दशकों बाद भी 'गुमनाम' है नेताजी के जीवन का रहस्य
उत्तर प्रदेश की सरकार देश की सबसे प्रसिद्ध गुमनाम शख्सियत के जीवन की तीन दशक पुरानी गुत्थी को सुलझाने में लगी लेकिन नेताजी के परिजनों ने गुमनामी बाबा को महज अटकल मान खारिज किया.

दशकों तक गुमनामी बाबा की कहानी देश के सबसे रोचक रहस्यों में एक रही है, जिनकी फैजाबाद में 1985 में मृत्यु हो गई थी. इस कथा में यह अटकल हमेशा से सनसनी घोलती रही कि जल्दी-जल्दी ठिकाना बदलते रहने वाला यह रहस्यमय शख्स कोई और नहीं, बल्कि नेताजी सुभाषचंद्र बोस ही थे, जो जीवन के आखिरी साल गुमनामी में बिता रहे थे. पिछले 3 अप्रैल को अखिलेश यादव सरकार ने गुमनामी बाबा की मूल पहचान पता करने के लिए जांच समिति बैठाकर इस पहेली को नया जीवन दे दिया.
मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने इंडिया टुडे से इस बारे में कहा, ''हम इनसान हैं. जब हम किसी रहस्य के बारे में सुनते हैं तो उसकी पड़ताल करने की कोशिश करते हैं.'' हालांकि मुख्यमंत्री ने फौरन यह साफ भी कर दिया कि वे तो सिर्फ हाइकोर्ट के निर्देशों का पालन कर रहे हैं. इलाहाबाद हाइकोर्ट ने 31 जनवरी, 2013 को राज्य सरकार को यह निर्देश दिया था कि वह गुमनामी बाबा की वस्तुओं को संग्रहालय में प्रदर्शित करे और बाबा की पहचान पुख्ता करने के लिए एक जांच आयोग गठित करे. जांच समिति की अघ्यक्षता शायद हाइकोर्ट के एक रिटायर्ड जज करेंगे और उसमें विशेषज्ञों की एक टीम शामिल रहेगी.
यह फैसला दो याचिकाओं के जवाब में आया था. पहली नेताजी की भतीजी ललिता बोस ने 1986 में दायर की थी और दूसरी बीजेपी नेता शक्ति सिंह ने 2010 में. इनमें यह मांग की गई थी कि इसका पता लगाया जाए कि गुमनामी बाबा कौन थे. फिर भी, राज्य सरकार का कदम जितना कोर्ट के फैसले का सम्मान करने वाला है, उतना ही गहरी राजनैतिक चतुराई भरा भी.
पिछले साल इंडिया टुडे ने नेताजी के परिजनों की इंटेलीजेंस ब्यूरो की दो दशकों तक की गई जासूसी का पर्दाफाश किया था. उसके बाद मोदी सरकार और पश्चिम बंगाल की ममता बनर्जी सरकार ने 'नेताजी की फाइलों' को सार्वजनिक करने का काम शुरू कर दिया था. अखिलेश यादव सरकार ने भी इस दिशा में तेजी दिखाई. बीजेपी को कोर्ट के फैसले से कोई राजनैतिक फायदा उठाने से रोकने के लिए उत्तर प्रदेश सरकार ने गुमनामी बाबा की वस्तुओं को अयोध्या में बने सरकारी 'राम कथा संग्रहालय' में प्रदर्शित करने का फैसला किया.
मोदी सरकार ने फाइलों को सार्वजनिक करने का काम तेज किया तो उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री ने जांच समिति गठित करने का आदेश दे दिया. विदेश मंत्रालय, गृह मंत्रालय और प्रधानमंत्री के कार्यालय से अब तक 150 फाइलें सार्वजनिक की जा चुकी हैं. लेकिन इनमें किसी भी फाइल में अब तक फैजाबाद के उस रहस्यमय फकीर का जिक्र नहीं मिला है. इसे नेताजी पर शोध कर रहे अनुज धर ने बड़ा ही अजीब बताया है. अनुज ने हाल ही में अखिलेश यादव से मुलाकात करके गुमनामी बाबा के बारे में जांच करने का अनुरोध किया था.
अनुज कहते हैं, ''सार्वजनिक की गई फाइलों में नेताजी से संबंधित आरटीआइ के तहत आए प्रश्न भी शामिल हैं. लेकिन अजीब बात है कि 1986 से इलाहाबाद हाइकोर्ट में चल रहे इस केस के बारे में इन फाइलों में कुछ नहीं है.'' वे यह भी कहते हैं ''अगर गुमनामी बाबा कोई धोखेबाज होते तो नेताजी सुभाष चंद्र बोस होने का दावा करते.'' हालांकि नेताजी के नजदीकी रिश्तेदार इन कयासों को गलत बताते हैं कि गुमनामी बाबा दरअसल खुद नेताजी ही थे.
बंद दरवाजों के पीछे
तीन दशक पहले गुमनामी बाबा की रोजमर्रा की वस्तुओं को फैजाबाद की जिला ट्रेजरी के 'डबल लॉक' सेक्शन में लोहे की जालियों के पीछे बंद कर दिया गया था. यह ललिता बोस की 1986 की उस याचिका के जवाब में हाइकोर्ट के निर्देश के तहत था जिसमें बाबा की मूल पहचान का पता लगाने और उनकी वस्तुओं को सुरक्षित रखने का अनुरोध किया गया था.
उनकी 'रोजमर्रा की वस्तुएं' ट्रेजरी में रखी रहीं. पहले उनकी छानबीन नेताजी के गायब होने की जांच कर रहे जस्टिस मुखर्जी कमिशन ने 1999 में की और फिर हाल ही में उस विशेषज्ञ समिति ने जिसे इस साल मार्च में अखिलेश यादव सरकार ने वस्तुओं की सूची तैयार करने के लिए नियुक्त किया था.
ट्रेजरी के अधिकारी टिन के इन बक्सों को बाहर निकालते हैं, उनका ताला खोलते हैं और बेहद तसल्ली से उस व्यक्ति का दृश्य इतिहास सामने ला देते हैं, जो खुद हमेशा गुमनाम रहना चाहता था. अजीब बात यह थी कि जिस व्यक्ति ने कभी अपनी कोई फोटो नहीं खींचने दी, उस बाबा ने कई सारी फोटो जमा कर रखी थीं. इनमें से कई फोटो नेताजी बोस के परिजनों की थी. इनमें नेताजी के पिता-माता जानकीनाथ और प्रभावती की फ्रेम की हुई तस्वीर है, नेताजी के बचपन की भी तस्वीरें हैं जिनमें वे अपने भाई-बहनों के साथ नजर आ रहे हैं.
तंबाकू पीने के लिए तीन 'आधे मुड़े डबलिन पाइप' भी हैं और उनसे जुड़ा सामान भी, जैसे पाइप साफ करने के औजार, दूरबीन, वारंटी के साथ रोलेक्स ओएस्टर परपेच्युअल कलाई घड़ी, कैसेट टेप प्लेयर, पोर्टेबल टाइपराइटर, एक रेडियो, भारतीय राजनीति पर दर्जनों किताबें, जिनमें कुछ कुलदीप नैयर की लिखी हुई हैं, नेविले मैक्सवेल की इंडियाज चाइना वार की प्रतियां, सुभाष बोस की जीवनियां और आनंद बाजार पत्रिका के अंकों का ढेर.
चालीस साल के भीतर तीसरी सरकारी जांच कर रहे जस्टिस मुखर्जी जांच आयोग ने 2004 में यह निष्कर्ष निकाला कि नेताजी की मृत्यु 1945 में विमान हादसे में नहीं हुई थी. लेकिन आयोग ने साथ ही यह भी कह दिया कि इस बात को कहने के कोई पुख्ता साक्ष्य नहीं हैं कि गुमनामी बाबा दरअसल खुद नेताजी ही थे. वे इस नतीजे पर लेखनी के विश्लेषण और डीएनए जांच के बाद पहुंचे. गुमनामी बाबा ने अपने जीवनकाल में कभी यह दावा नहीं किया कि वे नेताजी हैं, लेकिन उनके मरने के दशकों बाद तक यह दावा जोर पकड़े हुए है कि वही दरअसल नेताजी थे.
बाबा को ही नेताजी मानने वाले लोगों का दावा है कि सबसे पुख्ता साक्ष्य तो 2010 की वह डॉक्युमेंटरी है जिसमें जस्टिस मुखर्जी को कैमरे से परे यह कहते हुए बताया गया है कि वह इस बात पर सौ फीसदी आश्वस्त हैं कि बाबा ही दरअसल नेताजी थे. गुमनामी बाबा के पीछे कोई गहरी अंतर्कथा है, इस कयास को बोस परिवार में उनकी अत्यधिक रुचि और नेताजी की एक पूर्व सहयोगी और स्वतंत्रता सेनानी लीना रॉय और आइएनए के खुफिया अधिकारी पबित्र मोहन रॉय से उनके संपर्क से बल मिलता है. इनके बीच पत्राचार 1960 के दशक से लेकर बाबा की मृत्यु तक मिलता है.
शिक्षाविद् और फैजाबाद में जिंगल बेल्स स्कूल की पूर्व प्रिंसिपल 64 वर्षीया रीटा बनर्जी को 1970 के दशक में अपने पति के साथ मिलकर की गई बाबा से मुलाकातों की धुंधली याद है जब बाबा अयोध्या में रहते थे. उनके ससुर एक जाने-माने होम्योपैथ थे जिनकी मौत 1984 में हो गई थी. उनके मन में इस बात को लेकर कहीं कोई शंका नहीं थी कि बाबा और कोई नहीं बल्कि नेताजी ही थे. हालांकि खुद रीटा इसे लेकर आशंकित रहीं. बनर्जी कहती हैं, ''भगवानजी ने कभी अपना नाम जाहिर नहीं किया और एक बार खुद को रजिस्टर्ड साधु बताया, यानी वह, जिसका नाम दुनिया के बहीखाते से कट चुका है, इसका निहितार्थ यह था कि वे अपनी पसंद से साधु नहीं बने थे.'' एक अन्य मौके पर बाबा ने इस बात पर दुख प्रकट किया कि उनका देश है, माता-पिता हैं, भाई-बहन हैं लेकिन वे उनमें से किसी को भी अपना नहीं कह सकते.
लेकिन दुनिया से संन्यास लेने वाले बाबा को जीवन में बड़ी उम्दा चीजें पसंद थीं, आज के दिनों के तमाम 'बाबाओं' की ही तरह. रोलेक्स के अलावा वे महंगी 555 सिगरेट पीते थे, कथित तौर पर उनके पास नए करेंसी नोटों की आमद रहती थी और वे मटन-कीमा व 'शुक्तो' (एक बंगाली व्यंजन) खाना बहुत पसंद करते थे.
बाबा ने 1982 में जिस राम भवन को अपने आखिरी निवास के तौर पर चुना, वहां फैजाबाद के दो सबसे विवादास्पद इतिहास आकर एक दूसरे को काटते हैं. यह दो मंजिला इमारत जिसके ऊपर एक केसरिया झंडा फहराता रहता है, गुरु दत्त सिंह का भी निवास है जो इस जिले के मजिस्ट्रेट रहे थे और जिन्होंने 1949 में विवादित बाबरी मस्जिद ढांचे के भीतर रामलला की मूर्ति स्थापित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी.
इस विशाल कोठी के भीतर गुरु दत्त सिंह के परिवार ने जो कई सारे अलग-अलग कमरे बनाए हैं, उनमें से एक में बाबा 400 रुपए प्रति महीने के किराए पर रहते थे. दशकों बाद, गुरु दत्त सिंह के पोते शक्ति सिंह बाबा की कहानी को पुनर्जीवित करने में अपनी भूमिका को लेकर गौरवान्वित हैं. शक्ति सिंह जिला प्रशासन द्वारा बाबा की वस्तुओं की सूची तैयार करने के लिए गठित की गई कमेटी के भी सदस्य हैं. वे अपने घर के पिछले हिस्से में हमें लेकर जाते हैं जहां एक छोटे-से 300 वर्ग फुट के कमरे में बाबा रहते थे.
शक्ति सिंह दावा करते हैं कि उन्होंने बाबा का चेहरा कभी नहीं देखा.
1982 में एक स्थानीय डॉक्टर ने गंजे होते दाढ़ी वाले बाबा के लिए कमरा किराए पर लिया था. शक्ति सिंह के ये किराएदार अपने दिन का सारा वक्त कमरे के भीतर ही बिताते थे. उनसे मिलने बहुत कम ही लोग आते थे और वे कभी अपना चेहरा नहीं दिखाते थे. उनकी तेज व गूंजती हुई आवाज थी और वे दोहरी नजर वाला गोल चश्मा पहनते थे. शक्ति सिंह कहते हैं, ''वे हमसे हमेशा खिड़की के जरिए बात किया करते थे और कभी अपना चेहरा नहीं दिखाते थे.''
शक्ति सिंह का कहना था कि तीन साल के दौरान उन्होंने एक बार भी अपने पिता के किराएदार का चेहरा नहीं देखा (गुमनामी बाबा की एक बहुप्रचलित तस्वीर दरअसल एक कंप्यूटर-जनित छवि है जो एक अखबार ने 2001 में तैयार की थी). शक्ति सिंह का कहना है, ''लेकिन इस बात के कई परिस्थितिजन्य साक्ष्य मौजूद हैं जिनसे यह स्थापित हो जाता है कि गुमनामी बाबा ही दरअसल नेताजी थे. ''
बाबा इसके अलावा सिर्फ एक और नाम- भगवानजी के तौर पर जाने जाते थे. लेकिन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के दूसरे प्रमुख एम.एस. गोलवलकर के 16 सितंबर, 1972 को लिखे गए एक पत्र में, जो बाबा की वस्तुओं में से मिला है, उनका एक और नाम सामने आता हैः संघ प्रमुख ने उन्हें 'परम पूज्यपाद विजयानंदजी महाराज' लिखकर संबोधित किया है. इस पत्र का संदर्भ अस्पष्ट है, लेकिन उसमें उल्लेख हैः ''मुझे 25 अगस्त से 2 सितंबर के बीच लिखे हुए आपके पत्र 6 सितंबर, 1972 को मिले. मैं आपके द्वारा इंगित की गई तीन जगहों के बारे में पता लगाने की कोशिश करूंगा, लेकिन अगर आप पत्र में उल्लिखित तीन जगहों से जुड़ा कोई एक खास स्थान स्पष्ट चिन्हित कर सकें तो निश्चित तौर पर मेरा कार्य आसान हो जाएगा.''
16 सितंबर, 1985 को बाबा की मृत्यु के तुरंत बाद शक्ति सिंह परिवार ने बोस के परिवार से संपर्क किया. नेताजी की भतीजी ललिता बोस फैजाबाद में बाबा के कमरे पर आईं (इस कमरे से अब शक्ति सिंह का एनजीओ सुभाष चंद्र बोस राष्ट्रीय विचार केंद्र संचालित होता है). शक्ति सिंह कहते हैं, ''उन्होंने दीवार पर नेताजी के परिवार की तस्वीरों को देखा, किताबों को देखा, दस्तावेजों को देखा और बिस्तर पर बैठकर बोलीं, वे नेताजी सुभाषचंद्र बोस ही थे.''
गुमनामी बाबा की मौत के कुछ ही हफ्तों के भीतर फैजाबाद के स्थानीय अखबारों को कहानी की गंध आने लगी, खास तौर पर जब बाबा की विचित्र व्यक्तिगत वस्तुओं की जानकारी बाहर छनकर आने लगी. तब 25 अक्तूबर, 1985 को एक स्थानीय हिंदी अखबार नए लोग का बैनर शीर्षक थाः ''क्या फैजाबाद में गुमनाम तरीके से रह रहे नेताजी सुभाषचंद्र बोस की मृत्यु हो चुकी है?'' इस खबर ने मीडिया जगत में सनसनी फैला दी और जल्दी ही अन्य अखबारों ने भी मामले को उठा लिया. इस तरह इससे एक नई कहानी का जन्म हुआ.
बाबा का संग्रहालय
अब फैजाबाद के यही दो विवादास्पद इतिहास फिर से इस साल मिलने वाले हैं. इस साल अगस्त में किसी समय, अखिलेश यादव राम कथा संग्रहालय में गुमनामी बाबा की वस्तुओं, किताबों, पाइप और फोटोग्राफ के संग्रहालय का उद्घाटन करेंगे. यह संग्रहालय विवादास्पद राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद परिसर से बमुश्किल एक किलोमीटर दूर सरयू नदी के तट पर दो मंजिला कंक्रीट इमारत में स्थित है. कुल 12 करोड़ रुपए की लागत से बना यह ढांचा पिछली जनवरी में पूरा हो गया था.
संग्रहालय में प्राथमिक तौर पर प्रदर्शित की गई वस्तुओं में करीने से कतार में रखे गए वे पत्थर भी शामिल हैं जो कथित तौर पर उस मंदिर के भग्नावशेष हैं जो 1992 में अयोध्या में ढहाई गई बाबरी मस्जिद के नीचे था. पत्थर संग्रहालय की पहली मंजिल पर प्रदर्शित किए गए हैं. गुमनामी बाबा गैलरी संग्रहालय के चार हॉल संख्या 4 से 7 में रहेगी. हर हॉल 5,000 वर्ग फुट का है.
बोस परिवार के ज्यादातर लोग इस तरह के किसी भी कयास को सीधे खारिज कर देते हैं कि बाबा के भेस में दरअसल नेताजी ही वहां रह रहे थे. मुंबई में व्यवसायी, नेताजी के भतीजे अर्धेंदु बोस इस तरह की कयासबाजियों को बेहूदा बताते हैं. वे कहते हैं, ''इन बाबा ने एक बार भी कभी मुझे या बोस परिवार के किसी भी अन्य सदस्य से संपर्क करने की कोशिश नहीं की, जिनमें नेताजी के भाई और भतीजे शामिल हैं जो 1990 के बाद तक भी जिंदा थे. मुझे याद नहीं कि मेरे पिता शैलेष चंद्र बोस ने कभी इन बाबा का जिक्र किया हो.''
निर्वासन में भारत की पहली सरकार का गठन करने वाले नेताजी सुभाषचंद्र बोस के विमान हादसे में मारे जाने की बात पर यकीन न करने की बात नेताजी की असामान्य जिंदगी से थोड़ी स्पष्ट हो जाती है. नेताजी नजरबंदी से भाग निकले, पहले एक इंश्योरेंस एजेंट के रूप में और फिर एक इतालवी व्यवसायी के रूप में भेस बदलकर वे पहले अफगानिस्तान, फिर स्टालिन के सोवियत संघ और अंत में हिटलर के जर्मनी में पहुंच गए. आखिर में वे पनडुब्बी में बैठकर फिर से दक्षिण-पूर्व एशिया लौटे और जापानियों के साथ मिलकर आजाद हिंद फौज का गठन किया. इन तमाम वर्षों में उन्हें कभी चीन में तो कभी सोवियत संघ में तो कभी पेरिस तक में देखे जाने की अफवाहें उड़ती रहीं.
नेताजी के चमत्कारिक रूप से बच निकलने की कहानियां बाबा और साधु-संतों के रूप में उनके जीवन के साथ आकर घुल-मिल गई हैं. कम से कम तीन अन्य बाबाओं के अनुयायी अपने गुरु के भेस बदलकर रह रहे नेताजी होने का विश्वास करते रहे हैं. इनमें देहरादून में रहने वाले और 1970 के दशक के आखिरी वर्षों में सिधारे स्वामी श्रद्धानंद शौलमारी साधु, मध्य प्रदेश के शिवपुरकलां में रहे साधु ज्योतिर्देव और महाराष्ट्र में सोलापुर के एक अन्य साधु शामिल हैं. इन मिथकों में से भी दो की तो पड़ताल हो चुकी है और वे खारिज कर दिए गए हैं. अब बारी सबसे विश्वसनीय दंतकथा के परीक्षण की है.
लखनऊ के एक तर्कशक्ति शिक्षक अधीर सोम कहते हैं, ''या तो वे नेताजी थे या फिर वे भारतीय इतिहास में सबसे लंबी चली अफवाहों में से एक के मुख्य किरदार हैं.'' तीन दशकों के बाद आखिर इस रहस्यमय फकीर का मामला भी अंत की ओर पहुंचने को है.