रेरा पर रस्साकशी

रियल एस्टेट मार्केट की विसंगतियां दूर करने वाले कानून से परेशानी महसूस कर रहे बिल्डर कोर्ट पहुंचे तो खरीदारों ने भी बांहें चढ़ाईं

यासिर इकवाल
यासिर इकवाल

प्रॉपर्टी बाजार के इतिहास को रेरा (रियल एस्टेट रेगुलेशन ऐंड डेवलपमेंट ऐक्ट 2016) ने दो कालखंडों में बांट दिया है. एक में स्मिता जैसे लोग हैं, जिन्हें नोएडा एक्सटेंशन में तीन महीने में फ्लैट देने की बात कहकर पैसा लेने वाले बिल्डर ने दो साल इंतजार कराकर रेरा लागू होने के कुछ महीने बाद पजेशन दिया और दूसरी ओर, रिजवाना हैं जिन्होंने 2009 में फरीदाबाद में फ्लैट बुक कराया, 70 फीसदी पैसे दे दिए लेकिन फ्लैट अभी तक नहीं मिला. रेरा से पहले का वक्त बेलगाम कीमतों और बिल्डरों की मनमानी वाला माना जाएगा, वहीं रेरा लागू होने के बाद का दौर अनुशासित ढंग से नियमानुसार प्रॉपर्टी की खरीद वाला कहा जाएगा. लेकिन अड़ंगे अभी खत्म नहीं हुए हैं. रेरा के प्रावधान भले ही कमजोर कहे गए लेकिन बिल्डर इससे भी परेशानी महसूस कर रहे हैं. कर्नाटक, मध्य प्रदेश, मुंबई समेत देश के विभिन्न हाइ कोर्टों में 22 याचिकाएं रेरा को लेकर पड़ चुकी हैं. ज्यादातर बिल्डरों और उनके खिलाफ गए खरीदारों के समूहों की हैं.

रियल एस्टेट मार्केट मई के बाद न सिर्फ ज्यादा चौकन्ना हो गया है बल्कि इसमें बड़ा बदलाव भी आ गया है. अब बिल्डर रेरा रजिस्ट्रेशन नंबर को रेडियो तक के विज्ञापनों में बताकर अपनी विश्वसनीयता साबित कर रहे हैं. रेरा एक ब्रांड बन गया है, लेकिन दिल्ली एनसीआर के करीब चार लाख खरीदारों को अब भी घरों का इंतजार है. घर दिलाने की मांग पर उन खरीदारों का आंदोलन अभी जारी है जिनकी राहत के लिए रेरा लाया गया.

सभी मौजूदा प्रोजेक्ट्स को रजिस्ट्रेशन से छूट देकर नेशनल कैपिटल रीजन (एनसीआर) में हरियाणा और उत्तर प्रदेश सरकारों ने कानून को बिल्डरों के पक्ष में कर दिया. लेकिन बिल्डर इससे भी ज्यादा चाहते हैं. कन्फेडरेशन ऑफ रियल एस्टेट डेवलपर्स एसोसिएशन ऑफ इंडिया (क्रेडाई) के अध्यक्ष गीतांबर आनंद कहते हैं कि नए कानून को एडजस्ट करने में थोड़ा वक्त लगता है. बिल्डर यह बात समझें कि रेरा उनके खिलाफ नहीं है. कस्टमर के खिलाफ उन्हें भी अधिकार मिले हैं. पैसे न देने वाले ग्राहकों की शिकायत कर सकते हैं. याचिकाओं पर आनंद कहते हैं कि लागू होने के बाद कानून को व्यावहारिक बनाने के लिए सुझाव आते रहते हैं और ये याचिकाओं के रूप में भी होते हैं. सरकार सुन लेती है तो ठीक है वर्ना लोग कोर्ट की शरण में जाते हैं.

रेरा को पिछली तारीख से लागू नहीं करना चाहिए. मौजूदा प्रोजेक्ट्स को रेरा में लाने में कई दिक्कतें हैं. मसलन, सरकारी एजेंसियों की लेटलतीफी आदि. जिन प्रोजेक्ट्स में सिर्फ कागजी कार्रवाई बाकी है उन्हें इसके दायरे में नहीं लाना चाहिए. जिनमें कंप्लीशन के लिए आवेदन किया जा चुका है लेकिन सरकार की वजह से देर हो रही है तो इसमें बिल्डर की गलती नहीं है. इन विषमताओं को दूर करना चाहिए.

नोएडा एक्सटेंशन फ्लैट ओनर्स वेल्फेयर एसोसिएशन के अध्यक्ष अभिषेक कुमार कहते हैं, 'रेरा लागू होने के बाद से करीब 20,000 फ्लैट लोगों को मिल चुके हैं. नोएडा एक्सटेंशन में दो लाख लोग अब भी अपने घर में रहने का इंतजार कर रहे हैं. हमने सरकार से केंद्र का रेरा लागू करने की मांग की थी ताकि मौजूदा सभी प्रोजेक्ट्स को इसके दायरे में लाया जा सके.'' उनके संगठन ने इलाहाबाद हाइ कोर्ट में याचिका भी दाखिल कर दी है. अभिषेक कहते हैं, उत्तर प्रदेश में रजिस्ट्रेशन की शर्तें ढीली कर बिल्डरों को फायदा पहुंचाया गया. सरकार ने सभी मौजूदा प्रोजक्टस के रजिस्ट्रेशन की बाध्यता खत्म करते हुए 60 फीसदी पूरे हो चुके प्रोजेक्टस को इसके दायरे से बाहर कर दिया.

उधर, गुडग़ांव सिटिजन काउंसिल ने हरियाणा रेरा के खिलाफ पंजाब-हरियाणा हाइ कोर्ट में याचिका दाखिल की है. काउंसिल के अध्यक्ष आर.एस. राठी के मुताबिक, ''हरियाणा सरकार ने पार्ट कंप्लीशन पर भी रेरा रजिस्ट्रेशन से बिल्डर को मुक्ति दे दी है. इससे गुडग़ांव के ज्यादातर प्रोजेक्ट रेरा के दायरे में नहीं आ रहे हैं. इससे लंबा इंतजार करा रहे बिल्डरों के खिलाफ शिकायत का मौका खरीदारों को नहीं मिला और वे फंसे हुए हैं.''

विभिन्न हाइ कोर्टों में बिल्डरों की याचिकाओं में कहा गया है कि इस कानून को पिछली तारीख से लागू करना गलत है. केंद्र सरकार को यह कानून बनाने का अधिकार नहीं है क्योंकि भूमि-निर्माण राज्य के विषय हैं. इस पर केंद्र सरकार ने सभी याचिकाओं की सुनवाई एक जगह पर करने की अर्जी दी. जिस पर सुप्रीम कोर्ट ने फौरी तौर पर यह व्यवस्था दी है कि बॉम्बे हाइ कोर्ट में लंबित याचिका का फैसला आए बगैर कोई और हाइ कोर्ट याचिका का निष्पादन न करे ताकि विरोधाभासी निर्णयों से बचा जा सके.

बहरहाल, दिलीपकुमार मनसुखलाल गांधी की अध्यक्षता वाली संसदीय समिति ने रेरा के नियमों को बिल्डरों के पक्ष में करने वाले राज्य सरकारों के नोटिफिकेशन का संज्ञान लिया है. खासतौर पर हरियाणा, उत्तर प्रदेश,  गुजरात जैसे तमाम राज्यों में मौजूदा प्रोजेक्ट्स को रेरा के दायरे से बाहर रखने के प्रावधान ऐक्ट के नियमों में कर दिए हैं. खासतौर पर गुडग़ांव में सबसे ज्यादा मौजूदा प्रोजेक्ट ऐक्ट में फेरबदल की वजह से बाहर हो चुके हैं. समिति ने अगस्त में सौंपी अपनी रिपोर्ट में नोएडा को फ्लैट देने में देर का सबसे बड़ा शिकार शहर पाया है.

यह समस्या उत्तर प्रदेश के अलावा हरियाणा में भी रही है. राज्यों को नियम बदलने से रोकने का कोई बाध्यकारी उपाय केंद्र सरकार के पास नहीं है क्योंकि जमीन-मकान जैसे विषयों पर राज्यों को कानून बनाने का अधिकार संविधान में दिया गया है. लेकिन संसदीय समिति की रिपोर्ट में शहरी विकास सचिव के हवाले से कहा गया है कि केंद्र सरकार केंद्रीय सलाहकार परिषद बना सकती है जो कि रेरा के राज्यों में लागू होने के विभिन्न पहलुओं पर सलाह देगी. इसके गठन की प्रक्रिया अंतिम चरण में है.

एनसीआर बायर्स ग्रुप के रसेश पुरोहित कहते हैं, ''नोएडा-ग्रेटर नोएडा में समस्या विकट है क्योंकि यहां कई लोग अवैध रूप से अपने फ्लैट में रह रहे हैं. बिल्डर ने अथॉरिटी का बकाया नहीं चुकाया है. इस वजह से अथॉरिटी कंप्लीशन सर्टिफिकेट जारी नहीं कर रही है. ऐसे में अगर बिल्डर भाग गया तो किसी के पास कोई विकल्प नहीं रहेगा.'' सरकार के पास इस स्थिति से निपटने का कोई प्लान नहीं है. 31 जुलाई तक सभी प्रोजेक्ट्स का रजिस्ट्रेशन जरूरी था. इसके बाद के सभी प्रोजेक्ट रेरा अथॉरिटी अवैध करार दे देती. पर कुछ राज्यों ने इस तारीख को आगे खिसका लिया है. दिक्कत यह भी है कि बैंकों ने अघोषित निर्देश दे रखे हैं कि जो प्रोजेक्ट रेरा में पंजीकृत नहीं हैं उन्हें न तो कर्ज और न ही भुगतान किया जाए. इससे वे खरीदार फंस गए हैं जिनका 10-20 फीसदी पैसा बकाया है और भुगतान न होने की वजह से पजेशन नहीं मिल रहा है.

रेरा अब पश्चिम बंगाल, गोवा और त्रिपुरा को छोड़कर सभी राज्यों में लागू हो गया है जबकि उत्तर-पूर्व के छह राज्यों में संवैधानिक दिक्कत है (देखें बॉक्स). असम और गोवा समेत कुछ राज्यों में सरकारों की सुस्ती की वजह से रेरा लागू नहीं हो सका है. दस राज्यों में इसकी वेबसाइट बनी है. अच्छी स्थिति महाराष्ट्र में है जहां रेरा में 13,000 से ज्यादा प्रोजेक्ट (15 लाख से ज्यादा घर), 9,000 से ज्यादा एजेंट रजिस्टर्ड हो चुके हैं और 215 शिकायतें भी खरीदारों ने दर्ज कराई हैं जिनमें दंडित करने का काम भी शुरू हो चुका है. इधर उत्तर प्रदेश में करीब एक हजार प्रोजेक्ट रजिस्टर्ड हुए हैं जिनमें से पांच सौ से ज्यादा गौतम बुद्ध नगर और गाजियाबाद के हैं. यहां शिकायतें तो हुईं हैं लेकिन कार्रवाई नहीं.

यह स्थिति ज्यादा दिनों तक शायद न रहे क्योंकि कानून लागू हो गया है तो उसकी जद में बिल्डरों और खरीदारों को आना ही होगा. रही बात मार्केट की सुस्ती की तो क्रेडाई अध्यक्ष आनंद कहते हैं कि तीन-चार महीने में सब कुछ पटरी पर आ जाएगा.

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