फकीर चंद मोघा- कभी करते थे मजदूरी का काम, बना डाला सालाना 200 करोड़ का बिजनेस

फकीर चंद मोघा की परवरिश में आर्थिक तंगी ही एकमात्र बाधा नहीं थी, उनका दलित समाज से आना भी था. कभी जाति के चलते लोन का कोई गारंटर न मिलने से लेकर आज हॉन्डा, बजाज, मारुति समेत बड़ी-बड़ी कंपनियों को ग्राहक बनाने तक का उनका सफर आसान नहीं रहा.

आसमां में सुराख वर्ष 2021 में भोपाल में आयोजित एक कार्यक्रम में फकीर चंद्र मोघा को सम्मानित करते मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान
आसमां में सुराखवर्ष 2021 में भोपाल में आयोजित एक कार्यक्रम में फकीर चंद्र मोघा को सम्मानित करते मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान

तबीयत से पत्थर उछालो तो आसमां में भी सुराख हो सकता है. इस बात को किताबों में पढ़ना और हकीकत में उतारना अलग-अलग बातें हैं. खासकर तब, जब आपके हिस्से का आसमान दूसरों के मुकाबले कुछ ज्यादा ऊंचा हो. मुजफ्फरनगर-मेरठ हाइवे पर बेगराजपुर औद्योगिक क्षेत्र के अंतिम सिरे पर मौजूद लोहे के पाइप बनाने वाली 'फुली ऑटोमैटिक’ फैक्ट्री कारोबारी फकीर चंद मोघा के हिस्से का आसमान है.

दलित परिवार से आने वाले फकीर चंद ने भीषण आर्थिक तंगी के दौर को पीछे छोड़कर मोटरसाइकिल के हैंडल और स्टैंड, चारपहिया की स्टीयरिंग, मॉड्युलर किचन, डिश टीवी, फर्नीचर समेत कई सामान में उपयोग की जाने वाली कोल्ड रोल्ड सीमलेस स्टील पाइप या सीआर पाइप का निर्माण कर बड़ी फैक्ट्रियों के सामने चुनौती पेश की है.

फकीर चंद मोघा, 61 वर्ष  निदेशक, मोरवेल ट्यूब्स प्राइवेट लिमिटेड

हीरो, हॉन्डा, बजाज, मारुति समेत सभी ऑटोमोबाइल कंपनियां और फर्नीचर बनाने वाली कंपनियां 'मोरवेल ट्यूब्स प्राइवेट लिमिटेड’ की फैक्ट्री में बने लोहे के पाइप की बड़ी ग्राहक हैं. 300 टन पाइप हर महीने बनाने से शुरुआत करने वाली फकीर चंद की फैक्ट्री आज हर महीने 1,500 टन पाइप निर्माण कर रही है. 

झोपड़ी से लेकर ऑटोमैटिक फैक्ट्री तक का फकीर चंद्र के परिवार का सफर अथाह गरीबी और सामाजिक भेदभाव के झंझावातों से होकर गुजरा है. फकीर चंद मोघा का पैतृक गांव मुजफ्फरनगर की बुढ़ाना तहसील का हुसैनपुरकलां है. उनके पिता हरि चंद मोघा की उम्र महज दो वर्ष ही थी जब उनके सिर से मां का साया हट गया था.

मां की मौत के बाद हरि चंद अपनी बुआ के साथ मुजफ्फरनगर के गासीपुरा गांव आ कर रहने लगे. झोपड़ी में रहने वाली बुआ ने ही बेहद गरीबी में हरि चंद का पालन पोषण किया. हरि चंद के फूफा उस समय मुजफ्फरनगर की निर्माणाधीन मंसूरपुर शुगर मिल में मजदूरी करते थे. हरि चंद जब दस वर्ष के हुए तो वे भी अपने फूफा के साथ शुगर मिल में मजदूरी करने लगे.

धीरे-धीरे हरि चंद भवन निर्माण की कला में पारंगत हो गए. समय बीतने के साथ उन्होंने राज मिस्तरी का काम भी सीख लिया. ’60 के दशक में हरि चंद मजदूरी करके बमुश्किल पांच रुपए रोज कमा पाते थे. इस दौरान हरि चंद का विवाह हो गया लेकिन गरीबी बनी रही.

पत्नी की गर्भवस्था के दौरान पोषण न मिल पाने के कारण हरि चंद के दो बेटों की मौत जन्म के कुछ दिन बाद हो गई थी. वर्ष 1962 में जन्मा तीसरा बेटा भी काफी कुपोषित था. परिवार वाले इसे एक फकीर के पास लेकर गए. हरि चंद का विश्वास था कि फकीर की दुआ से ही उनके बेटे की जान बच पाई इसलिए उन्होंने इसका नाम फकीर चंद रखा. 

फकीर चंद की पांच बहनें थीं. छह बच्चों की परवरिश में भीषण आर्थिक तंगी बाधा बनकर खड़ी थी. फकीर चंद ने जैसे-तैसे हाइस्कूल की परीक्षा पास की और पिता के साथ मजदूरी करने लगे. मगर साथ ही साथ इंटर कॉलेज में 11वीं में दाखिला लिया. गरीबी से निजात पाने के लिए फकीर चंद ने पढ़ाई के साथ दूध बेचने का काम शुरू किया.

सुबह चार बजे साइकिल से शहर में दूध बांटने जाने लगे. इससे भी बहुत आमदनी नहीं हुई. फकीर चंद बताते हैं, "दलित जाति से ताल्लुक रखने के कारण लोग मदद करने से मुंह फेर लेते थे." वर्ष 1983 में डीएवी कॉलेज मुजफ्फरनगर में ग्रेजुएशन में प्रवेश लेने के साथ फकीर चंद ने अपने पिता के साथ राजमिस्तरी का काम भी सीख लिया.

इसी दौरान मुजफ्फरनगर के बेगराजपुर औद्योगिक क्षेत्र में नई-नई फैक्ट्रियां आ रही थीं. इनके लिए भवन निर्माण से जुड़े छोटे कार्य फकीर चंद को मिलने लगे. थोड़ी आमदनी बढ़ी तो परिवार की आर्थिक हालत में सुधार हुआ. फकीर चंद बताते हैं, "जब काम मिलने लगा तो मेरे अंदर खुद का बिजनेस करने का जुनून भी पैदा हुआ."

अपनी ईमानदार और मेहनती छवि के चलते फकीर चंद बेगराजपुर औद्योगिक क्षेत्र में निवेश करने वाले उद्यमियों के बीच लोकप्रिय हो गए और 1988 में फकीर चंद को मुजफ्फरनगर में यूपी स्टील कंपनी में मशीनों का फाउंडेशन तैयार करने से लेकर कर्मचारियों के लिए छोटे आवास बनाने के कुछ बड़े काम मिले. दो साल बाद  1990 में फकीर चंद्र ने मुजफ्फरनगर के दौराला में एक स्टील प्लांट के निर्माण को सफलता पूर्वक अंजाम दिया.

गुणवत्ता के साथ समय पर काम पूरा करने के जुनून से फकीर चंद की प्रसिद्धि मुजफ्फरनगर के आसपास के जिलों में फैलने लगी. अपने काम को व्यवस्थित रूप देने के लिए फकीर चंद ने 1991 में 15 लोगों के साथ 'मोरवेल कंस्ट्रक्शन कंपनी’ बनाई. फकीर चंद बताते हैं, "लोग मेरे काम को बहुत अच्छा कहते थे. बहुत की अंग्रेजी 'मोर’ और अच्छा की अंग्रेजी 'वेल’ को जोड़कर मैंने अपनी कंपनी का नाम 'मोरवेल’ रखा."

हालांकि इस दौरान फकीर चंद को बैंक से लोन लेने में बहुत दिक्कतें आईं. उनके मुताबिक, उनकी जाति के चलते उन्हें गारंटर नहीं मिलते थे और उनकी अपनी बिरादरी में उस वक्त बैंक एकाउंट रखने वाले लोग न के बराबर थे.

लेकिन दिन बदले और 1993 में मोरवेल कंस्ट्रक्शन कंपनी को पहला ही काम रिकॉर्ड 85 लाख रुपए की लागत से संभल जिले में धामपुर शुगर मिल असमोली के निर्माण का मिला. धीरे- धीरे मोरवेल कंस्ट्रक्शन कंपनी के काम की तारीफ पश्चिमी यूपी के जिलों की सीमा पारकर रुहेलखंड पहुंचने लगी. 1996 में लखीमपुर खीरी में डीसीएम श्रीराम लिमिटेड कंपनी की नई चीनी मिल के सभी चरणों के निर्माण की जिम्मेदारी मिली.

करीब 12 साल तक यहां पर काम करने के दौरान फकीर चंद ने 'स्लिपफॉर्म’ टेक्नोलाजी से चीनी मिलों की चिमनी बनाना भी सीख लिया. उस वक्त चीनी मिलों की चिमनी बनाने की यह अत्याधुनिक तकनीक थी. इससे मोरवेल कंस्ट्रक्शन कंपनी की क्षमता में इजाफा हुआ. कंपनी ने रोहतक समेत कई जिलों की चीनी मिलों में सफलतापूर्वक अत्याधुनिक चिमनी लगाकर अपनी धाक जमाई. 

चीनी मिलों की स्थापना में मिल रही प्रसिद्धि से प्रभावित होकर इंडिया पोटाश लिमिटेड कंपनी ने 2007 में बुलंदशहर के सिकंदराबाद में मिल्क प्लांट स्थापित करने का जिम्मा मोरवेल को सौंपा. 27 करोड़ रुपए की लागत से बनने वाला मिल्क प्लांट फकीर चंद की कंपनी को मिला अब तक का सबसे बड़ा काम था.

यह काम कर ही रहे थे कि पास में एपीएल अपोलो ट्यूब लिमिटेड के अधिकारियों ने फकीर चंद को अपनी फैक्ट्री में भवन निर्माण की जिम्मेदारी सौंप दी. फकीर चंद बताते हैं, "एपीएल अपोलो ट्यूब लिमिटेड में मैंने लोहे की हॉट रोल्ड (एचआर) कॉइल से पाइप बनते देखा. उसके बाद मैं पाइप बनाने की तकनीक सीखने लगा."

यहीं से फकीर चंद को पाइप निर्माण व्यवसाय में उतरने की प्रेरणा मिली और उन्होंने 2008 से मुजफ्फरनगर के बेगराजपुर औद्योगिक क्षेत्र में थोड़ी-थोड़ी जमीन खरीदनी शुरू की. और वर्ष 2018 में मोरवेल ट्यूब्स प्राइवेट लिमिटेड के नाम से बेगराजपुर में पांच एकड़ जमीन पर लोहे के पाइप बनाने वाली अत्याधुनिक फैक्ट्री की शुरुआत हुई.

यहां बनने वाले लोहे के पाइपों ने जल्द ही ऑटोमोबाइल, फर्नीचर और सिविल कंस्ट्रक्शन से जुड़ी कंपनियों का ध्यान अपनी ओर खींचा. स्थापना के पांच वर्ष बीतने के बाद कंपनी के उत्पादन में पांच गुना से ज्यादा बढ़ोतरी हुई है. इसी अनुपात में इसका सालाना टर्नओवर भी 200 करोड़ रुपए के करीब पहुंच गया है.

फकीर चंद गर्व से बताते हैं, "जो हमारा माल एक बार उपयोग कर लेता है, दोबारा भी यहीं से ही लेता है. आज तक एक भी माल वापस नहीं आया है." इसी हौसले के साथ फकीर चंद अपनी कंपनी के सालाना टर्नओवर को 1,000 करोड़ रुपए तक पहुंचाने के लक्ष्य को लेकर आगे बढ़ रहे हैं. 

राजमिस्तरी से एक बड़े बिजनेसमैन बनने का सफर तय कर चुके फकीर चंद्र मोघा के रहन सहन में कोई बदलाव नहीं आया है. मुजफ्फरनगर की फैक्ट्री में बने मोरवेल ट्यूब्स के दफ्तर को देख मोघा की सादगी का पता चलता है. इस ऑफिस में एक तरफ दो मेजों को जोड़कर एक बड़ी मेज का आकार दिया गया है. इसमें मोघा अपने दो बेटों रजत और दिव्यांशु के साथ बैठते हैं.

मोघा बताते हैं, "हम तीनों ही अपनी फैक्ट्री में चेयरमैन से लेकर चपरासी तक का काम करते हैं. यहां हर व्यक्ति मेरे बराबर है." मोघा फैक्ट्री में काम करने वाले कर्मचारियों के साथ ही दोपहर का भोजन करते हैं. यही दिनचर्या अब मोघा के शौक में शुमार हो गई है. मोघा बताते हैं, "अपने कर्मचारियों के साथ रहना और उनका हाथ बंटाना ही मेरा शौक है." 

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