कांग्रेस के ''सुलतान" को जीवनदान
गुजरात अहमद पटेल के लिए प्रतिष्ठा का प्रश्न था; वह जानते थे कि हार से पार्टी के कुछ नेताओं के हौसले बुलंद होंगे

यह हार के जबड़ों से खींचकर निकाली गई फतह थी. कांग्रेस केकई लोग मनोबल तोडऩे वाली सबसे ताजातरीन हार—अहमद पटेल की राज्यसभा सीट गंवाने—के लिए खुद को तैयार कर चुके थे. मगर आधी रात को जब 8 अगस्त की तारीख 9 अगस्त में बदली और बीजेपी तथा कांग्रेस दोनों के बड़े नेता अपने फोनों पर जुटे थे और नाखून चबा रहे थे, चुनाव आयोग तारणहार के तौर पर आया और उसने कांग्रेस को वाकई इस आफत से बाहर निकाल दिया.
चुनाव आयोग ने कांग्रेस के बागियों के दो वोट अवैध करार देकर खारिज कर दिए, जिससे पटेल को ऊपरी सदन में पांचवां कार्यकाल जीतने के लिए 45 के बजाए 44 वोटों की जरूरत रह गई. उन्हें ठीक 44 वोट ही मिले, जिसकी उन्हें जरूरत थी. ताज्जुब क्या कि कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने कहा, ''शुक्र है चुनाव आयोग है." पिछले साल जून में पार्टी दूसरी तरफ थी, जब हरियाणा के राज्यसभा चुनावों में वह अपने 12 वोटों को अवैध घोषित कर देने के लिए चुनाव आयोग को बुरा-भला कह रही थी.
पटेल सोनिया गांधी के राजनैतिक सचिव और कट्टर वफादार हैं. अगर पटेल के ताकतवर दोस्त हैं, तो उन्होंने ताकतवर दुश्मन भी बनाए हैं जो उन्हें माफ करने को तैयार नहीं हैं. उनमें प्रमुख हैं भाजपा अध्यक्ष अमित शाह.
शाह को 2010 में तीन महीने जेल में बिताने पड़े थे और इसकी वजह थी पांच साल पहले पुलिस हिरासत में हुई सोहराबुद्दीन शेख की कथित हत्या से जुड़े आरोप जो उनके ऊपर लगाए गए थे. कुछ वक्त के लिए ही, पर इससे शाह के सियासी करियर को नुक्सान पहुंचा और इसके लिए उन्होंने पटेल को जिम्मेदार ठहराया था.
8 अगस्त को राज्यसभा के अपने पहले कार्यकाल के लिए गुजरात से चुने गए शाह ने पटेल को राज्यसभा की सीट से बेदखल करने, उनके सियासी खात्मे में तेजी लाने और ''कांग्रेसमुक्त भारत" के निर्माण की संभावना को आगे बढ़ाने को अपना मिशन बना लिया.
शाह की बदला लेने की जबरदस्त इच्छा और पटेल को बेइज्जत करने की तीव्र कामना ने एक नीरस तथा फीकी सियासी घटना को गैरमामूली मुकाबले में बदल दिया. यही वजह थी कि पार्टी की अशोभनीय अंतर्कलह सहित एक मुश्किल और थकाऊ मुहिम पर चिंतन-मनन करने के बजाए कांग्रेस इस तरह जश्न मना रही है मानो उसने दोबारा जन्म लिया है. जानकारों का कहना है कि पटेल भी नतीजे से इस कदर द्रवित दिखाई दे रहे थे जितना उन्हें पहले कभी नहीं देखा गया. अपनी सीट बचाना उनके लिए प्रतिष्ठा का मुद्दा बन गया था.
पटेल जानते थे कि हार से कांग्रेस के भीतर उन लोगों के हौसले भी बुलंद हो जाएंगे जो पार्टी में उनकी पकड़ को कमजोर होते देखना चाहते हैं. जब राज्यसभा के सदस्य और कांग्रेस नेता जयराम रमेश ने कहा कि कांग्रेसी अपनी सल्तनत जाने के बाद भी सुल्तानों को तरह बर्ताव कर रहे हैं, तब कुछ लोगों ने पटेल पर कटाक्ष के तौर पर इसकी व्याख्या की. रमेश कांग्रेस के उपाध्यक्ष राहुल गांधी के नजदीकी भरोसेमंद हैं और पटेल के अभियान में उनकी गैरमौजूदगी साफ दिखाई देती थी.
राहुल ने भी उन नेताओं के प्रति खास उत्साह नहीं दिखाया जिन्हें पटेल की सरपरस्ती हासिल थी. इनमें हिमंत बिस्व सरमा भी थे जो पिछले साल पाला बदलकर भाजपा में चले गए थे.
कांग्रेस के एक युवा सांसद बताते हैं, ''राहुल और पटेल की सियासत के तरीके अलग हैं." उन्होंने अपनी बात को नाम लिए बगैर छापने की गुजारिश करते हुए यह भी कहा कि ''दोनों के बीच कोई निजी अदावत नहीं है, बस तरीके का फर्क है." इसका मतलब है कि कांग्रेस बंटी हुई है और अक्सर ढुलमुल हालत में रहती है. उसे समझ नहीं आता कि चुनावी पराजयों और कई कट्टर समर्थकों के छोड़कर जाने के बाद वह क्या करे. मिसाल के लिए, सरमा के पार्टी छोड़कर चले जाने का नतीजा उसे पिछले साल असम विधानसभा में हार से चुकाना पड़ा.
दिसंबर में होने वाले गुजरात के चुनावों में कामयाबी की कोई भी संभावना जुलाई में पार्टी छोड़कर चले गए दिग्गज नेता शंकर सिंह वाघेला के साथ ही धुंधली हो गई है. ये सारी गड़बडिय़ां एक गैरमौजूद पार्टी आलाकमान की अध्यक्षता में हो रही हैं. कांग्रेस के एक महासचिव कहते हैं, ''राहुल और सोनिया के बीच कोई सर्वानुमति नहीं है कि असंतुष्ट नेताओं को कैसे संभाला जाए. पर मां और बेटा दोनों ही एक दूसरे के खिलाफ दिखाई देना नहीं चाहते."
फिलहाल पटेल राहत की सांस ले सकते हैं.
—साथ में, उदय माहूरकर