उपराष्ट्रपति चुनाव में सत्ता पक्ष और विपक्ष ने दक्षिण भारतीय उम्मीदवार को ही क्यों चुना?

भाजपा ने आरएसएस के दिग्गज सी.पी. राधाकृष्णन को उपराष्ट्रपति पद का प्रत्याशी बनाकर तमिलनाडु का किला भेदने के लिए वफादारी और पहचान का मिश्रण पेश किया

पीएम मोदी उपराष्ट्रपति पद के प्रत्याशी सी.पी. राधाकृष्णन से मिलते हुए

नई दिल्ली में 16 अगस्त को भाजपा संसदीय बोर्ड की बैठक हुई, तो शायद ही किसी ने उसे आम बैठक सोचा होगा. आखिर एनडीए के उपराष्ट्रपति पद के प्रत्याशी का नाम जो तय होना था. वह भी विवादास्पद इस्तीफे से खाली हुए पद के लिए. लेकिन अंतिम चयन ने भाजपा के लिए माहौल सहज बना दिया. 

भाजपा के उपराष्ट्रपति पद के उम्मीदवार सी.पी. राधाकृष्णन अभी महाराष्ट्र के राज्यपाल हैं और इससे पहले दो बार कोयंबत्तूर से लोकसभा सदस्य रह चुके हैं. यही नहीं वे तमिलनाडु में आरएसएस के पूर्व राज्य प्रमुख रह चुके हैं. यह सीधे नरेंद्र मोदी की रणनीति का हिस्सा है कि वैचारिक निष्ठा का पहचान की राजनीति में मेल हो.

चुने जाने पर राधाकृष्णन ऊंचे संवैधानिक पद पर पहुंचने वाले आरएसएस के पहले पूर्व पदाधिकारी बन जाएंगे. इसके मायने यह हैं कि संघ का पद भारतीय राज्य के पदानुक्रम के साथ लगातार जुड़ रहा है.

कथित तौर पर चयन के दौरान कर्नाटक के राज्यपाल थावर चंद गहलोत के नाम पर गंभीरता से विचार किया गया, जो मध्य प्रदेश का प्रमुख दलित चेहरा हैं. लेकिन क्षेत्रीय समीकरण साधने में वे पिछड़ गए. दशकों से, भाजपा कर्नाटक से आगे दक्षिण में पैठ बनाने की कोशिश करती रही है. मोदी ने तमिलनाडु और केरल तक पार्टी की पहुंच बढ़ाने के लिए राज्य इकाइयों के पुनर्गठन और गठबंधन करने की कई कोशिश की है. तमिलनाडु में चुनाव में साल भर से भी कम का वक्त है. ऐसे में, आरएसएस की निर्विवाद साख वाले तमिल नेता को आगे बढ़ाना भगवा राजनीति की प्रयोगशाला में सुरक्षित प्रयोग जैसा है.

राधाकृष्णन से मोदी के रिश्ते भी करीबी हैं. वे 2002 के बाद गुजरात में मोदी के मुश्किल वक्त में हमेशा उनके साथ खड़े रहे हैं. आरएसएस में उन्हें अनुशासित संगठनकर्ता माना जाता रहा है. उनके साथ जातिगत गणित भी फिट बैठता है. वे पश्चिमी तमिलनाडु की प्रमुख ओबीसी जाति गौंडर से हैं. उस समुदाय में पैठ बनाने के लिए पार्टी के. अन्नामलै और फिर एडप्पाडी के. पलानीस्वामी के नेतृत्व वाली अन्नाद्रमुक के साथ गठबंधन के जरिए काफी कोशिश कर चुकी है. अब समुदाय के व्यक्ति को ऊंचा पद देकर वह उस कोशिश को बढ़ाने की उम्मीद कर सकती है. 

विपक्ष की प्रतीकात्मक जंग
भाजपा इस चुनाव में मजबूत पायदान पर खड़ी दिखती है, तो विपक्ष की प्रतिक्रिया प्रतीकात्मक ज्यादा लगती है. संख्या बल उसके खिलाफ है. उपराष्ट्रपति पद के लिए निर्वाचक मंडल में लोकसभा और राज्यसभा के सभी मौजूदा सांसद होते हैं. दोनों सदनों के 782 मतदाताओं में जीत का आंकड़ा 392 है. एनडीए के पास लगभग 425 वोट हैं, जो वाइएसआर कांग्रेस के समर्थन से 436 तक पहुंच जाते हैं. यह संख्या जीत के आंकड़े से काफी ज्यादा है. तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी) के सांसदों को मिलाकर इंडिया ब्लॉक के पास सिर्फ 310 ही हैं. अगर बाकी सभी छोटे दल एकजुट हो जाएं, तब भी विपक्ष का उम्मीदवार पीछे रह जाएगा. विपक्ष जानता है कि वह जीत नहीं सकता, सो, उसका जोर नैरेटिव तैयार करने पर है. 

विपक्ष की पसंद सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश बी. सुदर्शन रेड्डी (सेवानिवृत्त) तेलंगाना के हैं. वे कभी किसी दलगत राजनीति से नहीं जुड़े रहे हैं. वे भी दक्षिण की चर्चित शख्सियत हैं और ऐसे राज्य से हैं, जहां कांग्रेस को पिछले चुनावों में ताकत मिली है. फिर, ऐसे वक्त में जब संवैधानिक संस्थाओं पर सरकार के अनुकूल कर लिए जाने का आरोप लग रहा हो, साफ-सुथरी छवि के पूर्व न्यायाधीश पर दांव एक नैरेटिव तैयार कर सकता है और यह भी कि उनकी वैचारिक प्रतिबद्धता भाजपा के वैचारिक ताने-बाने के विपरीत है.

हालांकि, मोदी ऐसे विरोधाभासों पर ऊंचे दांव लगाते रहे हैं. 2017 में उन्होंने उत्तर भारत के दलित नेता रामनाथ कोविंद को राष्ट्रपति पद और दक्षिण के वरिष्ठ नेता एम. वेंकैया नायडू को उपराष्ट्रपति पद पर आगे बढ़ाया. 2022 में, उन्होंने ओडिशा की आदिवासी नेता द्रौपदी मुर्मू और हाल में इस्तीफा देने वाले राजस्थान के जाट चेहरा जगदीप धनखड़ को चुना था. उनके हर चयन में जाति, धर्म और विचारधारा का गणित होता है. राधाकृष्णन में वही सब समीकरण दक्षिण, संघ, वफादारी वगैरह घुला-मिला है.

इसके पहले उस पद पर पहुंचे वेंकैया नायडू भाजपा में शामिल होने से पहले संघ से संबद्ध एबीवीपी के पदाधिकारी थे. उनके अलावा, 2002 से 2007 तक उपराष्ट्रपति रहे दिवंगत भैरों सिंह शेखावत स्वयंसेवक तो थे, लेकिन राधाकृष्णन जैसे वरिष्ठ आरएसएस पदाधिकारी कभी नहीं थे. इससे दिल्ली की सत्ता ने नागपुर को भी संकेत दिया है कि उसे समायोजित किया जा रहा है. शायद इसमें सौदेबाजी के बीज छिपे हुए हैं. संघ संतुष्टि के साथ किसी गैर संघी कोर सदस्य को भाजपा अध्यक्ष बनने का रास्ता दे सकता है. 

यह चुनाव विपक्ष की एकजुटता की भी परीक्षा है. 2022 के चुनाव में टीएमसी ने सही मौके पर बातचीत के अभाव में हिस्सा नहीं लिया था. इस बार, पार्टी रेड्डी का समर्थन करने को राजी हो गई है, क्योंकि रेड्डी कांग्रेसी नहीं हैं और साफ-सुथरी छवि के हैं. फिर भी, विपक्षी एकता पर संदेह है. मसलन, महाराष्ट्र की बंटी हुई राजनीति अंतिम समय में आश्चर्य की गुंजाइश छोड़ती है. भाजपा के रणनीतिकारों को उम्मीद है कि क्षेत्रीय मजबूरियां शरद पवार की एनसीपी (एसपी) और उद्धव ठाकरे की शिवसेना (यूबीटी) को कम से कम मतदान से दूर रहने की वजह बन सकती हैं.

बड़ा खेल
भाजपा के लिए तमिल आरएसएस के दिग्गज को उच्च पद पर बिठाना तमिलनाडु में भाजपा और संघ परिवार की पैठ बनाने की लंबी रणनीति का हिस्सा है. कांग्रेस के लिए, तेलंगाना के एक न्यायविद को मैदान में उतारना दक्षिणी मतदाताओं, खासकर अल्पसंख्यकों, बुद्धिजीवियों और भाजपा के बहुसंख्यकवादी रुझान से निराश पेशेवरों के बीच विश्वसनीयता बढ़ाने का एक प्रयास है. न्यायमूर्ति रेड्डी का सबसे उल्लेखनीय फैसला 2011 में आया था, जब उन्होंने छत्तीसगढ़ में राज्य समर्थित सलवा जुडूम मिलिशिया को असंवैधानिक करार दिया और उसे खत्म कर दिया था. भाजपा उस फैसले का हवाला देकर उन्हें नक्सलवाद के प्रति नरम रुख अपनाने वाला बता रही है.

उपराष्ट्रपति राज्यसभा के पदेन सभापति होते हैं, जहां भाजपा के पास पर्याप्त बहुमत नहीं है. राधाकृष्णन के रूप में, मोदी का विश्वसनीय व्यक्ति आसन पर होगा. विपक्ष की कोशिश होगी कि चाहे हार हो, संदेश जाए कि संस्थाओं पर कब्जे का नैरेटिव सिद्धांत स्तर पर बना रहे. 9 सितंबर को जब सांसद वोट दे रहे होंगे तो मतगणना से पहले ही नतीजे स्पष्ट हो जाएंगे लेकिन प्रतीकात्मक सबसे महत्वपूर्ण होगा.

एनडीए की पसंद
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तमिल गौंडर (ओबीसी) जाति के और दो बार कोयंबत्तूर से सांसद रहे सी.पी. राधाकृष्णन तमिलनाडु में भाजपा की उपस्थिति बढ़ाने के लंबे अभियान को मजबूत कर रहे हैं

> उनके रूप में भाजपा को राज्यसभा में भरोसेमंद पीठासीन अधिकारी मिलेगा, जहां अभी भी कई विधायी लड़ाइयां चल रही हैं

> आरएसएस के पूर्व प्रांत संघचालक संवैधानिक पद पर संघ के बढ़ते प्रभाव के प्रतीक हैं

विपक्ष के उम्मीदवार न्यायमूर्ति बी.एस. रेड्डी ऐसे समय में संस्थागत स्वतंत्रता के प्रतीक हैं जब संसद में बहुमत के बल पर कुचले जाने का आरोप लगाया जा रहा.

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