राख ही राख, जिंदगी को मोहताज मवेशी और इंसान
बिजलीघरों से निकली कोयले की राख आसपास की नदियों और जलाशयों को बना रही जहरीला. इस प्रदूषण से लोग बीमारियों के शिकार हो रहे, पर समस्या को नजरअंदाज किया जा रहा है. निर्देशों के बावजूद फ्लाई ऐश के निबटान की कोई योजना नहीं.

उत्तर प्रदेश के झांसी जिला मुख्यालय से कानपुर हाइवे पर 25 किलोमीटर चलने पर परीछा थर्मल पॉवर प्लांट और बेतवा नदी के बीच स्थित रिछौरा और परीछा गांव विकास की कीमत अदा कर रहे हैं. इन गांवों में आपको एक भी मवेशी दिखाई नहीं पड़ेगा. रिछौरा गांव के 30 वर्षीय अमर सिंह अहिरवार पांच वर्ष पहले दो गाय खरीदकर लाए थे. पर कुछ ही दिन बाद उनकी गायें बीमार रहने लगीं. डॉक्टरों से पता चला कि बेतवा नदी का प्रदूषित पानी पीने से गायों के पेट में राख जमा हो रही है.
कुछ ही दिनों में अमर की दोनों गायें चल बसीं. बुंदेलखंड पैकेज के तहत अमर सिंह को जो तीन बकरियां मिली थीं, उनमें से आखिरी ने पिछले हफ्ते दम तोड़ दिया. बेतवा नदी के किनारे फैली राख को दिखाते हुए अमर सिंह कहते हैं, "पॉवर प्लांट लगने से गांव में बिजली तो मिली लेकिन प्लांट की राख ने बेतवा नदी की सांसें छीन ली हैं.''
झांसी-कानपुर हाइवे पर जैसे-जैसे परीछा पॉवर प्लांट के नजदीक पहुंचते हैं, तापघर की ओर जाने वाली सड़कें राख से पटी नजर आती हैं. मकानों की छतों पर राख का साम्राज्य है. यही राख परीछा गांव में रहने वाले 75 साल के रामसेवक की सांसों में भी भर गई है.
रामसेवक टीबी के मरीज बन चुके हैं, दो वर्ष पहले उनकी पत्नी भी बीमारी से लड़ते हुए चल बसीं. दो जवान बेटे हैं, जो अपने परिवार को लेकर किसी भी कीमत पर गांव में नहीं रहना चाहते पर रामसेवक को अपने पुरखों का मकान छोडऩा गवारा नहीं.
इस वर्ष हुई अच्छी बारिश ने कुछ राहत दी है. छतों पर जमी कोयले की राख को बारिश का पानी बहा तो ले गया पर इसने गांव के किनारे बह रही बेतवा को और "विषैला'' करने में कोई कसर नहीं छोड़ी.
बुंदेलखंड में स्थित केवल परीछा पॉवर प्लांट ही नहीं, देश में ऊर्जांचल के नाम से मशहूर सोनभद्र का इलाका भी तापघरों से निकलने वाली राख के ढेर में तब्दील होता जा रहा है. नवंबर, 2009 में केंद्र सरकार के वन और पर्यावरण मंत्रालय ने सभी ताप बिजलीघरों को पांच वर्ष के भीतर उत्सर्जित होने वाली राख के शतप्रतिशत उपयोग के आदेश दिए थे.
सरकारी आदेश का इन ताप बिजलीघरों ने किस तरह मखौल उड़ाया है "केंद्रीय विद्युत प्राधिकरण'' की रिपोर्ट ही इसकी तस्दीक कर देती है. रिपोर्ट के अनुसार "नेशनल थर्मल पॉवर कार्पोरेशन'' (एनटीपीसी) के विंध्याचल, रिहंद और सिंगरौली तापघरों ने महज 60 फीसदी राख का ही उपयोग किया और बाकी राख "ऐश डैम'' में डाल दी गई.
उत्तर प्रदेश उत्पादन निगम के अनपरा और ओबरा बिजलीघरों ने तो केवल छह फीसदी से भी कम राख का सदुपयोग किया और बाकी राख से ऐश डैम भर गए. रिपोर्ट के मुताबिक, ऊर्जांचल में सालाना 90 लाख टन से ज्यादा राख बांधों में जमा हो रही है.
केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (सीपीसीबी) की 2017 में जारी रिपोर्ट के मुताबिक पूरे उत्तर प्रदेश के कुल 18 ताप बिजलीघरों की महज 43 फीसदी राख का ही इस्तेमाल किया जाता है. वैसे उत्तर प्रदेश के आस-पास के राज्यों का भी फ्लाईऐश के इस्तेमाल का रिकॉर्ड कुछ खास नहीं. छत्तीसगढ़ में बिजलीघरों की राख का 31 फीसदी और मध्य प्रदेश में 29 फीसदी ही इस्तेमाल किया जाता है.
इस राख ने बिजलीघरों के इर्द-गिर्द बसे इलाकों में लोगों का जीवन नारकीय बना दिया है. उत्तर प्रदेश के ऊर्जा मंत्री श्रीकांत शर्मा कहते हैं, "वायु प्रदूषण के कारण ईंट भट्ठे लगाने पर पर्यावरण मंत्रालय सख्त है, ऐसे में पॉवर प्लांट की राख से ईंट निर्माण न केवल ईको-फ्रेंडली है बल्कि इसमें लागत भी कम आती है. सरकार सभी तापघरों को आदेश देने जा रही है कि वे अपने "सोशल रेस्पांसिबिलिटी फंड'' (सीआरएफ) के तहत फ्लाइ ऐश से ईंट बनाने का प्लांट भी लगाएं.''
बांध से बाहर बहती राख
परीछा थर्मल पॉवर प्लांट के ठीक पीछे स्थित रिछौरा और परीछा गांवों में पसरा सन्नाटा अलग किस्सा बताता है. 30 वर्ष पहले दस हजार से अधिक आबादी वाले इन गांवों से आधे से ज्यादा लोग पलायन कर गए हैं.
परीछा के समाजसेवी महावीर सिंह कहते हैं, "पानी के लिए तरस रहे बुंदेलखंड में नदी का पानी ही जहरीला हो जाए तो इनके किनारे बसे गांवों की हालत का अंदाजा लगाया जा सकता है.'' वर्ष 1984 में काम शुरू करने वाले परीछा थर्मल पॉवर प्लांट में अब छह इकाइयां हैं जहां रोजाना 16,000 मीट्रिक टन कोयले की खपत होती है और रोजाना 14,000 मीट्रिक टन गीली राख निकलती है जिसे डैम में भेजा जाता है.
परीछा थर्मल पॉवर प्लांट के एक अधिकारी बताते हैं, "210 मेगावाट क्षमता वाली इकाइयों से निकलने वाली राख के लिए बने दोनों डैम भर चुके हैं जबकि 110 मेगावाट क्षमता वाली इकाइयों के लिए बने डैम का एक कंपार्टमेंट भर चुका है. अब राख दूसरे कंपार्टमेंट में डाली जा रही है. इसमें भी छह महीने तक ही राख रखने की व्यवस्था है.''
अधिकारियों की मनमानी
सुप्रीम कोर्ट के अधिवक्ताओं और प्रदूषण का अध्ययन करने वाले कार्यकर्ताओं की टीम 21 जुलाई को जब उत्तर प्रदेश राज्य विद्युत उत्पादन निगम की सबसे बड़ी परियोजना अनपरा से निकलने वाली राख का प्रबंधन देखने पहुंची तो दंग रह गई.
समिति के सदस्यों को जानकारी मिली कि अनपरा से निकलने वाली राख रिहंद डैम में जाने से रोकने के लिए लगाया गया "ऐश वाटर रिसाइकिलिंग प्लांट'' पिछले डेढ़ माह से बंद है. अनपरा प्रोजेक्ट के बगल में मौजूद गांव पिपरी में रहने वाले श्याम कुमार बताते हैं, "ऐश डैम के रखरखाव से जुड़े अधिकारियों की लापरवाही और पर्याप्त देखरेख न करने से ऐश वॉटर रिसाइकिलिंग प्लांट में लगे पाइप अक्सर टूट जाते हैं.
जिससे राख न केवल रिहंद जलाशय में चली जाती है बल्कि आसपास के खेतों में भी पहुंचकर पूरी फसल नष्ट कर देती है.'' हालांकि अनपरा तापीय परियोजना के राख डैम के प्रभारी विनोद कुमार ग्रामीणों के आरोपों को सिरे से खारिज करते हैं. विनोद कुमार कहते हैं, "अनपरा के तीनों रीसाइकिलिंग प्लांट चालू हैं और रिहंद जलाशय में राख नहीं बहाई जा रही है.''
सोनभद्र के थर्मल पॉवर प्लांट से "ऐश रीसाइकिलिंग प्लांट'' तक राख को ट्रकों से पहुंचाने में हो रही गड़बड़ी की शिकायत स्थानीय सामाजिक कार्यकर्ता आशीष चौबे ने नेशनल ग्रीन ट्रीब्यूनल और पर्यावरण विभाग से की है. आशीष कहते हैं, "ऊर्जांचल में शक्तिपुर-कोटा मार्ग पर पॉवर प्रोजेक्ट से निकली राख, जले कोयले के अवशेष के साथ कई तरह का केमिकल युक्त कचरा सड़क के दोनों ओर फेंका जा रहा है.
जिससे स्थानीय पर्यावरण को नुक्सान पहुंचा है.'' अधिकारियों की मनमानी ने 7 जुलाई को विकास योजनाओं की शुरुआत करने सोनभद्र पहुंचे मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की भी किरकिरी करा दी. उन्हें सोनभद्र के सलखन में बिजलीघरों से निकलने वाली राख से "फ्लाइऐश ब्रिक प्लांट'' का शिलान्यास करना था. अंतिम क्षणों में मुख्यमंत्री कार्यालय को पता चला कि प्रस्तावित शिलान्यास वाली जमीन विवादित है. आनन-फानन मुख्यमंत्री का कार्यक्रम निरस्त किया गया.
कराह रही बेतवा नदी
बेतवा में मिलाई जा रही राख से जहरीले हुए पानी ने पिछले दो साल में परीछा और रिछौरा गांवों में 50 से ज्यादा पालतू पशुओं की जान ले ली है. परीछा गांव के जगदीश परिहार बताते हैं, "बेतवा में केमिकल वाली राख मिलने का असर गांव के हैंडपंपों पर भी पड़ा है.
अब इन हैंडपंपों से भी प्रदूषित पानी ही मिलता है.'' रिछौरा गांव के प्रधान कुलदीप सिंह बताते हैं, "बेतवा नदी की तलहटी में 20 से 25 फुट तक राख जमा हो जाने से नदी छिछली हो गई है. जरा-सा पानी बढऩे पर यह गांव में पहुंच जाता है.''
नदी पर बना परीछा बांध भी छिछला हो गया है. झांसी में सिंचाई विभाग में तैनात इंजीनियर श्रीशचंद बताते हैं, "बांध की तलहटी में राख जमने से इसकी भंडारण क्षमता काफी कम हो गई है जिससे आने वाले दिनों में सिंचाई पर संकट हो सकता है.''
परवान नहीं चढ़ा प्रयास
परीछा बिजलीघर की राख को ठिकाने लगाने के लिए एक नया ऐश डैम बनाने की भी योजना है. इसके लिए प्लांट से सटे गांव महेबा, गुलारा और मुराटा की 572 एकड़ जमीन अधिग्रहीत की जानी थी. किसानों को जमीन का मुआवजा देने के लिए "सेंट्रल पॉवर फाइनेंस कार्पोरेशन'' से 195 करोड़ रुपए का ऋण भी परीछा थर्मल पॉवर प्लांट को मिल गया.
लेकिन प्रशासन को पर्यावरण मंत्रालय से अनापत्ति प्रमाणपत्र नहीं मिल पाया क्योंकि नियमानुसार डैम की जमीन को नेशनल हाइवे और नदी से 500 मीटर दूर होना चाहिए. लेकिन बेतवा नदी और हाइवे के बीच की दूरी ही 500 मीटर से कम है और इसी के बीच में अधिग्रहीत की जाने वाली जमीन है.
हालांकि परीछा थर्मल पॉवर प्लांट के मुख्य महाप्रबंधक ओ.पी. वर्मा बताते हैं, "पर्यावरण मंत्रालय को पत्र लिखकर निर्णय पर दोबारा विचार करने का अनुरोध करेंगे.'' परीछा थर्मल पॉवर प्लांट प्रशासन समेत तमाम बिजलीघर अपने क्रलाई ऐश को विभिन्न उपयोगकर्ताओं को मुफ्त में देने की पेशकश कर रहे हैं क्योंकि पर्यावरण मंत्रालय की साल 2016 में जारी अधिसूचना में साफ उल्लेख है कि बिजलीघर के 100 किलोमीटर के दायरे में राख उपयोगकर्ता तक पहुंचाने का खर्च बिजीलघर उठाएगा, 300 किमी के दायरे में पहुंचाने का खर्च उपयोगकर्ता और बिजीलघर बराबर-बराबर उठाएंगे. पर राख खरीदने के लिए कंपनियों की दिलचस्पी जाहिर नहीं हो पाई.
सिंगरौली का संकट
संकट सिर्फ परीछा या सोनभद्र तक सीमित नहीं. थोड़ा आगे बढ़ें तो सोनभद्र-सिंगरौली औद्योगिक क्षेत्र के लगभग 100 किमी दायरे में शायद ही कोई गांव, कोई इलाका ऐसा हो जहां बड़ी संख्या में लोग गलियों में रेंगते, लाठी टेकते और रास्तों पर लुढ़कते न दिख जाएं.
यहां के पानी में फ्लोराइड है, जो सीधे शरीर की हड्डियों पर वार करता है. सिंगरौली में बिजलीघरों से फैल रहे प्रदूषण को लेकर राष्ट्रीय हरित न्यायाधिकरण (एनजीटी) में याचिकाकर्ता अश्विनी कुमार दुबे बताते हैं, "फ्लोराइड से एक बार हड्डी बेकार हो जाए तो इसका कोई इलाज नहीं. समस्या यह है कि पीने का साफ पानी उपलब्ध ही नहीं.'' इलाके में बढ़ता प्रदूषण लोगों को गंभीर रूप से बीमार कर रहा है.
एक ताजा अध्ययन के मुताबिक सोनभद्र-सिंगरौली इलाके में हवा, पानी, मिट्टी ही नहीं, यहां रहने वालों के खून के नमूनों में भी पारा (मरकरी) पाया गया है. यह इनसान के दिमागी संतुलन को बिगाड़ता है और चिकित्सकीय दृष्टि से आत्महत्या का मुख्य कारण है.
सिंगरौली औद्योगिक क्षेत्र से सटे विहंडमगंज इलाके में मानसिक रूप से बीमार लोगों की संख्या अच्छी-खासी है. इस इलाके में सफेद दाग के बहुत-से मामले सामने आए हैं. सफेद दाग पारे की विषाक्तता का मुख्य लक्षण है.
न्यूयॉर्क के एनजीओ ब्लैकस्मिथ इंस्टीट्यूट के एक अध्ययन में शामिल की गई इलेक्ट्रिसीटे डि फ्रांस की एक अप्रकाशित रिपोर्ट कहती है कि सिंगरौली थर्मल पॉवर प्लांट सालाना 720 किलोग्राम पारा छोड़ता है.
एनजीटी के मुताबिक, सिंगरौली के बिजलीघरों से सालाना 3.5 करोड़ टन राख निकलती है. इलाके के कुछ हिस्सों में फ्लाइ ऐश की पांच फुट तक मोटी परतें बिछी हुई हैं. शक्तिनगर इलाके की लक्ष्मी कहती हैं, "यहां कोयले और राख की गर्द इतनी ज्यादा है कि सुबह गला खंखारकर थूको तो सब काला निकलता है. किसी भी घर में पूछ लीजिए महीने में सबसे ज्यादा खर्च दवा और डॉक्टर का है.''
कोरबा में कहर
पांचवीं कक्षा के छात्र विनय का घर कोरबा के पुरेनाखार गांव में है. विनय बताता है कि पावर प्लांट से निकलने वाली राख से उसे बुखार होता है, गांव का पानी खराब हो गया है, सांस लेने में तकलीफ होती है, यहां तक कि खाने में भी राखड़ ही होता है. विनय की थाली में मौजूद राख उस 2.7 करोड़ टन राख का महज एक चुटकी भर ही है, जो साल भर में कोरबा में मौजूद 14 ताप बिजलीघर पैदा करते हैं.
कटघोरा ब्लॉक का पुरेनाखार एनटीपीसी और छत्तीसगढ़ पावर की ऐश डाइक से एकदम सटा हुआ गांव है. ऐश डाइक से बमुश्किल 200 मीटर दूर मौजूद गांव के प्राइमरी स्कूल की प्रभारी प्रिसिंपल भुनेश्वरी देवी बताती हैं, "राख की वजह से यहां के लोगों खासकर बच्चों में पेट दर्द, खांसी और चमड़ी से संबंधित कई तरह की बीमारियां हो रही हैं. पिछले 7 साल से पढ़ाने आने की वजह से मैं भी कई बीमारियों का शिकार हो गयी हूं. इस उडऩ राख ने इलाके की खेती भी चौपट कर दी है.''
छत्तीसगढ़ की ऊर्जा राजधानी कहे जाने और एशिया का सबसे बड़ा कोयला खदान तथा दर्जनभर से अधिक बिजलीघर कोरबा में होने का गर्व तो है, लेकिन सीपीसीबी के आंकड़े बताते हैं कि कोरबा देश के पांच सबसे प्रदूषित औद्योगिक क्षेत्रों में शामिल है.
पर्यावरण मंत्रालय की 2014-15 की सालाना रिपोर्ट में भी कोरबा को देश में तीसरा सबसे नाजुक रूप से प्रदूषित क्षेत्र बताया गया है. भोपाल से "इंजीनियरिंग की पढ़ाई कर रहे 19 साल के राहुल कुशवाहा कहते हैं, "किसी बाहरी को यहां राख के तालाब के अनोखे दृश्य देखकर अच्छा लग सकता है, लेकिन यहां रहने वालों की जिंदगी मुश्किल है.''
दम तोड़ती दामोदर
दंतकथाओं में मौजूद दामोदर नदी अब देश की अधिक प्रदूषित नदियों की फेहरिस्त में शामिल है. इस नदी के किनारे 10 ताप बिजलीघर हैं जो सालाना कोई 24 लाख मीट्रिक टन राख पैदा करते हैं. दामोदर नदी को प्रदूषित करने का खेल रांची जिले के कोल बेल्ट खेलारी में शुरू होता था. फिर रामगढ़ जिले में घुसते ही पतरातू थर्मल पावर स्टेशन और सेन्ट्रल कोलफील्ड लिमिटेड की कोल वाशरी इस नदी को और भी प्रदूषित करते थे. बोकारो जिले में घुसते ही ये तीन बिजलीघर दामोदर में कोयले की राख सीधे बहा दिया करते थे.
झारखंड राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (जेएसपीसीबी) की वेबसाइट में दामोदर में अपशिष्ट गिराने वाले 94 उद्योगों के नाम दर्ज हैं जिनमें अधिकतर तापबिजली घर और कोल वॉशरी ही हैं.
सन् 2004 में दामोदर बचाओ आंदोलन की शुरुआत करने वाले नेता और झारखंड सरकार में मंत्री सरयू राय का मानना है कि यह हालत तो तब है जब दामोदर के प्रदूषण स्तर में काफी सुधार हुआ है. वे कहते हैं, "आज लोग खुद ही आगे बढ़कर प्रदूषण फैला रही इन कंपनियों का विरोध करते हैं और बंद भी करवाते हैं.''
लेकिन राज्य सरकार की एक इकाई तेनुघाट थर्मल पावर प्लांट आज भी चोरी-छुपे कोयले की राख को सीधे नदी के किनारे डाल देता है क्योंकि इसका ऐश पॉन्ड अब किसी काम का नहीं. पिछले साल दिसंबर में सीपीसीबी ने तेनुघाट संयंत्र को बंद करने का निर्देश दिया था क्योंकि यह दामोदर नदी को गंभीर नुकसान पहुंचा रहा था.
जेएसपीसीबीके सदस्य सचिव राजीव लोचन बख्शी कहते हैं, "पहले के मुकाबले प्रदूषण नियंत्रण के कानूनों को काफी कड़ाई के साथ लागू करवाया जाता है और इन उत्पादक इकाइयों की सतत मॉनीटरिंग चलती रहती है.''
बोकारो निवासी दीवान इंद्रनील सिन्हा कहते हैं कि प्रदूषण ने दामोदर नदी के जलीय जीवन और पर्यावरण को तहस नहस कर दिया है. वे कहते हैं, "लोगों ने मजबूरन इस नदी में छठ तक मनाना बंद कर दिया.''
सन् 2011 में जूलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया ने दामोदर नदी की सूरतेहाल पर एक सर्वे करवाया था जिसमें ताप बिजलीघरों की वजह से इस नदी के खराब हालात का ब्योरा मौजूद है. दामोदर घाटी के बिजलीघरों से हवा में गैस के रूप में जा रही गंधक बारिश के साथ तेजाब बन जाती है और नदी में मिल जाती है. सीएसएमई की करीब दो दशक पुरानी रिपोर्ट के मुताबिक, इस गंधक की मात्रा करीब 65,000 टन सालाना से ज्यादा होती है.
बोल मेरी बिजली कितना पानी
देश भर में बिजलीघरों की राख और प्रदूषण ही समस्या नहीं है. बिजलीघर पानी के लिए सोख्ते का काम भी करते हैं. हालांकि हर बिजलीघर के लिए पानी की जरूरतों के आंकड़े पर्यावरण मंत्रालय ने उपलब्ध नहीं कराए हैं.
लेकिन हाल के वर्षों में सरकार ने 1,17,500 मेगावॉट के कोयला आधारित ताप बिजलीघरों को पर्यावरणीय मंजूरी दे दी है. एनजीओ "प्रयास'' का आकलन है कि इतनी मात्रा में बिजली पैदा करने के लिए करीब 460 करोड़ क्यूबिक मीटर पानी खर्च होगा. इतने पानी से 9,20,000 हेक्टेयर खेत की सिंचाई की जा सकती है, या पूरे मध्य प्रदेश की आबादी की सालभर की पानी की जरूरतें पूरी हो सकती हैं.
महाराष्ट्र ने 33,000 मेगावॉट बिजली उत्पादन का लक्ष्य हासिल करने के लिए विदर्भ में 47 नए ताप बिजलीघरों को मंजूरी दी है. विदर्भ इंडस्ट्रीज एसोसिएशन का अनुमान है कि इन 47 बिजलीघरों के लिए करीब 135.3 करोड़ क्युबिक मीटर पानी की सालाना जरूरत होगी.
जाहिर है, यह पानी इलाके की सिंचाई परियोजनाओं से ही लिया जाएगा और यह पानी 2 लाख हेक्टेयर खेतों को पानी से महरूम कर देगा. और फिर इन बिजलीघरों से उसी तरह राख निकलेगी जैसी सिंगरौली, परीछा और कोरबा में निकल रही है.
प्रदूषण और सांसों की घुटन के साथ दमकते भारत के लिए बिजली बनाई जा रही है और झिलमिलाती रोशनी से दूर इन बिजलीघरों के साए में उडऩे वाली राख खाना, पानी और बजरिए सांस, फेफड़ों को गर्दो-गुबार से अंधेरा कर रही है.
—साथ में आभा रानी, संतोष पाठक और अविनाश चंचल