वक्त के साथ कदमताल

देश की नृत्य शब्दावली ने किस तरह भारतीय शास्त्रीय नृत्य रूपों से आगे बढ़कर हिप-हॉप सरीखी पश्चिमी शैलियों को अपने में समाहित किया.

 बदलती मुद्रा : एडिनबरा इंटरनेशनल फेस्टिवल, 2012 में अदिति मंगलदास डांस कंपनी.
बदलती मुद्रा : एडिनबरा इंटरनेशनल फेस्टिवल, 2012 में अदिति मंगलदास डांस कंपनी.

आजादी @ 75 कला : नृत्य


दुनिया से भारतीय नृत्य का परिचय

उन्नीस सौ चालीस और 50 के दशक में उदय शंकर, मैडम मेनका, रुक्मिणी देवी अरुंडेल और गुरु गोपीनाथ सरीखे दिग्गजों ने ऐसी कंपनियां शुरू कीं, जिन्होंने बारीकी से संयोजित नृत्य नाटिकाओं के साथ दुनिया का दौरा किया और भारतीय नृत्य को दूर-दूर तक ले गए. हालांकि अगला दशक आते-आते नृत्य की यह अवधारणा फीकी पड़ने लगी. आज दिल्ली के कथक केंद्र, चेन्नै के कलाक्षेत्र और त्रिचुर के केरला कलामंडलम सरीखी ज्यादातर सरकारी धन से संचालित संस्थाएं ऐसी प्रस्तुतियों का मंचन करती हैं.

परंपरा से आधुनिकता का मिलन
बड़ौदा की महाराजा सयाजीराव यूनिवर्सिथटी और मुंबई के नालंदा नृत्य कला महाविद्यालय सरीखी संस्थाओं में गुरु-शिष्य परंपरा की जगह एकरूप और संरचित नृत्य सिखाए जाने लगे हैं. गुरु-शिष्य परंपरा भारतीय शास्त्रीय नृत्य का विशिष्ट अंग हुआ करती थी, हालांकि ऐसा नहीं है कि यह परंपरा पूरी तरह पुरानी और बेकार है (प्रोतिमा बेदी के हाथों स्थापित नृत्यग्राम को ही लीजिए), पर शिक्षकों ने ज्यादा संरचित दृष्टिकोण विकसित करने के लिए इसकी सीमाओं के साथ-साथ खास तत्वों पर भी विचार किया. 

टेलीविजन का असर

शास्त्रीय नृत्यकार भारत की समृद्ध प्रदर्शनकारी कला परंपराओं के हरावल दस्ते हुआ करते थे, जिन्हें संगीत नाटक अकादेमी (1952) और भारतीय सांस्कृतिक संबंध परिषद (1950) सरीखी संस्थाओं का सहयोग मिला. जनमानस पर उनका असर तब धुंधला पड़ने लगा जब भारत के लोग टेलीविजन पर नई नृत्य शैलियों के संपर्क में आए. इसके चलते गोपी किशन, कुमुदिनी लाखिया और बिरजू महाराज सरीखे नृत्यकार हिंदी फिल्मों के लिए कोरियोग्राफी करने लगे.

रियलिटी शो से निकली क्रांति

दो हजार के दशक के मध्य तक बूगी वूगी, झलक दिखला जा और डांस इंडिया डांस जैसे देसी डांस रियलिटी शो ने दर्शकों का तआरुफ बॉलरूम, हिप-हॉप के लिरिकल फॉर्म और अन्य डॉन्स फॉर्म से करवाने में अहम भूमिका अदा की. बदले में उन्होंने कोरियोग्राफरों की समूची फौज को जन्म दिया, जिन्होंने अपने स्टुडियो स्थापित किए और जिन्हें अपनी कला को फैलाने के लिए सोशल मीडिया पर महारत हासिल थी. हिप हॉप क्रू किंग्स यूनाइटेड सरीखे कुछ स्टुडियो ने तो आगे चलकर अंतरराष्ट्रीय छाप छोड़ी.

मंदिरों से वापसी की शुरुआत

अब नृत्य को लेकर स्थल केंद्रित काम ज्यादा आम बात हो गई है. इस कला की शुरुआत मंदिरों से ही हुई थी और अब नृत्य को मंच प्रदान करने का फायदा कई मंदिरों और राज्य बोर्डों को मिला है. यह खजुराहो और कोणार्क में आयोजित नृत्य उत्सवों से जाहिर है. हाल में कॉर्पोरेट कंपनियां भी इस दौड़ में कूद पड़ीं, जैसे कि अब नीमराना समूह अपनी धरोहर संपत्ति में नृत्य को बढ़ावा दे रहा है.

समूह की शरण में

एकल नृत्य की कला अब ज्यादा से ज्यादा समूह की कला बनती जा रही है. नृत्य उत्सवों में अब ज्यादातर समूह कोरियोग्राफी और समूह प्रस्तुतियों का धूम-धड़ाका दिखता है. माता-पिता की आकांक्षाएं बहुत ज्यादा हैं और गुरु जानते हैं कि शिष्य मंच पर आकर अपना शानदार जलवा दिखाने के लिए मन ही मन मचल रहे हैं.

यहां तक कि उत्सवों के आयोजकों की दिलचस्पी भी दर्शकों के आस्वाद को ध्यान में रखते हुए एकल प्रस्तुतियों के बजाए ग्रुप कोरियोग्राफी में ज्यादा है. हालांकि द म्यूजिक एकेडमी और नारद गण सभा सरीखी चेन्नै की कुछ संस्थाएं एकल परंपरा का जिंदा रहना पक्का कर रही हैं.

ऑनलाइन से समतल हुआ मैदान

महामारी ने नृत्य कलाकारों को अपनी कक्षाएं और यहां तक कि प्रस्तुतियां भी ऑनलाइन ले जाने को मजबूर कर दिया. इसकी कीमत गुणवत्ता से जरूर चुकानी पड़ी, पर इसने आसान सुलभता के साथ बराबरी का मैदान भी मुहैया करवाया. हालांकि इससे कलाकारों की लंबे समय तक टिके रहने की क्षमता कम हो रही है और इसमें प्रतिस्पर्धा भी बहुत ज्यादा है..

-आशीष मोहन खोकर

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