अब नकली बंदूक के लिए भी लेना होगा लाइसेंस

सरकार ने शस्त्र अधिनियम में बड़े बदलाव कर दिए हैं जिससे हथियार अब आम आदमी की पहुंच से बाहर.

शस्त्र कानून में बदलाव
शस्त्र कानून में बदलाव

भारतीय शस्त्र अधिनियम में बीते 50 साल में पहली बार 15 जुलाई को जारी एक गजट अधिसूचना के जरिए खामोशी से बड़ा बदलाव ला दिया गया. कश्मीर में जारी हिंसा के चलते केंद्रीय गृह मंत्रालय ने इस फैसले को प्रचारित करने से परहेज किया. गृह मंत्री राजनाथ सिंह ने इस संबंध में प्रस्तावित प्रेस कॉन्फ्रेंस को रद्द कर दिया, जिसमें उनके मंत्रालय की एक बड़ी उपलब्धि की घोषणा की जानी थी—पहली बार बनाया गया शस्त्रों के लाइसेंस का राष्ट्रीय डेटाबेस (एनडीएएल). वे इसे रद्द कर के कश्मीर निकल गए.

पिछली बार 2010 में हुआ था बदलाव
देश में लागू 1962 का शस्त्र अधिनियम शस्त्रों के निर्माण, बिक्री और लाइसेंस से जुड़ा हुआ है. पिछली बार 2010 में इसमें बदलाव लाया गया था. राजनाथ सिंह ने 26 जुलाई को सात सदस्यों की एक विशेष समिति बनाई जिसका काम कश्मीर में पेलेट गन यानी छर्रों के कम खतरनाक विकल्पों की तलाश करना था (इनका इस्तेमाल प्वाइंट थ्री नॉट थ्री राइफल और 12 बोर की शॉटगन के लिए किया जाता है). मंत्रालय की ओर से जारी नए शस्त्र नियमों में ''इलेक्ट्रॉनिक डिसेबलिंग डिवाइस" (ईडीडी) नामक हथियारों की एक नई श्रेणी को सामने रखा गया है जो लोगों को नुक्सान पहुंचाने के बजाए अस्थायी रूप से अक्षम बना देते हैं.

एनडीएएल में 26 लाख लाइसेंसधारी
इस नई नीति के अंतर्गत अब निजी सेक्टर सशस्त्र बलों और पुलिस के लिए आसानी से अस्त्र-शस्त्र का निर्माण कर सकेगा. लेकिन इसके बाद अब आम लोगों को निजी सुरक्षा के लिए बंदूकों का लाइसेंस हासिल करने में और दिक्कत आएगी. एनडीएएल में 26 लाख लाइसेंसधारी हैं. नए नियम प्रभाव में आने के बाद इस संख्या में ज्यादा इजाफा होने की संभावना कम है. नियमों के तहत हालांकि भारत में निशानेबाजी से जुड़ी प्रतिभाओं को प्रोत्साहन दिया गया है क्योंकि निशानेबाजी के खेल के लिए शस्त्रों के कोटे में इजाफा हुआ है. प्रतिष्ठित निशानेबाजों के लिए इसे 15,000 राउंड सालाना से बढ़ाकर 50,000 कर दिया गया है.

हालांकि नए शस्त्र अधिनियम के आलोचक इसे अजीबोगरीब करार दे रहे हैं. मसलन, इन नियमों में पेंटबॉल गन, मूवी प्रॉप और एयर राइफलों को पहली बार शामिल किया गया है जो पहले इसके तहत कवर नहीं थे. अब ऐसे हथियारों के निर्माण और बिक्री पर निगरानी और बंदिश रहेगी.

हथियार निर्माताओं की बल्ले-बल्ले
देश के 52 साल पुराने शस्त्र अधिनियम में सबसे बड़ा बदलाव जो किया गया है, वह विदेशी निर्माताओं और घरेलू निजी क्षेत्र को ऑटोमैटिक पिस्तौल, मशीन गन और असॉल्ट राइफल देश के भीतर बनाने का अधिकार प्रदान करता है.

उद्योग के अनुमान के मुताबिक, भारतीय सशस्त्र बलों, पुलिस और अर्धसैन्य बलों को सालाना 3,000 करोड़ रु. के अस्त्र-शस्त्र की जरूरत पड़ती है. ये सारी जरूरत सरकारी आयुध कारखानों से पूरी नहीं हो पाती है, जिसके चलते इनका आयात करना पड़ता है. गृह मंत्रालय जल्द ही अस्त्र-शस्त्र निर्माण नीति को जारी करने वाला है जिसके बाद पहली बार सरकार के मेक इन इंडिया अभियान के तहत विदेशी और घरेलू निजी निर्माता स्थानीय स्तर पर इनका उत्पादन कर सकेंगे. यह क्षेत्र 1962 से ही निजी क्षेत्र के लिए बंद रखा गया था जब शस्त्र अधिनियम के तहत इस क्षेत्र पर सरकारी एकाधिकार कायम कर दिया गया था. देश में मौजूद 95 निजी बंदूक कंपनियां केवल स्मूथ बोर सिंगल और डबल बैरल हथियार बना सकती हैं जबकि 25 कंपनियां इनके लिए कारतूस का उत्पादन करती हैं.

इस यथास्थिति में इस साल 20 जून को नाटकीय बदलाव आया जब सरकार ने इस क्षेत्र में 100 फीसदी एफडीआइ को मंजूरी दे दी और इसके तहत विदेशी तथा निजी उत्पादकों को यहां अपनी दुकान खोलने का न्योता दे दिया.

नई नीति में कारखानों को लाइसेंस दिए जाने की प्रक्रिया भी विस्तार से दर्ज है. इसे तय करने के लिए एक लाइसेंसिंग कमेटी होगी जिसके प्रमुख केंद्रीय गृह सचिव होंगे और सदस्यों में रक्षा मंत्रालय के सचिव, औद्योगिक नीति और संवद्र्धन विभाग के सचिव तथा उस राज्य के गृह सचिव शामिल होंगे जहां कारखाना खोला जाना है.

यह नीति निजी क्षेत्र की उन कंपनियों के लिए बड़ा प्रोत्साहन होगी जिन्होंने दशक भर पहले ही लाइसेंस प्राप्त कर लिए थे लेकिन उसके बाद इस दिशा में कोई प्रगति नहीं हुई है. इस गतिरोध की वजह सरकार के भीतर इस मसले पर मची खींचतान थी. कैबिनेट ने 2001 में तय किया था कि 26 फीसदी एफडीआइ के साथ निजी कंपनियों को अस्त्र-शस्त्र बनाने की मंजूरी दे दी जाए. इसके बाद वाणिज्य मंत्रालय ने रक्षा मंत्रालय से परामर्श के बाद लाइसेंस जारी कर दिए. इन लाइसेंसों को विदेशी निवेश संवर्धन बोर्ड की मंजूरी मिलनी बाकी थी. इस मसले पर गृह मंत्रालय भड़क गया कि उससे कोई परामर्श क्यों नहीं किया गया और उसने डीआइपीपी की ओर से लाइसेंस जारी किए जाने पर एतराज जता दिया. सरकार ने 2010 में आखिरकार घोषणा की कि शस्त्रों के लाइसेंस देने के मामले में गृह मंत्रालय को ही आखिरी अधिकार हासिल होगा और 2014 में एफडीआइ की सीमा बढ़ाकर 49 फीसदी कर दी गई. अब 100 फीसदी एफडीआइ के साथ राजकीय आयुध कारखाना बोर्ड का एकाधिकार खत्म हो गया है, साथ ही सशस्त्र बलों, पुलिस और अर्धसैन्य बलों के लिए शस्त्र आयात करने की अजीबोगरीब बाध्यता भी खत्म हो गई है.

नाम न छापने की शर्त पर एक निजी क्षेत्र की कंपनी के अधिकारी ने बताया कि नई नीति का मकसद हथियारों का एक ऐसा इकोसिस्टम तैयार करना है जहां हथियारों के अंश, स्लिंग और बट आदि के मामले में देश स्वावलंबी बन सके.

दशक भर पहले निजी क्षेत्र की जिन कंपनियों को छोटे हथियार बनाने का लाइसेंस मिला था, उनमें पुंज लॉयड एक थी. कंपनी में विनिर्माण के अध्यक्ष अशोक वाधवान कहते हैं, ''हमारे सुरक्षा बलों को अब मेक इन इंडिया के तहत बनी बंदूक मिल पाएगी." इस अक्तूबर में यह कंपनी इज्राएली वेपन्स इंडस्ट्रीज (आइडब्लूआइ) के साथ साझेदारी में असॉल्ट राइफलों और सबमशीनगन बनाने वाले एक कारखाने की स्थापना मध्य प्रदेश में करेगी. यह देश में अपने किस्म का पहला कारखाना होगा.

बंदूक का लाइसेंस मिलना और कठिन
नए शस्त्र कानून ने भारत में निजी सुरक्षा के लिए लाइसेंसधारी आग्नेयास्त्रों तक पहुंच बढ़ाने की पैरवी करने वाले तबके को स्तब्ध किया है. अब पहले के मुकाबले बंदूक का लाइसेंस पाना और कठिन हो जाएगा. वजह ये है कि लाइसेंस देने के नियमों में एक ''स्पीकिंग ऑर्डर" नामक उपबंध जोड़ दिया गया है. इसके तहत लाइसेंस प्रदाता अधिकारी को लाइसेंस देने या खारिज करने की वजह दर्ज करानी होगी. बंदूकप्रेमी और बंदूकों का ऑनलाइन रिसोर्स पोर्टल इंडियंसफॉरगन्स डॉट कॉम चलाने वाले अभिजीत सिंह कहते हैं, ''नए नियमों के मुताबिक सरकारी अफसर लाइसेंस न देने के कारण न बताने को मुक्त हैं, इसलिए स्पीकिंग ऑर्डर केवल नकारात्मक भूमिका के लिए ही रखा गया है. इसमें कुछ भी सकारात्मक नहीं है." नए प्रावधानों के तहत उत्तराधिकारी अब एक से ज्यादा हथियार नहीं रख सकता. ''अतिरिक्त लाइसेंसधारियों" को मूल लाइसेंसधारी का घर छोड़ते वक्त अपने लाइसेंस सरेंडर करने होंगे. बंदूकधारी लोगों का मानना है  कि नए नियमों का मकसद देश के भीतर कुल  शस्त्र लाइसेंसों की संक्चया को सीमित करना जान पड़ता है.

महंगा हो जाएगा बंदूक रखना
इसके अलावा लाइसेंस नवीनीकरण शुल्क को 100 रुपए से बढ़ाकर 3,000 रुपए कर दिया गया है, जिससे बंदूक रखना महंगा हो जाएगा, खासकर उन लोगों के लिए जो गांवों में रहते हैं और जिनके पास शस्त्र लाइसेंस हैं.

गृह मंत्रालय ने एक पुराने नियम में हालांकि राहत दी है. पहले ऑल इंडिया आर्म्स लाइसेंस केवल दिल्ली से जारी किया जा सकता था. अब इसे राज्य भी जारी कर सकते हैं.

लेकिन नेशनल एसोसिएशन फॉर गन राइट्स ऑफ इंडिया (एनएजीआरआइ) के अध्यक्ष राहुल राय कहते हैं, ''हमारा मकसद संविधान प्रदत्त जीवन और संपत्ति के अधिकार को सुनिश्चित करना था, खासकर महिलाओं और बुजुर्गों के लिए. नए शस्त्र नियम अंग्रेजों के जमाने से भी ज्यादा बुरे हैं."

लघु उद्योगों के लिए चिंताजनक बात यह है कि नए नियमों में नकली हथियारों, जैसे फिल्म की शूटिंग में इस्तेमाल होने वाले शस्त्रों और मनोरंजक गतिविधियों में काम आने वाले पेंटबॉल गन आदि को भी लाइसेंस के दायरे में ला दिया गया है. सिंडिकेट आर्मरी नामक कंपनी के मालिक अशोक राय लॉर्ड ऑफ द रिंग्स और बाजीराव मस्तानी जैसी फिल्मों के लिए नकली हथियारों की आपूर्ति कर चुके हैं. उनके जैसे लघु निर्माताओं को नए लाइसेंसिंग नियमों की चिंता सता रही है. नए नियमों के हिसाब से राय को अपने हथियारों की डिजाइन सरकार को जमा करनी होगी और वे महीने में 500 से ज्यादा नकली हथियार नहीं बना सकते. वे कहते हैं, ''हम निर्यात का काम करते हैं जिससे हमें 15 लाख डॉलर से ज्यादा की विदेशी मुद्रा की आय होती है और सीधे 400 लोगों को रोजगार मिला हुआ है. ऐसे नियमों से तो हम चीनी कंपनियों से होड़ नहीं ले सकते." असली हो चाहे नकली, हथियार बनाने वाले निजी क्षेत्र पर ही नए नियमों का असर पड़ना है.

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