लाइट, कैमरा और कमाल
यहां पेश हैं 10 ऐसे क्रिएटर्स, जो आंधी हो या तूफान, ओले गिरें या हो महामारी, हमेशा लोगों के दिलो-दिमाग पर छाए रहेंगे

विशेषांक : भारत की शान
बॉलीवुड के निर्देशक
खालिद मोहम्मद, फिल्मफेयर के पूर्व संपादक, फिल्म समीक्षक, फिल्म निर्माता और लेखक
शानदार वक्त रहा हो या बहुत ही खराब वक्त, भारतीय सिनेमा दुनिया में सबसे ज्यादा फिल्में प्रोड्यूस करता रहा है और वे क्वालिटी के मामले में खूब विविध भी रही हैं. इस बॉम्बे इंडस्ट्री का आउटपुट अपने प्रभाव के लिहाज से सबसे ज्यादा व्यापक रहा है. यहां पेश हैं 10 ऐसे क्रिएटर्स, जो आंधी हो या तूफान, ओले गिरें या हो महामारी, हमेशा लोगों के दिलो-दिमाग पर छाए रहेंगे. इनमें से ज्यादातर में एक समानता है, बेहतरीन मौसिकी के प्रति उनका लगाव. इसके अलावा, अपने स्टूडियो और फिल्म निर्माण बैनर तैयार करने के लिए उद्यमशीलता की भावना है. यहां 10 लोगों के चुनाव की मजबूरी के चलते इस सूची में से कुछ दिग्गजों के नाम छोड़ने के लिए आप मेरी लानत-मलामत कर सकते हैं. यश चोपड़ा, विजय आनंद, राज खोसला, शक्ति सामंत, दुलाल गुहा, असित सेन, बासु चटर्जी, श्याम बेनेगल और सई परांजपे से माफी चाहता हूं, जो बेशक सर्वकालिक महान लोगों की इस सूची में शामिल हैं.
वी. शांताराम (1901-1990)
अदम्य ऊर्जा से ओतप्रोत, हुबली थिएटर में एक दरबान के रूप में दादासाहब फाल्के को मुफ्त में देखते हुए सिनेमा की दुनिया में कदम रखा. मुद्दा आधारित फिल्म बनाने वाले पहले निर्देशक थे, जिसके तहत उन्होंने मिथकीय और ऐतिहासिक कहानियों को नाटकीय अंदाज में पेश किया. इसी लीक पर चलते हुए उन्होंने कई यादगार फिल्में—मानूस (1939), डॉ. कोटनिस की अमर कहानी (1946), दहेज (1950), दो आंखें बारह हाथ (1957) बनाई. झनकारमय संगीत से सजी झनक झनक पायल बाजे (1955) और नवरंग (1959) के साथ एक यू-टर्न आया. नवरंग आंखों की दुर्घटना से उबरे व्यक्ति के लिए रंगों के वैभव को दर्शाती है, दोनों फिल्में उनकी माशूका संध्या का स्तुतिगान हैं.
महबूब खान (1907-1964)
कभी घोड़े की नाल की मरम्मत करने वाले इस छोटे-मोटे अभिनेता में करीने से सजे-धजे निर्माता-निर्देशक में बदलने का दुस्साहस था. उनकी फिल्मों में ज्यादातर अपने दौर, समाजवादी जमाने की बातें हुआ करती थीं—मदर इंडिया (1957) में इसे सबसे नुमायां अंदाज में जाहिर किया गया था, जो उन्हीं की फिल्म औरत (1940) का रीमेक थी. इसमें नरगिस को उनके करियर की सबसे बढिय़ा भूमिका में दिखाने के अलावा, काश्तकारों के रोजमर्रा के संघर्ष को बारीकी से दिखाया गया था, और इसे ऑस्कर के लिए नॉमिनेट किया गया था. महबूब स्टूडियोज के मालिक ने ग्रामीण पृष्ठभूमि पर रूमानी फिल्मों का निर्माण किया. परिष्कृत और आधुनिक लहजे वाली अंदाज (1949) में नरगिस की सगाई राज कपूर से पहले ही हो चुकी थी और प्यार में ठुकराए दिलीप कुमार ने दिलकश अभिनय किया था. पहली बार अमर (1954) में दिलीप को नकारात्मक किरदार के तौर पर पेश किया गया.
कमाल अमरोही (1918-1993)
स्व भाव से शायर के. आसिफ मुग़ल-ए-आज़म के लिए नफीस उर्दू डायलॉग लिखने वाली चौकड़ी में से एक थे. उनके पास हीरोइन के जरिए को लोचदार कहानी में जान डालने का अनोखा तरीका था. ''भारत की पहली डरावनी फिल्म'' महल (1949) एक प्रेतात्मा के इर्द-गिर्द घूमती है, जिसमें एक यादगार मधुबाला ने यादगार अभिनय किया है. दायरा (1953) महिलाओं की दशा का अविश्वसनीय रूप से कम मूल्यांकन वाला चित्रण है, जिसमें मीना कुमारी लाक्षणिक रूप से चार दीवारों के भीतर सीमित हैं. पाकीजा (1972) में उनकी छाप साफ दिखती है—भव्य सेट, न्यूनतम अभिनय, यादगार गानों का भव्य पिक्राइजेशन. इसके मुकाबले रज़िया सुल्तान (1983) फीकी रही. अफसोस, उनका ड्रीम प्रोजेक्ट, आखिरी मुग़ल, सपना ही बनकर रह गया.
बिमल रॉय (1909-1966)
विटोरियो डी सिका की द बाइसिकल थीव्ज (1948) के नव-यथार्थवाद और समान रूप से समृद्ध भारतीय रोमांटिक परंपरा में रंगे राय ने एक शानदार मिश्रण तैयार किया—लचीला फ्रेम, मधुर संगीत में जज्बात के उतार-चढ़ाव का तड़का. उनकी कृतियों में दो बीघा जमीन और परिणीता (1953), देवदास (1955), मधुमती (1958, एक गैरमामूली भुतहा कहानी), सुजाता (1959), परख (1960), काबुलीवाला (1961) और बंदिनी (1963) जैसी कालजयी फिल्में शामिल हैं. कभी संगीतकार सलिल चौधरी तो कभी एस.डी. बर्मन के साथ उनके साउंडट्रैक अभी भी यूट्यूब पर लोकप्रिय हैं. बंगाल के अकाल और विवेकानंद पर वृत्तचित्र दिखाते हैं कि उन्हें कहां से प्रेरणा मिली थी.
राज कपूर (1924-1988)
ऐक्टर-थिएटर निर्देशक पृथ्वीराज के बेटे का जन्म सिनेमा में हुआ था. महज 24 साल की उम्र में एक कलाकार की पोट्रेट आग (1948) से निर्देशन की शुरुआत कर उन्होंने बरसात (1949), आवारा (1951), श्री 420 (1955) के साथ खुद को ऐक्टर, निर्देशक और अक्सर एडिटर के रूप में स्थापित किया. उन्होंने नेहरूवादी लोकाचार के साथ मनोरंजन और लोकप्रिय भारतीय सिनेमा के डीएनए को काफी हद तक निर्धारित किया. आवारा से शोमैन बनने तक समाजवादी-युग के नाटकों पर आधारित वर्ग से लेकर बड़े-बजट के आत्ममुग्ध करने वाले महाकाव्यों तक, शानदार संगीत के प्रति उनकी ललक, अक्सर काल्पनिक और बेहद अलंकृत दृश्य और चैपलिन जैसा अभिनय सबमें हमेशा बना रहा.
के. आसिफ (1922-1971)
इटावा से बंबई पहुंचते ही उन्होंने फिल्म निर्माण की वर्णमाला सीखने में खुद को मसरूफ कर लिया. फूल (1945) के साथ शानदार शुरुआत के अलावा, उन्होंने मुग़ल-ए-आज़म (1960) के निर्माता के रूप में लीजेंड का अपना दर्जा हासिल किया, जिसे बनाने में 12 साल लग गए और फिनिशिंग लाइन के लिए बार-बार तब्दीलियां कीं. राग से सजे नौशाद के संगीत, अनारकली के रूप में मधुबाला की दिल थामने वाली अदा, दिलीप कुमार का फिक्रमंद सलीम, सांसों को झकझोर देने वाला सेट (वह शीश महल!), और एक अव्यक्त, शायद अनजाने में रूसी लेखक सर्गेई ईसेनस्टीन का प्रभाव, मेरी राय में अब तक की सर्वश्रेष्ठ हिंदी फिल्म है. वे अपने आखिरी प्रोजेक्ट, लव ऐंड गॉड को पूरा नहीं कर पाए क्योंकि इसके मुख्य किरदार गुरु दत्त ने खुदकुशी कर ली थी.
गुरु दत्त (1925-1964)
मात्र 39 साल की उम्र में दुनिया छोड़ गए गुरु दत्त का उदय शंकर की शागिर्दी में नर्तक के रूप में प्रशिक्षण हमेशा काम आया—अचूक टाइमिंग और मूवमेंट उनके कैमरे की खूबी थी. बंबई की दो क्राइम फिल्मों—बाजी (1951) और जाल (1952) में लाइटिंग और फ्रेमिंग के जरिए उन्होंने अपना सिक्का जमा लिया था. '50 के दशक के मध्य में रोमांटिक कॉमेडी (आर पार, मिस्टर ऐंड मिसेज 55) की ओर रुख करने के बाद उन्होंने क्लासिक्स—प्यासा (1957), कागज के फूल (1959) और साहिब बीबी और गुलाम (1962) को तैयार किया, जो अब भी उतनी ही लोकप्रिय हैं.
हृषिकेश मुखर्जी 1922-2006)
बिमल रॉय के शागिर्द और पहले से ही सहायक निर्देशक, कैमरामैन और एडिटर, बहु-प्रतिभा के धनी हृषिकेश मुखर्जी ने बॉलीवुड की महान कृतियों के बीच छोटी, मानवीय, मध्यमार्गी दिलचस्प फिल्मों के जरिए अपनी खास जगह बनाई. उनके रंग बहुत सारे माइक्रोटोन में फैले हुए थे—अनाड़ी (1959), अनुराधा (1960), अनुपमा (1966), सत्यकाम (1969), गुड्डी, आनंद (दोनों 1971), अभिमान (1973) तक, सभी में सूक्ष्मता थी, प्राय: साहित्यिक चित्रण कर रही हो और उनमें कहानी कहने की गजब की ललक थी. फिर भी कई लोग उन्हें उनकी कॉमेडी चुपके चुपके (1975) और गोलमाल (1979) के लिए याद करेंगे.
रमेश सिप्पी (1947-)
निर्माता जी.पी. सिप्पी के बेटे ने कम उम्र में ही कामयाबी का झंडा गाड़ दिया था. सलीम-जावेद की स्क्रिप्ट से सिनेमा का इतिहास रचने से पहले उनके जेहन में एक फौजी की कहानी चल रही थी. डकैत-बनाम-गांव पर आधारित शोले (1975)—कुरोसावा के सेवन समुराई, सैन सेबेस्टियन की एंथनी क्विन अभिनीत गन्स और कई फिल्मों से प्रेरणा लेकर जोरदार मसाला तैयार किया गया—अब तक सबसे ज्यादा सराही गई एंटरटेनर के रूप में अभी तक कायम है. सिप्पी ने हमें शक्ति (1982), सागर (1985) और बुनियाद (1986-87) दी, लेकिन अंगारे कभी शोले नहीं बन पाए.
मनमोहन देसाई (1937-1994)
चमत्कार करने वाले इस शख्स ने एक बार पेशनगोई की थी, ''आप आलोचक मुझ पर हंस लें लेकिन एक रोज आप मुझे भारत का स्टीवन स्पीलबर्ग कहेंगे.'' मनजी भले ही अतिशयोक्ति कर जाते रहे हों लेकिन वे आपको नामुमकिन में भरोसा करने के लिए राजी कर सकते थे. क्या अब आप यकीन मानेंगे कि उन्होंने अपनी पारी की शुरुआत गंभीर ब्लैक ऐंड व्हाइट फिल्म, छलिया (1960) के साथ की थी, जिसे दोस्तोवस्की की व्हाइट नाइट्स से रूपांतरित किया गया था? उनका मसालों से पैक्ड बॉक्स हमेशा उनके बेहतरीन मसाले के लिए जाना जाएगा—अमर अकबर एंथनी (1977).