पल्लवी श्रॉफ: पिता और पति की विराट परछाइयों से निकलकर बनाया अपना अलग मुकाम
ऐसी व्यक्ति के तौर पर जिसे उनके पिता ने अपना करियर चुनने की पूरी आजादी दी और ससुराल वालों ने अपने तीसरे बेटे की तरह अपनाया, पल्लवी के लिए चीजें आसान नहीं थीं

वह कानूनी प्रैक्टिस का उनका दूसरा ही हफ्ता था. वे न्यायमूर्ति लीला सेठ की अदालत में जिरह कर रही थीं. उनके पति और मशहूर अमरचंद ऐंड मंगलदास ऐंड सुरेश ए. श्रॉफ ऐंड कंपनी के युवा वारिस शार्दुल श्रॉफ ने दलीलों में उनकी मदद करनी चाही. न्यायमूर्ति सेठ ने उन्हें यह कहकर रोक दिया कि पल्लवी अपने दम पर बहस करने में पूरी तरह सक्षम हैं.
जब आप भारत के पूर्व प्रधान न्यायाधीश पी.एन. भगवती की बेटी हों और आपका विवाह भी इतने ही प्रतिष्ठित परिवार में हुआ हो, तो विराट परछाइयों से बाहर निकलना चुनौतीपूर्ण लग सकता है. शायद यही वजह है कि जमनालाल बजाज इंस्टीट्यूट से एमबीए करने के बाद पल्लवी ने "बाजार में डिटरजेंट बेचने" से शुरुआत की. कानून तो उन्होंने अपने पति के पेशे में रहने के लिए 1980 में अपनाया ताकि उनके साथ ज्यादा वक्त बिता सकें. पल्लवी कहती हैं, "इसके अलावा मेरी कारोबारी पृष्ठभूमि कॉर्पोरेट मुकदमेबाजी के क्षेत्र में लगी फर्म के लिए अतिरिक्त फायदेमंद होती."
चार दशक बाद आज शार्दुल अमरचंद मंगलदास की मैनेजिंग पार्टनर देश में कॉर्पोरेट मुकदमेबाजी के क्षेत्र की दिग्गज हैं. वे भारत और विदेश की शीर्ष अदालतों में भारतीय और अंतरराष्ट्रीय कंपनियों की कामयाब नुमाइंदगी कर चुकी हैं. विवाद समाधान, प्रतिस्पर्धा कानूनों और सफेदपोश अपराधों में उनकी विशेषज्ञता को देखते हुए केंद्र सरकार ने उन्हें प्रतिस्पर्धा कानून समीक्षा समिति का सदस्य मनोनीत किया, जिसने जुलाई 2019 में रिपोर्ट पेश की. अब वे डिजिटल प्रतिस्पर्धा कानून पर बनी समिति की सदस्य हैं, जो डिजिटल बाजारों में प्रतिस्पर्धा पर अलग कानून की जरूरत की पड़ताल कर रही है.
ऐसी व्यक्ति के तौर पर जिसे उनके पिता ने अपना करियर चुनने की पूरी आजादी दी और ससुराल वालों ने अपने तीसरे बेटे की तरह अपनाया, पल्लवी के लिए चीजें आसान नहीं थीं. वे याद करती हैं, "जब मैंने शुरुआत की, महिलाओं को वकील के तौर पर गंभीरता से नहीं लिया जाता था. जज अक्सर पूछते कि क्या मैं अपने पति या किसी अन्य वरिष्ठ के साथ आने का इंतजार कर रही हूं." उनका जवाब? अपनी कड़ी मेहनत से बातों को खुद स्पष्ट होने दीजिए. अपनी छोटी बेटी के बार-बार बीमार पडऩे के बावजूद वे कभी अदालत में मौजूद होने से नहीं चूकीं. वे कहती हैं, "मैं किसी को यह नहीं सोचने देना चाहती थी कि मैं तभी मौजूद रहती हूं जब परिवार के मसले मुझे मौजूद रहने देते हैं."
खुद इसका सामना करने के बाद पल्लवी पक्का करना चाहती थीं कि युवा महिलाओं को ऐसे अंतर्निहित और अचेतन पूर्वाग्रहों से बख्शा जाए. अपनी फर्म में महिलाओं के लिए की गई कई पहलकदमियों के पीछे वही रही हैं, जिनमें सुविधानुसार काम के घंटे घटाना-बढ़ाना, डेकेयर और विशेष प्रशिक्षण कार्यक्रम भी हैं. कई बार उन्हें बेटी का जन्मदिन दफ्तर में मनाना पड़ा या बहस करते वक्त अपने बच्चों को अदालत के कमरों की आखिरी बेंचों पर बिठाना पड़ा. अब वे अपने पीछे ऐसी संस्था छोड़ना चाहती हैं जो उनके और शार्दुल के आगे बढ़ जाने के बाद भी बढ़ती रहे.