आ पहुंचे नए देवता
हर मुश्किल में किसी दैवी दखल की शाश्वत कल्पना वाले भारत ने कई नए देवी-देवता ईजाद किए, कई लोक देवताओं को झाड़-पोंछकर निकाला. कौन हैं ये, और इनका हासिल क्या है?

कर्नाटक के सांस्कृतिक नगर मैसूरू में कुछ लोगों के लिए देवता का समय थोड़ा जल्दी शुरू हो गया. 18 सितंबर को धरती पर अवतरित होने के लिए देवी दुर्गा के प्रस्थान से ठीक एक दिन पहले करीब सौ लोग एक पौराणिक यात्रा पर निकल पड़े. चामुंडी पहाडिय़ों पर स्थित महिषासुर की विशालकाय मूर्ति पर फूलों की वर्षा करने के लिए अशोकपुरम की दलित कॉलोनी से मोटरसाइकिलों का झुंड निकल पड़ा. चमकते रंगों से रंगी और डरावनी मूंछों वाली 12 फुट ऊंची इस मूर्ति की स्थापना मैसूरू के आखिरी महाराजा जयकामराजेंद्र वाडियार ने की थी. इसके एक हाथ में तलवार है और दूसरे हाथ में सांप.
यह मूर्ति 1940 के दशक में देवी दुर्गा के प्राचीन चामुंडेश्वरी मंदिर के प्रवेश द्वार पर बनाई गई है. लेकिन यह पहली बार था जब महिषासुर को प्रतिष्ठा मिली. उनके भक्तों ने जाप करते हुए कहा, ''हम यहां के मूल निवासिगलु यानी मैसूरू के मूल निवासी हैं.'' उनके भक्तों का कहना है, ''वे कोई राक्षस नहीं, बल्कि एक नेक राजा थे, जिन्होंने मैसुरू को उसका नाम दिया. हमारे लिए वे भगवान हैं.'' दुर्गा पूजा की धूमधाम से शुरुआत के साथ ही दस हाथों में हथियारों से लैस वीरांगना दुर्गा के चिरशत्रु, जिनका देवी ने बुराई के विरुद्ध अच्छाई के युद्ध में संहार किया था, अब हिंदुओं के 33 करोड़ देवी-देवताओं की सूची में स्थान पाने लगे हैं. और इस मामले में वे अकेले नहीं हैं. धीरे-धीरे कई नए देवी-देवता प्रतिष्ठा पाकर पूजे जाने लगे हैं. वे देवी-देवता कौन हैं, उन्हें प्रसन्न करने से आखिर क्या प्राप्त होता है और वे क्यों सामने आ रहे हैं?
आखिर कौन हैं ये देवी-देवता?
नहीं, 30 जनवरी, 1948 को महात्मा गांधी की हत्या करने वाले नाथूराम गोडसे को फिलहाल देवता का स्थान नहीं मिला है, लेकिन उन्हें भी यह स्थान मिल सकता है, क्योंकि अखिल भारतीय हिंदू महासभा देश भर के मंदिरों में उनकी मूर्ति स्थापित करने की कोशिश करने में लगी है. क्या नारद मुनि कभी देवता थे? लेकिन अब हैं. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने अपने मुखपत्र ऑर्गनाइजर में, यहां की बात वहां पहुंचाने वाले के रूप में जाने गए इस मुनि को ब्रह्मांड का पहला रिपोर्टर बताया है. दुनिया भले ही मई महीने में विश्व प्रेस दिवस मनाती हो लेकिन संघ परिवार के लिए यह महीना नारद जयंती का था, जिसमें कुछ पत्रकारों को नारद सम्मान से सम्मानित किया गया, पूजा की गई, व्रत रखा गया, बौद्धिक सभाएं की गईं, प्रार्थनाएं और गोष्ठियां वगैरह आयोजित की गईं.
अब जरा गुजरात के पाटीदारों की खोडियार मां को लीजिए. राजकोट के पास खोडलधाम में उनका भव्य मंदिर बनने से पहले ही देवी खोडियार मां को गिनेस बुक ऑफ वल्र्ड रिकॉड्र्स में स्थान मिल गया. जनवरी में 3,00,000 से ज्यादा पाटीदारों ने उनके नाम पर संगठित होने और अपना हित सुरक्षित रखने के लिए एक-दूसरे का आह्वान किया. वे एक मगरमच्छ की सवारी करती हैं, उनकी फिल्में और म्यूजिक एल्बम हैं, इंटरनेट पर भी उन्हें स्थान हासिल है, पूरे गुजरात, राजस्थान और मुंबई में उनके छोटे-छोटे मंदिर हैं. इसके अलावा एक श्दशा माता्य यानी परिस्थितियों की माता भी हैं जो ऊंट की सवारी करती हैं. उनके नाम पर दस दिन का व्रत रखा जाता है.
उनके ऊपर भी कई फिल्में बन चुकी हैं और उनके नाम पर भी म्यूजिक एल्बम बन चुके हैं. उनकी पूजा मूल रूप से राजस्थान और गुजरात की आदिवासी और छोटी समझी जाने वाली जातियां करती थीं, लेकिन उनकी महिमा अब महाराष्ट्र में भी पहुंच गई है. वे अपने भक्तों की जिन इच्छाओं को पूरा करती हैं, उनमें कार खरीदने की इच्छा भी शामिल है. 2016 में तत्कालीन पंजाब सरकार ने 200 करोड़ रु. की लागत से ऋषि वाल्मीकि की सोने की चादर से बनी छह फुट ऊंची मूर्ति उस जगह स्थापित की थी, जहां माना जाता है कि उन्होंने रामायण की रचना की थी और जहां सीता ने लव-कुश को जन्म दिया था. तत्कालीन मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह बादल ने अमृतसर के रामतोरथ में उनके मंदिर का उद्घाटन करते हुए कहा था कि वाल्मीकि, जो ऋषि बनने से पहले रत्नाकर नाम के एक दलित डाकू थे, सशक्तीकरण का संदेश देते हैं. उनका यह भी कहना था कि इससे पहले पंजाब में किसी ने भी दलितों के लिए ऐसा काम नहीं किया, जबकि इस राज्य में दलितों की आबादी सबसे ज्यादा है.
एक दैवी प्रतीक
हर नई देवी या नया देवता एक प्रतीक है जो पहचान और राजनीति के सवाल से जुड़ा है. दिल्ली में सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च के अध्यक्ष प्रताप भानु मेहता कहते हैं, ''प्रतीकों की अपने बारे में कोई वस्तुपरक सचाई नहीं होती.'' प्रतीक में अर्थों की बहुलता होती है यानी उसमें कई अर्थ निहित होते हैं. वे आगे जोड़ते हैं, ''इसका प्रयोग मत, प्रचार, सामूहिक समझ या हैसियत और ताकत के प्रदर्शन के साधन के तौर पर किया जाता है. यह जो संप्रेषित करता है वह इसे प्रदर्शित करने वाले और इसे देखने वाले, दोनों पर ही निर्भर करता है.''
महिषासुर का प्रतीक दलित राजनीति में आए नए बदलाव से जुड़ा है. राजनीति विज्ञान के जानकार वैलेरियन रॉड्रिग्स, जो दलित महापुरुष और भारतीय संविधान के जनक बाबा साहब आंबेडकर पर गोष्ठियां आयोजित करने के लिए जाने जाते हैं, कहते हैं कि दलित दिनोदिन अपने मामले खुद अपने हाथों में लेने लगे हैं. अब अत्यंत शिक्षित दलित नेतृत्व जो ऐतिहासिक अन्याय और अपने समुदाय की चुनावी ताकत के प्रति पहले से कहीं ज्यादा संवेदनशील है, अपने प्रतीकों को बड़ी कुशलता से आगे बढ़ाने के लिए महापुरुषों का सहारा ले रहा है. इस मकसद को पूरा करने में आधुनिक तकनीक और सोशल मीडिया भी बड़ी भूमिका निभाते हुए मददगार साबित हो रहा है. आंबेडकर आज जितने प्रासंगिक हो गए हैं, उतने कभी नहीं थे.
मैसूरू का इतिहास लिखने वाले जाने-माने इतिहासकार पी.वी. नंजराज अर्स के अनुसार, इस क्षेत्र को मूल रूप से 'यम्मे नाडु' या महिष (भैंसा) भूमि के तौर पर जाना जाता था. यहां महिष से जुड़े अनेक महानायक और उपाम्यान रहे हैं. उनमें से एक राजा महिष की प्रेमकथा भी है. राजा को राजकुमारी चामुंडी से प्रेम हो गया था लेकिन उनके प्रेम को ठुकरा दिया गया और राजकुमारी के हाथों उनकी हत्या कर दी गई. देवी पुराण में भी उनका उल्लेख है. उसमें बताया गया है कि उस क्षेत्र में भैंसे के सिर वाले एक शक्तिशाली दैत्य का शासन था, जिसका नाम महिषासुर था. उस दैत्य से निबटने में नाकाम रहने पर देवताओं ने पार्वती के एक अन्य रूप चामुंडेश्वरी देवी की पूजा की और तब महिषासुर मारा गया. दलित और वाम आंदोलनों में एक अन्य मत भी प्रचलित है, जिसके अनुसार महिष शब्द बुद्ध के एक शिष्य महादेव के नाम से लिया गया है. सम्राट अशोक ने उन्हें बौद्ध धर्म का प्रचार करने के लिए भेजा था. उनके नाम पर इस क्षेत्र को महिष की भूमि या ''महिषा ऊरू (कन्नड़ में ऊरू का अर्थ भूमि) और फिर अंत में मैसूरू'' के नाम से जाना गया.
देवता सियासत के
देवी खोडियार अम्मा स्पष्ट रूप से लामबंद होने की प्रेरणा देती हैं क्योंकि राजनैतिक और आर्थिक रूप से प्रभावशाली गुजरात का पाटीदार समाज सामाजिक, आर्थिक रूप से खुद को कुंठित महसूस कर रहा हैः उनके मंदिर का शिलान्यास 2012 में हुआ और उद्घाटन 2017 में. राज्य में ये दोनों ही चुनावी वर्ष रहे हैं. ऊंट की सवारी करने वाली देवी दशा माता उन राज्यों में लोकप्रिय होती जा रही हैं जहां दलितों के खिलाफ नफरत से जुड़े अपराध बढ़ रहे हैं. रोड्रिग्स के मुताबिक, अगड़ी जातियों के खिलाफ गुस्सा बढ़ रहा है, खासकर गोरक्षा के नाम पर हिंसा बढऩे के बाद. इस समय सामाजिक रूप से बहुत बड़ा बदलाव हो रहा है.
देश में धार्मिक रूप से एक नए गठजोड़ के संकेत दिख रहे हैं. पिछले तीन वर्षों से हिंदू महासभा के कार्यकर्ता महात्मा गांधी के जन्मदिन 2 अक्तूबर को अपने एक नए देवता को स्थापित करने में लगे हैं और वह है गांधी की हत्या करने वाला गोडसे. हर साल वे उसके मंदिर के लिए जमीन जुटाते हैं, ब्लूप्रिंट तैयार करते हैं, शिलान्यास करते हैं और दो फुट ऊंची संगमरमर की मूर्ति तैयार करते हैं. लेकिन हर साल उनकी योजना बेकार हो जाती है. बहुत ज्यादा प्रचार और लोगों के आक्रोश के कारण उनकी कोशिशों पर पानी फिर जाता है और उन्हें अदालतों की नाराजगी झेलनी पड़ती है. 2 अक्तूबर, 2016 को वे मेरठ में महासभा के दफ्तर में संगमरमर की एक आवक्ष प्रतिमा का अनावरण करने में कामयाब हो गए थे. तब संगठन के उपाध्यक्ष अशोक शर्मा ने घोषणा की थीः ''अब समय आ गया है कि भारत के लोग गांधी के पदचिन्हों पर चलना छोड़कर गोडसे की पूजा करना शुरू करें.'' इस साल मई में सपारदे में गोडसे के मंदिर की खबरों से महाराष्ट्र विधानसभा में बवाल मच गया था. क्या महासभा इस साल इस कोशिश में कामयाब रहेगी? सबकी नजरें इसी पर रहेंगी.
बारूद में चिनगारी
फूलों की वर्षा से नए देवताओं के इर्दगिर्द फैली सुगंध की अलौकिक अनुभूति के बीच कभी-कभी एक अलग ही किस्म के देवी-देवता आ जाते हैंरू इतिहास, स्मृति और राजनीति से संचालित. ठीक एक साल पहले, अरसे से भुलाई हुई एक सियासी देवी एकाएक राष्ट्रीय चर्चा का विषय बन गई थीं. 'भारत माता की जय' को लेकर देश भर में बहस छिड़ गई. 1905 में अवनींद्रनाथ टैगोर ने प्रतीक के तौर पर गुलामी की जंजीरों में जकड़ी भारत माता की एक तस्वीर बनाई थी जो आगे चलकर देशभक्ति की परीक्षा लेने की कसौटी बन गई.
इसे लेकर उत्तर से कहीं ज्यादा सवाल उठ खड़े हुए और राष्ट्रवाद पर तीखी बहस छिड़ गई जो आज भी जारी है. राजनैतिक मनोविज्ञानी आशीष नंदी कहते हैं, श्श्भारत में धर्म और राजनीति बारूद के एक बक्से में एक-दूसरे को परस्पर प्रभावित करते हैं.'' उनकी राय में, ''भारत जैसे जटिल देश में प्रतीक बहुत समस्या खड़ी करते हैं क्योंकि यहां राष्ट्रीय राजनैतिक बहस 'हमारे' बनाम 'उनके' में तब्दील हो गई है.'' नए देवी-देवता का विचार जातीय एकता और पहचान का प्रतीक हो सकता है.
5,000 वर्ष पुरानी इस सभ्यता में कितने ही देवी-देवता आए और चले गए. क्या आज के नए देवी-देवताओं का उभार जारी रहेगा? यह इस बात पर निर्भर करेगा कि आस्थाएं कहां खत्म होती हैं और कहां पर कारण या तर्क की शुरुआत होती है.