समीक्षाः नई सदी में नामवर

इन किताबों में पहली है पूर्वरंग. इसमें नामवर जी का प्रारंभिक आलोचना लेखन है, जिसे पढ़ते हुए उनके बुनियादी सरोकारों और रुचियों का पता चलता है. 1959 के एक व्याख्यान में उनकी कही यह बात कितनी प्रासंगिक है, ''आधुनिक साहित्य जितना जटिल नहीं है, उससे कहीं अधिक उसकी जटिलता का प्रचार है. और जिनके ऊपर इस भ्रम को दूर करने की जिम्मेदारी थी, उन्होंने भी इसे बढ़ाने में योग दिया.'' यहां वे 'साधारणीकरण' की चर्चा करते हुए कहते हैं, ''नए आचार्यों ने इस शब्द को लेकर जाने कितनी शास्त्रीय बातों की उद्धरणी की. और नतीजा? विद्यार्थियों पर उनके आचार्यत्व की प्रतिष्ठा भले हो गई हो, नई कविता की एक भी जटिलता नहीं सुलझी.''

नामवर सिंह की प्रमुख किताबें
नामवर सिंह की प्रमुख किताबें

आजाद भारत में साहित्य की दुनिया में जिन लोगों का लिखा-कहा सर्वाधिक चर्चित रहा, उनमें नामवर सिंह अग्रगण्य हैं. उनकी ऐसी कोई किताब नहीं जिस पर वाद-विवाद और संवाद न हुआ हो. पिछली सदी के अंतिम दशकों में वे वाचिक परंपरा के अधिक हो गए थे. देश भर में घूम-घूमकर वे अपने व्याख्यानों, साक्षात्कारों से सांस्कृतिक हलचल उत्पन्न करते रहे. ऐसे में यह दुर्लभ ही था कि उनसे किसी सुव्यवस्थित पुस्तक की अपेक्षा की जाए. प्रचुर मात्रा में उनका लिखा-बोला असंकलित ही था. 2010 से उनका यह असंकलित लिखा-बोला पुस्तकाकार आना प्रारंभ हुआ और 2012 तक ऐसी आठ किताबें आईं. बीते साल फिर उनकी पांच किताबें आई हैं जो निश्चय ही हिंदी संसार के लिए आकर्षण का विषय हैं.

इन किताबों में पहली है पूर्वरंग. इसमें नामवर जी का प्रारंभिक आलोचना लेखन है, जिसे पढ़ते हुए उनके बुनियादी सरोकारों और रुचियों का पता चलता है. 1959 के एक व्याख्यान में उनकी कही यह बात कितनी प्रासंगिक है, ''आधुनिक साहित्य जितना जटिल नहीं है, उससे कहीं अधिक उसकी जटिलता का प्रचार है. और जिनके ऊपर इस भ्रम को दूर करने की जिम्मेदारी थी, उन्होंने भी इसे बढ़ाने में योग दिया.'' यहां वे 'साधारणीकरण' की चर्चा करते हुए कहते हैं, ''नए आचार्यों ने इस शब्द को लेकर जाने कितनी शास्त्रीय बातों की उद्धरणी की. और नतीजा? विद्यार्थियों पर उनके आचार्यत्व की प्रतिष्ठा भले हो गई हो, नई कविता की एक भी जटिलता नहीं सुलझी.''

नामवर जी की मेधा और बौद्धिक क्षमता इन प्रारंभिक लेखों में भी दिखाई पड़ती है. नई कविता पर यहां चार-पांच आलेख हैं, जिनमें उन स्थापनाओं के बीज मिलते हैं जो कविता के नए प्रतिमान में आकार ले रही थीं. पुस्तक के दूसरे खंड में विष्णुचंद्र शर्मा की पत्रिका कवि के लिए छद्मनाम 'कविमित्र' से लिखी अनेक छोटी-बड़ी टिप्पणियां हैं. 1955 की एक टिप्पणी द्रष्टव्य है, ''मुझे यह कहने में तनिक भी संकोच नहीं है कि चित्र-चयन और चित्र रचना अर्थात् चित्रों द्वारा उपयुक्त रागबोध के पैटर्न के निर्माण की जैसी क्षमता केदारनाथ सिंह में है वैसी आज किसी कवि में नहीं है.'' इस खंड में मुक्तिबोध, भवानीप्रसाद मिश्र, एकांत श्रीवास्तव, भालचंद्र नेमाड़े पर आलेख हैं जो रचनाकारों के महत्व का सिंहावलोकन है. रघुवीर सहाय की कविता वसंत और हजारी प्रसाद द्विवेदी के उपन्यास बाणभट्ट की आत्मकथा की नायिका निपुणिका पर स्वतंत्र आलेख भी आलोचक के विश्वस्त बयान हैं. अंतिम खंड में जनयुग के लिए तत्कालीन देश-समाज, राजनीति पर टिप्पणियां हैं.

दूसरी किताब आलोचना और संवाद में अलग-अलग विषयों पर नामवर जी के 25 लेख हैं जिनका लेखनकाल फैला हुआ है और विषय वैविध्य भी चौंकाने वाला है. पहला आलेख विश्व साहित्य की रूपरेखा पर है तो आगे एक आलेख बीसवीं शताब्दी के भारतीय साहित्य पर है. इस पुस्तक में अमीर खुसरो, राहुल सांकृत्यायन, आंबेडकर, फिराक गोरखपुरी, अज्ञेय, श्रीलाल शुन्न्ल, शमशेर बहादुर सिंह, पाश, शानी जैसे रचनाकारों पर आलेख हैं तो भारत-भारती और मलयज की डायरी पर स्वतंत्र विवेचन भी. यह किताब भाषा और साहित्य के अनेक प्रसंगों से जुड़े आलेखों को भी पढऩे का अवसर देती है तथा संस्कृत और उर्दू से जुड़े भाषा—साहित्य प्रसंगों पर भी विशेष आलेख यहां मौजूद हैं. 'शमशेर के साथ आखिरी मुलाकात' शीर्षक आलेख अपनी प्रकृति में संस्मरण के नजदीक हो गया है और नामवर जी अपने प्रिय कवि को समूचे मन की गहराई से याद करते हैं. मध्यकालीन कवियों की सामाजिक जागरूकता पर भी एक आलेख यहां है. भूमिका में आशीष त्रिपाठी ने उचित ही लिखा है कि ''निबंधों की इस शृंखला में कोई आंतरिक अन्विति नहीं है. ये किसी एक विषय या विषय शृंखला पर केंद्रित नहीं. किसी एक साहित्यिक विधा तक भी ये सीमित नहीं. इसलिए इस संकलन को 'इतिहास और आलोचना' तथा 'वाद-विवाद संवाद' के क्रम में देखा-पढ़ा जाना चाहिए.''

पुस्तक में एक भी आलेख ऐसा नहीं जो नामवर ने लिखित तैयार न किया हो. तीसरी पुस्तक द्वाभा में नामवर जी के लिखे-बोले कुछ आलेख हैं जो दो खंडों में बांट दिए गए हैं. पहले खंड में संस्कृति, भाषा, साहित्य और इतिहास पर आलेख हैं तो दूसरे खंड में कई रचनाकारों पर छोटे-छोटे आलेख इन रचनाकारों के महत्व का अंकन ही हैं. नामवर जी संस्कृति में बहुलतावाद के पक्षधर रहे हैं. उनके लिखे-बोले की बड़ी चिंताओं में सांस्कृतिक बहुलतावाद है. इस पुस्तक का पहला आलेख इसी विषय पर है जो 2015 में दिए गए एक व्याख्यान का लिखित रूप है. यहां उन्होंने कहा है कि ''सांस्कृतिक राष्ट्रवाद से हमारे देश की सांस्कृतिक बहुलता को जितना खतरा है, उतना ही, बल्कि उससे ज्यादा खतरा है—उस बहुराष्ट्रीय पूंजीवाद से बनने वाली बाजार की संस्कृति से, जिसे उपभोक्ता संस्कृति भी कहते हैं...खतरा इसलिए ज्यादा है कि ऊपर से विविधता, सतह पर विविधता और मूल तत्व उसका एकरूपता का है. माल का ब्रान्ड अलग-अलग.'' पहले खंड में हिंदी कहानी के इतिहास से संबंधित दो आलेख हैं जो कहानी के संबंध में नामवर जी की सामान्य अवधारणाओं की भूमिका भी प्रस्तुत करते हैं.

प्रगतिशील आंदोलन से जुड़े तीन आलेख भी यहां हैं जो भक्ति आंदोलन के बाद भारत में हुए सबसे बड़े सांस्कृतिक आंदोलन का उज्ज्वल पक्ष दर्शाते हैं. उन्होंने नवगीत जैसी उपेक्षित मानी जाने वाली विधा पर भी एक आलेख दिया है. दूसरे खंड में रचनाकारों पर आए आलेखों में मीरां, रहीम, तुकाराम, गालिब, प्रेमचंद, राहुल सांकृत्यायन, शिवपूजन सहाय, सज्जाद जहीर, हजारीप्रसाद द्विवेदी, महादेवी वर्मा, त्रिलोचन, हरिशंकर परसाई, श्रीलाल शुक्ल, विष्णुकांत शास्त्री, राजेंद्र यादव, मार्कंडेय, निर्मला जैन, दुष्यंत कुमार, कुबेर दत्त और राजनेता चंद्रशेखर पर छोटी-छोटी टिप्पणियां हैं. ये टिप्पणियां जहां संबंधित के प्रदेय का महत्व बताती हैं वहीं अनेक स्थलों पर नामवर जी की संस्मृतियां देखते ही बनती हैं. पुस्तक का शीर्षक द्वाभा उचित ही है, स्मृतियों और साहित्य विवेचन की दो आभाएं.

छायावादः प्रसाद, निराला, महादेवी और पंत शीर्षक से आई पुस्तक नामवर की प्रसिद्ध पुस्तक छायावाद के बाद में लिखे-कहे से छायावाद संबंधी आलोचना का संकलन है. इस पुस्तक की प्रासंगिकता इस बात में है कि 1955 में छायावाद पर सुव्यवस्थित पुस्तक के बाद इस विषय पर उनके विचारों का सक्वयक संकलन यहां एक साथ हो पाया है. डेढ़ दर्जन आलेखों के साथ यहां किरण सिंह की ओर से लिया गया छायावाद विषयक एक साक्षात्कार भी हैं. पुस्तक में कामायनी, रूपाभ और प्रलय की छाया जैसी रचनाओं पर स्वतंत्र आलेख हैं वहीं छायावाद के विभिन्न पक्षों पर विचार करने के साथ नामवर जी ने जिन छायावादी रचनाकारों पर लिखा है, वे सभी आलेख यहां आ गए हैं. उनकी बारीक निगाह इन रचनाकारों की भाषा पर भी गई है. वे लिखते हैं—''प्रसाद रुचिर गद्य के शिल्पी थे. भूसाभरी उनके यहां कहीं न मिलेगी.'' आगे ''निराला की भाषा निराला के गद्य से आई है; कुल्लीभाट से आई है, जो छोटे-छोटे वाक्यों में है. निराला गद्य तोड़ रहे थे और दूसरी ओर कविता को गद्य की नई भाषा दे रहे थे.'' महादेवी के संबंध में—''महादेवी ने रहस्य से ज्यादा सत्य के बारे में लिखा है. महादेवी का साहित्य लड़ाकू साहित्य है, संघर्ष का साहित्य है.'' और ''विचारधारा किस तरह कविता को क्षति पहुंचाती है, पंतजी का परवर्ती काव्य उसके प्रमाणों में से है.'' पुस्तक में छायावादी आलोचना पर भी एक लेख आ गया है जो इस विषय की जरूरत को पूरा करने वाला है.

अंतिम पुस्तक है रामविलास शर्मा, मूर्धन्य आलोचक रामविलास जी पर उनके समस्त लिखे का एक संकलन. जाहिर है यह संकलन पूर्व प्रकाशित पुस्तकों से सामग्री चुनकर बना है. हिंदी के साहित्य संसार में शर्मा और नामवर को दो ध्रुवों में बांटकर देखने-व्यवहार करने का चलन बन गया है पर क्या वाकई ऐसा है? नामवर जी की यह पुस्तक रामविलास जी पर श्रद्धाभाव से भरे आलेख 'केवल जलती मशाल' से प्रारंभ होकर 'इतिहास की शव-साधना' पर पूरी होती है. एक दर्जन से अधिक आलेख यहां रामविलास जी और उनसे जुड़े प्रसंगों पर हैं तो परिशिष्ट रूप में साक्षात्कारों में उन पर नामवर जी की कही गई बातों को भी छांटकर दे दिया गया है. दोनों आलोचकों में सहमति-असहमति के अनेक पक्षों को देखती-समझती यह पुस्तक हिंदी आलोचना के भव्य वितान को उपस्थित करने वाली है. नामवर जी एक साक्षात्कार में कहते भी हैं, ''वारिस होने के नाते मैंने रामविलास जी पर सवाल उठाए हैं क्योंकि रामविलास जी का लेखन हमारी सांस्कृतिक विरासत है.''

इन पुस्तकों के संपादकों क्रमशः आशीष त्रिपाठी, विजय प्रकाश सिंह और ज्ञानेंद्र कुमार संतोष ने अपने अध्यवसाय से एक कठिन और दुस्साध्य कार्य को संभव किया है. हिंदी साहित्य समाज के लिए ये पुस्तकें अपने बड़े आलोचक को बहुविध देखने-समझने का उपक्रम करती हैं तो इनमें आई सामग्री किसी मायने में कम नहीं.

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