'और दुनिया एक होकर रहने लगेगी'

भारत की कहानी इसके अंदर गुंथी असमानताओं की कहानी भी है. कुछ लोगों और समूहों ने बेहतर और ज्यादा न्यायसंगत समाज का सपना देखने की न केवल दूरदृष्टि दिखाई, बल्कि उसके निर्माण का साहस और संकल्प भी

तेलंगाना में डेक्कन डेवलपमेंट सोसाइटी की महिला साथी
तेलंगाना में डेक्कन डेवलपमेंट सोसाइटी की महिला साथी

विशेषांक : भारत की शान

सामाजिक उपक्रम

अमिता बाविस्कर
अशोका यूनिवर्सिटी में समाजशास्त्री

हर सुबह जब मैं अपनी बालकनी में फेंका गया अखबार उठाती हूं, डॉन मैक्लीन के क्लासिक गीत अमेरिकन पाइ का यह मुखड़ा—'बैड न्यूज ऑन द डोरस्टेप (दहलीज पर बुरी खबर)' —मेरे दिमाग में कौंधता है. निराशा की दैनिक खुराक—सार्वजनिक जीवन में लगातार आ रही गिरावट, हाशिए पर धकेल दिए गए समुदायों की तकलीफ, पर्यावरण का विनाश की खबरों के बीच मैं शुक्रगुजार होती हूं अंधेरे में रौशनी लाते इन रौशख्याल लोगों का, जो बेहतर दुनिया की कल्पना कर सकते हैं और उसे साकार करने की हिम्मत भी, उन नागरिकों का जिन्होंने सबसे गरीब और सबसे कमजोर के बारे में पहले सोचने के महात्मा गांधी के तावीज को आत्मसात किया, और जो दूसरों के प्रति करुणा और न्याय के लिए प्राणपण से जुटने को प्रतिबद्ध हुए.

भारत अपने गांवों में रहता है. हर दस में से छह भारतीय अब भी रोजी-रोटी के लिए खेती से जुड़े कामों पर निर्भर हैं. तिस पर भी बढ़ती लागतों, अनिश्चित बाजारों और अप्रत्याशित मौसम की निर्मम चक्की ऐसी है कि दो जून की रोटी भी कइयों के लिए मुश्किल है. काम के लिए शहरों में पलायन का ही रास्ता बचता है. तेलंगाना में डेक्कन डेवलपमेंट सोसाइटी (डीडीएस) और मोटे अनाजों पर उसके काम ने इस गतिरोध को तोड़ा. दलित महिला किसानों को जमीन हासिल करने और शुष्क भूमि पर उपयुक्त फसलें उगाने में मदद करके डीडीएस ने उन्हें कर्ज मुक्त होने और अपने ग्रह के प्रति दयालु होते हुए स्वस्थ खाना खाने में समर्थ बनाया. आंध्र प्रदेश में टिंबक्टू कलेक्टिव भी इसी जज्बे से काम करता है. उसने ऐसी सहकारी संस्थाएं बनाईं जो जैविक खेती की ओर लौटने और जंगलों को नवजीवन देने में ग्रामीणों की मदद करती हैं. दोनों मिलकर रसायन और जल सघन खेती की बंद गली से बाहर आने का रास्ता दिखा रहे हैं.

गुजरात में कच्छ का सहजीवन ट्रस्ट भी इसी विश्वास से प्रेरित है कि अर्थव्यवस्था और पारिस्थितिकी तंत्र को परस्पर सौहार्द से काम करना चाहिए. बन्नी के घास के मैदानों में मवेशी चराने वाले समुदाय वन्यजीवों के साथ सहअस्तित्व में रहते हैं और इस भूभाग के लिए सबसे उपयुक्त भैंसों और ऊंटों को पालते आए हैं. मगर सरकारी पाबंदियों, अतिक्रमण और हमलावर पौधों ने इन चरागाहों को बर्बाद कर दिया. उनकी खास जीवनशैली खतरे में पड़ गई. सहजीवन ट्रस्ट घास के मैदान फिर हासिल और बहाल करने और पशुधन की स्थानीय नस्लें कायम रखने में मदद करता है. डीडीएस और टिंबक्टू की तरह सहजीवन भी मानता है कि लोगों के पास स्थायी समाधान खोजने का ज्ञान और योग्यता है. उन्हें बस मदद के लिए बढ़े हाथों की जररूत है.

कोलकाता के पूरब में स्कोप एक अद्भुत प्रणाली को बरकरार रखने वाले किसानों और मछुआरों की मदद करता है. इस प्रणाली में वे शहर के गंदे पानी को बायोडिग्रेड करके साफ पानी निकालते हैं और उसे धान और सब्जियां उगाने और मछली फार्मों में इस्तेमाल करते हैं. स्कोप ने हुगली की खारे पानी के दलदल में इस सरल और सुघड़ अवशिष्ट जलशोधन-सह-खाद्य उत्पादन प्रणाली स्थापित की और उसे शहरी अतिक्रमण से बचाया.

यह अक्सर भुला दिया जाता है कि भारत के गांव न केवल भोजन उगाते हैं, बल्कि तमाम तरह के दस्तकारी के सामान भी बनाते हैं. लाखों लोगों का भरण-पोषण करने वाली हुनरमंद शिल्पकला की अर्थव्यवस्था को उपनिवेशवाद ने उजाड़ दिया. हाथ से रुई का धागा कातकर और खादी पहनकर गांधी ने हमें याद दिलाया कि इस अर्थव्यवस्था की रक्षा करना हमारी आजादी का अंतर्भूत हिस्सा था. हैदराबाद में मल्खा के लिए आज खादी के पुर्नसृजन का मतलब न केवल हाथ से कातने वाले बुनकरों और उनके उत्पादों की मदद करना है, बल्कि खादी के लिए ज्यादा उपयुक्त स्थानीय कपास की प्रजातियों को वापस लाने के लिए किसानों के साथ काम करना भी है. इन धागों को एक सूत्र में पिरोकर उन्होंने न केवल खादी को, बल्कि टिकाऊ उत्पादन और खपत के बड़े पारिस्थितिकी तंत्र को भी मजबूत किया. राजस्थान के काला डेरा के बिंदास अनलिमिटेड ने प्राकृतिक रंगाई को फिर जिंदा करने के लिए यही सिद्धांत अपनाए और इस्तेमाल के बाद फेंक दिए जाने वाले व्यापक फैशन के किफायती विकल्प के तौर पर सरस छापे तैयार करके अपने बाजार को फैलाया.

हमें जिंदा रहने के लिए रोटी और कपड़े के अलावा भी बहुत कुछ चाहिए. अच्छी सेहत बहुत जरूरी है. लोगों के गरीबी में धंसने का सबसे बड़ा कारण है इलाज के खर्च का भारी बोझ. छत्तीसगढ़ के बिलासपुर में जन स्वास्थ्य सहयोग (जेएसएस) बेपरवाह सरकारी व्यवस्था और बेरहम निजी डॉक्टरों के बीच घिसटते आदिवासियों को राहत देता है. जेएसएस चैरिटी नहीं है; यह मल्हम-पट्टी की खैरात नहीं बांटता. इसके बजाय यह आदिवासियों की प्राथमिकताओं के अनुरूप सेवाएं देकर अच्छे पोषण और स्वास्थ्य के उनके अधिकारों पर ध्यान देता है. जेएसएस ग्रामीणों को अपने समुदाय के लिए स्वास्थ्य कार्यकर्ता बनने का प्रशिक्षण भी देता है, जहां सबसे ज्यादा जरूरत होती है वहां व्यावहारिक हुनर सिखाता है, और गैर-भरोसेमंद व्यवस्था पर उनकी निर्भरता कम करता है.

अगर पीपल्स आर्काइव ऑफ रूरल इंडिया (पीएआरआइ) नहीं होता, तो हममें से ज्यादातर इन कोशिशों के बारे में जान भी न पाते. यह देश भर के छात्रों और पेशेवर पत्रकारों के रिर्पोताजों और सांस्कृतिक इतिवृत्ति का असाधारण भंडार है. यहां ग्रामीण हकीकत के हर पहलू की कहानियां ज्वलंत शब्दों और तस्वीरों में दर्ज हैं. वे जाति, वर्ग और लैंगिक खाई की कठोरता को बयां करती हैं, पर साथ ही इन इलाकों का चमत्कारिक, खुशनुमा और अनूठा पहलू भी सामने लाती हैं. एक और पहल, जो यौनिकता जैसे गंभीर विषय से हलके-फुलके ढंग से निबटने के अपने तरीके की वजह से मुझे पसंद है, वह है एजेंट्स ऑफ इश्क. इसका गैर-उपदेशात्मक स्वर कभी बोरियत को जगह नहीं देता और सेक्स, प्यार और चाहत के इर्द-गिर्द फैल लांछनों से चतुराई से निबटता है.

प्यार की बात करें, तो मुझे कारवां-ए-मोहब्बत (केईएम) को सलाम करना ही चाहिए. दिल्ली स्थित यह उपक्रम उन तमाम जगहों तक जाता है जहां सांप्रदायिक हिंसा ने लोगों की जिंदगियां तहस-नहस कर दीं. यह पचमेल समूह दूसरों की तकलीफ सुनने के लिए समर्पित है. जब नफरत की राजनीति ने समुदायों को बांटा, कारवां का होना हमें याद दिलाता है कि अभी परवाह करने वाले लोग हैं. भारतीय संविधान की भावना को जीवंत करने वाली खूबसूरत शॉर्ट फिल्मों के साथ केईएम तमाम भारतीयों को जोड़ रहा है.

जहां सभी गरिमापूर्ण और सोद्देश्य जीवन जी सकें, अपना पालन-पोषण करने वाली पृथ्वी की रक्षा करें, और अपनी समृद्ध सांस्कृतिक और पारिस्थितिकीय विविधता को बनाए रखें, ऐसा देश बनाने के लिए खुद को समर्पित करना तभी संभव है जब आपमें एक खास किस्म की ईमानदारी और साहस हो. इस निबंध में 10 असाधारण समूह हैं, लेकिन, गांधी की तरह, इनमें हजारों साधारण प्रतीत होने वाले लोगों को महानता के लिए प्रेरित करने की वह क्षमता है जो बदलाव लाती है. 

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