सरकार भी कम जिम्मेदार नहीं

जब संसाधन सीमित हों तो प्राथमिकता और प्रबंधन के सिद्धांत के मुताबिक काम को व्यवस्थित किया जाता है. लेकिन न्यायपालिका में पुराने मुकदमों को और भी पुराना बना दिया जाता है और नए मामलों पर सुनवाई शुरू कर दी जाती है.

यह देखना बहुत दुखद था कि 25 अप्रैल को दिल्ली में मुख्यमंत्रियों और हाइकोर्ट के मुख्य न्यायाधीशों के संयुक्त सम्मेलन में देश के मुख्य न्यायाधीश (सीजेआइ) ने प्रधानमंत्री से एक भावुक अपील की. सीजेआइ मुकदमों के पहाड़ से निबटने के लिए जजों की कमी की समस्या बयान करते हुए रो पड़े. उनकी तकलीफ को समझा जा सकता है. जस्टिस टी.एस. ठाकुर ने दिसंबर, 2015 में जब से सीजेआइ का पद संभाला है, तभी से वे अपने स्टाफ और सहकर्मियों को आगे की चुनौतियों के लिए तैयार करते आ रहे हैं और इससे संबंधित दूसरे लोगों यानी केंद्र और राज्य सरकारों के अलावा वकीलों से भी सहयोग की उम्मीद कर रहे हैं.

दुर्भाग्य से केंद्र सरकार अब भी न्यायपालिका की ओर से एनजेएसी कानून को खारिज किए जाने और जजों की नियुक्ति के लिए बदनाम कॉलेजियम सिस्टम को बरकरार रखने की चोट से उबर नहीं पाई है. दोनों पक्षों की ओर से मंजूर प्रक्रिया के संशोधित ज्ञापन को हासिल करना आसान नहीं है और यह प्रक्रिया भविष्य में गड़बड़ी भी पैदा कर सकती है.

सीजेआइ ने मुकदमों में देरी के लिए दो मुख्य कारणों का उल्लेख कियाः वकीलों का अपनी छुट्टियां छोड़ने से मना करना, और 2005 में सुप्रीम कोर्ट के फैसले के अनुसार जजों और अदालतों की संख्या बढ़ाने में राज्य सरकारों की हिचकिचाहट, जिनके तहत निचली न्यायपालिका कार्य करती है. बहुत से राज्यों को लगता है कि न्यायपालिका से राज्य को कोई आमदनी नहीं होती है, इसलिए वे उस पर पैसा खर्च करना नहीं चाहते हैं.

केंद्र सरकार के नेशनल मिशन फॉर जस्टिस डिलिवरी ऐंड लीगल रिफॉर्म्स की हाल की एक बैठक में इस बात का खुलासा किया गया कि बहुत से राज्यों ने पिछले 3-4 वर्षों में अदालत के प्रशासन पर होने वाले खर्च में तेजी से कमी की है. दूसरी तरफ कुछ राज्यों ने न्यायालय शुल्क और आर्थिक दंडों के जरिए अपने निवेश की राशि को दोगुना कर दिया. एक राज्य ने तो एक साल में सिर्फ 4 करोड़ रु. खर्च किए थे, लेकिन न्याय प्रशासन के जरिए 203 करोड़ रु. जमा कर लिए. अगर यह जानकारी मुकदमों से जुड़े लोगों तक पहुंचा दी जाए तो वे अपने राज्यों के खिलाफ लड़ाई शुरू कर देंगे और राजनैतिकों को बार-बार समझाने के मुश्किल काम से सीजेआइ को मुक्त कर देंगे.

जहां अदालतों और जजों की संख्या बढ़ाना एक वांछनीय समाधान है, वहीं न्यायपालिका में व्यवस्था और उप-व्यवस्था से मुकदमों में देरी होती है. इस तरफ न ही कार्यपालिका और न ही न्यायपालिका की तरफ से कोई ध्यान दिया गया है. मुकदमे के विरोधात्मक मॉडल में विलंब अंतर्निहित है, जैसा कि सिविल प्रोसीजर कोर्ट, क्रिमिनल प्रोसीजर कोड और एविडेंस ऐक्ट में बनाया गया है.

इसलिए बहुत से देशों ने विवादों के समाधान के लिए गैर-विरोधात्मक व्यवस्था को अपनाया है और मामलों को मुकदमे के बिना ही आपसी बातचीत के जरिए निबटाने के लिए कह दिया है. हालांकि भारत ने करीब 10 साल पहले अपने कानूनों में संशोधन करके दीवानी के मुकदमों को मध्यस्थता के जरिए हल करने के लिए कह दिया था लेकिन नियमित मुकदमों के लिए सूचीबद्ध मामलों को कम करने की दिशा में कोई प्रयास नहीं किया गया. इसके लिए जज और वकील ही जिम्मेदार हैं.

साफ है कि हम 20वीं सदी के ढांचे और 19वीं सदी की मानसिकता से 21वीं सदी की व्यवस्था चला रहे हैं. जरा फैमिली कोर्ट, जुवेनाइल जस्टिस बोर्ड और ग्राम न्यायालयों पर नजर डालें-ये सभी विशेष अदालतें हैं जो गैर-विरोधात्मक फैसलों और आसान प्रक्रिया के जरिए विवादों को तेजी से निबटाने के लिए बनी हैं. संसद ने इनमें वकीलों की मौजूदगी को भी खत्म करने के नियम बनाए हैं. फिर भी ज्यादातर अदालतें अनसुलझे मुकदमों के बोझ से दबी हैं, जिसके कारण बहुतों को नियमित अदालतों की शरण में जाना पड़ रहा है.

जब संसाधन सीमित हों तो प्राथमिकता और प्रबंधन के सिद्धांत के मुताबिक काम को व्यवस्थित किया जाता है. लेकिन न्यायपालिका में पुराने मुकदमों को और भी पुराना बना दिया जाता है और नए मामलों पर सुनवाई शुरू कर दी जाती है. एक तरह के मामलों में प्रशिक्षित जजों का तबादला ऐसी अदालतों में कर दिया जाता है, जिसके लिए वे अच्छी तरह प्रशिक्षित नहीं होते हैं. उन पर प्रशासनिक जिम्मेदारियां भी थोप दी जाती हैं, जिसके कारण वे अदालती कार्यों के लिए पर्याप्त समय नहीं दे पाते हैं.

अदालतों और मुकदमों के बुद्धिमत्तापूर्ण प्रबंधन के लिए दैनिक आधार पर कार्यसूची की स्थिति और कार्यवाही के चरण पर एक भरोसेमंद और नवीनतम जानकारी की जरूरत होती है. इस काम को आधुनिक तकनीक के बिना कभी नहीं किया जा सकता है. हालांकि कुछ अदालतें उस दिशा में आगे बढ़ रही हैं, लेकिन बहुत-सी अदालतें आज भी तकनीकी सहयोग के बिना ही काम कर रही हैं.

देरी के लिए जिम्मेदार एक बड़ा मुद्दा है, जिसके बारे में नेता और जज बात करने से बचते हैं, वह है “बार” में सुधार लाना. किसी पिरामिड की तरह संगठित, सुपरस्टार, वकील मोटी कमाई वाले सभी मुकदमों पर एकाधिकार कर लेते हैं और अदालतों के साथ सहयोग नहीं करना चाहते हैं, क्योंकि एक ही समय में कई अदालतों में उनकी मौजूदगी अपेक्षित होती है. वे किसी न किसी बहाने स्थगन की मांग करते हैं और इसकी वजह से मुकदमों में देरी होती है. यहां तक कि जब वे लिखित वकालत के जरिए अपना काम कर सकते हैं, फिर भी वे ऐसा नहीं करते हैं-शायद अपने मुद्दई को खुश करने और मोटी फीस को सही ठहराने के लिए. बार काउंसिलें, जो वकीलों को अनुशासित कर सकती हैं, या तो उदासीन बनी रहती हैं या फिर वे खुद भी इस लूट में शामिल रहती हैं. सरकार ने उन्हें पेशेवर बनाने के लिए वकील कानून में सुधार करने की दिशा में कोई कदम नहीं उठाए हैं.

सीजेआइ ने सही कहा हैः इसके लिए सिर्फ जज ही जिम्मेदार नहीं हैं. न्याय की ढहती इमारत के लिए सरकार और वकील कम जिम्मेदार नहीं हैं. लेखक एनएलएसआइयू, बेंगलूरू और एनयूजेएस, कोलकाता के संस्थापक वीसी रहे हैं

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