छोटे उद्यमी कैसे बने भारतीय अर्थव्यवस्था की रीढ़?
भारतीय अर्थव्यवस्था की रीढ़ और 22.2 करोड़ लोगों या देश के वर्कफोर्स के 39 फीसद को रोजगार देने वाले उद्यमियों की कामयाबी की कहानी

इस 15 अगस्त को अपना 79वां स्वतंत्रता दिवस मनाते वक्त देश आर्थिक कायापलट कर देने वाले दशक के मुहाने पर खड़ा था. ऐसा दशक जो न केवल चौतरफा फैले विशाल औद्योगिक घरानों या अरबों डॉलर के यूनिकॉर्न के हाथों गढ़ा जाएगा, बल्कि भारत के उन गुमनाम उद्यमियों के चुपचाप और लगातार उभार के माध्यम से गढ़ा जाएगा जो करघों पर काम करते हैं.
दो कमरों की फैक्ट्रियों में पसीना बहाते हैं, ज्यादातर दुपहिया वाहन पर चलते हैं और थककर चूर होकर घर लौटते हैं. वे स्थानीय समस्याओं और जरूरतों को उद्यमशीलता के अवसरों में बदलकर लाखों नौकरियों का सृजन करते और भारत के सामाजिक और आर्थिक ताने-बाने को बनाए रखते हैं. ये माइक्रो उद्यमी भले मामूली हों मगर अर्थव्यवस्था पर उनका असर बहुत विराट और चमत्कारी है तथा जीवन गाथाएं सचमुच बहुत प्रेरणादायी.
रूपंकर भट्टाचार्य को ही लीजिए, जिन्हें बेहद असामान्य स्थितियों में उद्यमशीलता के कीड़े ने काट लिया. वन्यजीव प्रेमी होने के नाते वे बार-बार हाथ से फिसल रहे उस अजगर की तलाश में थे जो असम में गुवाहाटी के नजदीक दीपोर बील नाम की ताजे पानी की विशाल झील पर फैले जलकुंभी के घने झुरमुट में गायब हो गया था.
तभी उन्हें एहसास हुआ कि तेजी से फैलने वाली इस खरपतवार ने जलीय जैवविविधता का दम घोंट दिया है और राज्य की कुछ बेहतरीन वेटलैंड्स को पानी में डूबे कब्रिस्तानों में बदल दिया है. रूपंकर अपने दोस्त अनिकेत धर के साथ इस खरपतवार से निजात पाने के तरीकों के बारे में सोचने लगे. खोजबीन और शोध से उन्हें पता चला कि जलकुंभी में मौजूद काफी सारा फाइबर कागज बनाने के लिए उम्दा कच्चा माल है.
इस तरह 2022 में कुंभी कागज का जन्म हुआ. कचरा प्रबंधन को बढ़ावा देने वाली ब्रिटेन की परमार्थ संस्था वेस्ट ऐड से 8.3 करोड़ रुपए हासिल करके इस जोड़ी ने गुवाहाटी के बाहरी छोर पर फैक्ट्री लगाई. कुंभी को कागज में बदलने के लिए उन्होंने इसकी जरूरतों के हिसाब से डिजाइन की गई मशीन विकसित की.
जल्द ही उन्हें ऐसे उद्यमों को बढ़ावा देने वाली केंद्र सरकार की पहल असम स्टार्टअप से अनुदान मिल गया. उसके बाद उन्होंने अपना दायरा काजीरंगा नेशनल पार्क की वेटलैंड्स तक बढ़ा लिया. उनके टर्नओवर में मुनाफा होने लगा है, और हाल ही उन्हें राष्ट्रीय मान्यता भी मिल गई जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने उनकी कामयाबी का जिक्र अपने 'मन की बात' कार्यक्रम में किया.
वहां से करीब 2,300 किमी दूर औरंगाबाद में संदीप धाबड़े हैं, जो शुरू में तबलावादक बनना चाहते थे और महाराष्ट्र भर में अपनी कला दिखाकर किसी तरह गुजर-बसर कर रहे थे. वे याद करते हैं, ''ऐसे भी दिन थे जब दो वक्त का खाना मिलना भी बड़ी बात थी.'' गुजारे के लिए वे एक पैकेजिंग कंपनी से जुड़ गए, जहां उन्होंने रोजमर्रा के कामकाज, मार्केटिंग और अकाउंट संभालते हुए ऑलराउंडर के रूप में महारत हासिल कर ली.
तभी उन्होंने एकला चलने का फैसला लिया. अपनी बचत का पैसा लगाकर और परिवार का सोना गिरवी रखकर 2019 में उन्होंने ईकोपार्क की स्थापना की और पैकेजिंग सामग्री का व्यापार करने लगे. अगले ही साल कोविड की वजह से उनका कारोबार मंदा पड़ गया मगर एक नॉन-प्रॉफिट ट्रस्ट से 11 लाख रुपए की कार्यशील पूंजी कर्ज के रूप में मिल गई.
महामारी के बाद के दौर में उनका कारोबार चमक उठा और हिंदुस्तान लीवर के रूप में उन्हें एक बड़ा ग्राहक मिल गया. इस कामयाबी के साथ उन्होंने एक नया उद्यम शुरू किया जिसमें उनके खेत के गन्नों से रसायन-मुक्त गुड़ बनाया जाता है. अब वे दूसरे किसानों को भी ऐसा करने के लिए प्रोत्साहित कर रहे हैं, इस उम्मीद में कि उनका गृहनगर जालना प्रसंस्करण केंद्र बनकर उभरे.
उधर, उत्तरी छत्तीसगढ़ में जशपुर के आदिम जंगलों में पूर्व जिलाधिकारी रवि मित्तल की पहल पर आदिवासियों का एक समूह वन उपज को कई सारे ऑर्गेनिक उत्पादों में तब्दील कर रहा है. इस पहल से जय जंगल फार्मर प्रोड्यूसर कंपनी बनी जिसका मकसद महिलाओं के स्वयं सहायता समूहों (एसएचजी) के ब्रांड की मदद करना और उनके सामान को जशप्योर लेबल के तहत बेचना था. उन उत्पादों में महुए से तैयार किए गए तरह-तरह के उत्पाद शामिल हैं. इस इलाके में खूब पाए जाने वाले महुए के पेड़ में कई औषधीय गुण हैं जिन्हें वे रसायन, ऐडिटिव या मिलावटी पदार्थों का इस्तेमाल किए बिना संजोते हैं. इनमें महुआ के फूल का रस भी है जो शहद के विकल्प का काम करता है. कंपनी का सालाना टर्नओवर अब 60 लाख रुपए है, जिससे इन महिलाओं के हाथ में काफी पैसा होता है और आर्थिक स्वतंत्रता के साथ उन्हें सशक्त बनाता है.
जीवनरेखा
दरअसल, देश भर में 6.6 करोड़ से ज्यादा सूक्ष्म इकाइयों के साथ अब इन उद्यमियों की माइक्रो या सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्यम (एमएसएमई) क्षेत्र में 99 फीसद हिस्सेदारी है. एमएसएमई में अब 24.4 करोड़ या भारत के 56.5 करोड़ वर्कफोर्स के करीब 43 फीसद लोग काम करते हैं. इनमें 22.2 करोड़ लोग सूक्ष्म इकाइयों में कार्यरत हैं, जो उन्हें खेती के बाद दूसरा सबसे बड़ा नियोक्ता बनाते हैं. वैसे, इस क्षेत्र के अलग-अलग आंकड़े मौजूद नहीं हैं मगर एमएएसएमई भारत के जीडीपी में 30 फीसद, मैन्युफैक्चरिंग में 36 फीसद और निर्यात में 45 फीसद का योगदान देते हैं. जाहिर है, ये कितने अहम हैं. भारत अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के छेड़े गए टैरिफ के तूफान और वैश्विक आपूर्ति शृंखलाओं के पुनर्गठन की चुनौतियों पर खरा उतरने के लिए अपनी अर्थव्यवस्था को नए सिरे से चुस्त-दुरुस्त कर रहा है, ये ताकतवर सूक्ष्म उद्यम भारत के स्वाभाविक चैंपियन बन गए हैं.
प्रधानमंत्री मोदी ने जब राष्ट्र के नाम स्वतंत्रता दिवस के अपने संबोधन में अगली पीढ़ी के सुधारों को अंजाम देने की बात कही, तो उनके दिमाग में यह एमएसएमई सेक्टर सबसे ऊपर था. दीवाली पर न सिर्फ करों की चार श्रेणियों को विवेकसम्मत बनाकर बल्कि कष्टप्रद कागजी कार्रवाइयों में भी कटौती करके जीएसटी को नया रंगरूप देने का तोहफा मुख्यत: एमएसएमई क्षेत्र को बढ़ावा देने के लिए है, जिसने महामारी के जबरदस्त थपेड़े सहे हैं. हाल में ब्रिटेन, ऑस्ट्रेलिया, यूएई और यूरोप के साथ जो मुक्त व्यापार समझौते किए गए, उनका मकसद भी एमएसएमई के लिए नए बाजार खोलना है. प्रधानमंत्री के प्रधान सचिव डॉ. प्रमोद के. मिश्र कहते हैं, ''केंद्र की एमएसएमई नीतियां इसी दिशा में हैं कि ये सूक्ष्म और लघु उद्यम अपना आकार बढ़ाएं और किफायती अर्थव्यवस्था के फायदे हासिल कर सकें और वैश्विक मूल्य शृंखलाओं में पैठ बनाने के लिए बेहद जरूरी गुणवत्ता ला सकें. हम एमएसएमई को टिकाऊ वृद्धि, नवाचार और समावेशी विकास के बेहद अहम चालकों के तौर पर तथा 2047 तक विकसित भारत का लक्ष्य हासिल करने के अभिन्न अंग के तौर पर देखते हैं.''
मददगार हाथ
इस अप्रैल में मोदी सरकार ने एमएसएमई के वर्गीकरण में बदलाव किया ताकि वे केंद्र की ऋण गारंटी योजना (सीजीएस) का बेहतर लाभ उठा सकें. सूक्ष्म उद्यम के लिए काबिलियत की सीमा 5 करोड़ रुपए से बढ़ाकर 10 करोड़ रुपए, लघु उद्योगों के लिए 50 करोड़ रुपए से बढ़ाकर 100 करोड़ रुपए और मध्यम उद्यमों के लिए 250 करोड़ रुपए से बढ़ाकर 500 करोड़ रुपए कर दी गई. नई सीजीएस नीति के तहत ये इकाइयां बिना किसी गारंटी के 1 करोड़ रुपए तक का कर्ज हासिल कर सकती हैं. पिछले एक दशक में सीजीएस के तहत कर्ज वितरण दस गुना बढ़ा है; पिछले साल 1.22 करोड़ उद्यमियों को 10.5 लाख करोड़ रुपए के कर्ज दिए गए. मोदी सरकार ने एमएसएमई को कर्ज देने में वृद्धि के लिए बड़े सरकारी और निजी वाणिज्यिक बैंकों से भी कहा है.
इसके अलावा प्रधानमंत्री मुद्रा स्कीम है जिसके तहत पहली पीढ़ी के सूक्ष्म उद्यमियों, खासकर महिलाओं को 20 लाख रुपए तक के कर्ज दिए जाते हैं. इसके तहत पिछले एक दशक में 53.8 करोड़ लोगों को 34.53 लाख करोड़ रुपए कर्ज बांटे गए हैं. मिश्र कहते हैं, ''करोड़ों सूक्ष्म और लघु उद्यमियों की मदद की गई है. ऐसी कर्ज योजनाओं से एक सांस्कृतिक बदलाव आया है, जिससे सूक्ष्म उद्यमियों को कारोबार शुरू करते समय कर्ज की चिंता नहीं करनी पड़ती.'' मुद्रा स्कीम का लाभ उठाने वालों में श्रुति मलिक ओबेरॉय भी हैं, जो अपनी कॉर्पोरेट नौकरी छोड़कर हरियाणा के अपने गृहनगर यमुनानगर लौट आईं और आइरिस लर्निग्स की शुरुआत की जो गरीबी रेखा से नीचे के लोगों को हुनर विकास में मदद करती है. उन्होंने मजदूरों को ट्रैक्टर चलाने और उनकी मरम्मत करने का प्रशिक्षण देकर शुरुआत की. फिर उन्हें ट्रैक्टर खरीदने के लिए मुद्रा कर्ज दिलाकर उनकी मदद की और बाद में किसानों को ट्रैक्टर से जुताई की सुविधा मुहैया कराकर पैसा कमाया. इस कामयाबी से श्रुति ने अपना कारोबार बढ़ाया और कई श्रमिकों को बड़ी कंपनियों में नौकरी दिलाने के लिए प्रशिक्षित किया.
ये सूक्ष्म उद्यमी महज औसत छोटे कारोबारी नहीं हैं. ये निपट स्थानीय हैं, अमूमन टेक्नोलॉजी में पारंगत और जमीनी जरूरतों की समझ रखते हैं. उनकी कामयाबी के लिए चार खासियतें प्रमुख हैं: लचीलापन, समावेशिता, स्थिरता और नवाचार. इसलिए सत्यम सुंदरम को अपने गृह राज्य बिहार में नौकरी नहीं मिली तो उन्होंने कोलकाता के एक संस्थान में एमबीए के लिए दाखिला ले लिया. उन्होंने कोविड के बाद 'प्रकृति की ओर लौटने' की भावना का लाभ उठाया और अपने गृहनगर पूर्णिया में प्रचुर मात्रा में उगने वाले बांस को प्लास्टिक के विकल्प में बदल दिया. उन्होंने प्रधानमंत्री रोजगार सृजन कार्यक्रम से कर्ज लेकर पुश्तैनी जमीन पर एक कारखाना लगाया और बांस के हैंडबैग, टूथब्रश, टंग क्लीनर तथा पेन होल्डर समेत उत्पादों की एक शृंखला बनाने के लिए कारीगरों को काम पर रखा. आज उनका सालाना कारोबार 40 लाख रुपए से ज्यादा है.
नियमों का मकड़जाल
इन कामयाबियों के बावजूद सूक्ष्म और लघु उद्यमियों को नियम-कायदों के जंजाल और नौकरशाही की बाधाओं से जूझना पड़ता है. बीते तीन दशकों से सूक्ष्म और लघु उद्योगों को बढ़ावा देने में लगी रहीं भारतीय युवा शक्ति ट्रस्ट की संस्थापक तथा प्रबंध न्यासी लक्ष्मी वी. वेंकटेशन कहती हैं, ''कई सूक्ष्म उद्यमी अभी भी सूदखोरों और महाजनों पर निर्भर हैं क्योंकि बैंक की कागजी कार्रवाई में समय लगता है, या फिर वे कर्ज लेने की काबिलियत नहीं रखते, या डिजिटल जानकरी से अछूते हैं. ऐसे में साधनों तक पहुंच बहुत अहम हो जाती है. बैंकों की कर्ज प्रक्रिया में छह महीने से ज्यादा का समय लगता है. इससे 85 फीसद महिला सूक्ष्म उद्यमी कर्ज नहीं ले पातीं.''
उनका यह भी मानना है कि मुद्रा स्कीम के तहत प्रति व्यक्ति औसतन 65,000 रुपए का मौजूदा कर्ज सूक्ष्म उद्यमियों के लिए कारोबार को सही मायने में बढ़ाने और चलाने के लिए नाकाफी है. वे कहती हैं, ''सरकार को कर्ज की राशि बढ़ाने, ब्याज में छूट देने और मार्जिन मनी कम करने की जरूरत है.'' जीएसटी नियमों को भी सरल बनाने की दरकार है क्योंकि सूक्ष्म उद्यमों को फिलहाल सालाना 30 से ज्यादा कागज दाखिल करने होते हैं. उनका कहना है कि ज्यादातर सूक्ष्म इकाइयां कम पूंजी वाली हैं, अकेले काम करती हैं, राष्ट्रीय या वैश्विक मूल्य शृंखलाओं का हिस्सा नहीं हैं और उन्हें तुरंत मार्गदर्शन की जरूरत होती है. इसके अलावा, इन्फ्रास्ट्रक्चर का विकास भी जरूरी है, खासकर टियर 3 और टियर 4 शहरों में, ताकि माल ढुलाई में सुधार हो, लागत कम हो और बाजार तक पहुंच बढ़े.
भारतीय लघु उद्योग विकास बोर्ड (एसआइडीबीआइ-सिडबी) ने इस मई में अपने एक सर्वेक्षण में इन्हीं चिंताओं को उजागर किया और बताया कि सरकारी नीतियों की भरमार के बावजूद कर्ज पाना बड़ी चुनौती है. महाजनों-सूदखोरों से उधार लेने का स्तर सूक्ष्म उद्यमों के मामले में 12 फीसद जितना ऊंचा है, जबकि लघु और मध्यम उद्यमों के लिए यह क्रमश: 2 और 3 फीसद है. सर्वेक्षण में लगभग हर पांच में एक इकाई ने कहा कि उन्हें कड़ी होड़ का सामना करना पड़ा और नए बाजारों में पहुंचने के लिए संघर्ष करना पड़ा. सिडबी के अध्यक्ष तथा प्रबंध निदेशक मनोज मित्तल बताते हैं, ''इस क्षेत्र में जबरदस्त प्रगति हुई है मगर किफायती पूंजी तक सीमित पहुंच, बाजार तक कम पहुंच, नाकाफी बुनियादी ढांचा, कुशल श्रमिकों की कमी, टेक्नोलॉजी और उत्पादकता की चुनौतियां इसके विकास में बाधक हैं.''
मोदी सरकार इन अड़चनों को दूर करने के लिए काम कर रही है. स्वतंत्रता दिवस के संबोधन के तुरंत बाद प्रधानमंत्री ने प्रमुख कैबिनेट मंत्रियों को बुलाया और उनसे अमेरिकी टैरिफ और भू-राजनैतिक बदलावों के मद्देनजर तेज आर्थिक बदलाव का खाका तैयार करने कहा. एमएसएमई क्षेत्र में एआइ के इस्तेमाल से लेकर इंटरनेट ऑफ थिंग्स को जोड़ने और कारोबार में बदलाव लाने वाली तकनीकों के साथ तालमेल की योजना बनाई जा रही है. केंद्र एमएसएमई को स्वच्छ तकनीक और उत्पादन मिशनों पर ध्यान देने तथा हरित अर्थव्यवस्था में अग्रणी भूमिका निभाने के लिए प्रोत्साहित कर रहा है और उन्हें 'नवाचार प्रयोगशालाओं' में बदलने की योजना बना रहा है. नई योजनाओं में एएसपीआइआर यानि 'नवाचार, ग्रामीण उद्योग और उद्यमिता को बढ़ावा देने की एक योजना' शामिल है, जिसका उद्देश्य जिला स्तर पर स्टार्ट-अप के लिए इनक्यूबेटर स्थापित करना है.
मिश्र का कहना है कि नियमों में ढील को प्राथमिकता दी जाएगी. संसद के मानसून सत्र में पेश जन विश्वास विधेयक 2.0 का लक्ष्य 288 प्रावधानों से सजा को खत्म करना है. बेहतर बुनियादी ढांचे पर जोर एक अहम विषय है. साथ ही प्रमुख क्षेत्रों में हस्तक्षेप करके ज्यादा उत्पादन-आधारित प्रोत्साहन (पीएलआइ) और कौशल विकास में बड़े निवेश की भी जरूरत है. इनके अलावा, समग्र आर्थिक विकास को गति देने के लिए मोदी सरकार कृषि उत्पादकता बढ़ाने, नवाचार में सुधार, वित्तीय प्रणाली को अधिक समावेशी बनाने, डिजिटल इन्फ्रास्ट्रक्चर में व्यापक सुधार लाने और नौकरशाही को सुव्यवस्थित पर भी ध्यान केंद्रित कर रही है. ये सभी अहम हैं, क्योंकि माइक्रो उद्यमी देश के विकास में केवल फुटनोट नहीं बल्कि प्रमुख अंग हैं.