विशेषांकः खामोश किए अल्पसंख्यक?
देश के मुसलमान राजनैतिक रूप से हाशिए पर पहुंचे तो उनका सामाजिक-आर्थिक पिछड़ापन और गहरे बैठा भेदभाव और मारक हुआ

अपने देश में छह धार्मिक समुदायों को 'अल्पसंख्यक' माना जाता है लेकिन अमूमन पाया जाता है कि यह शब्द एक 'खास समुदाय' की पहचान है. मुसलमान भारत में प्रतीकात्मक अल्पसंख्यक ही हैं, इसकी एक वजह तो यह है कि वे छह अधिसूचित समूहों में सबसे बड़ा तबका हैं—देश की आबादी में दहाई अंकों में हिस्सेदारी रखने वाला इकलौता समुदाय (2011 की जनगणना के मुताबिक 14.2 फीसद)—लेकिन इस हकीकत (जो उससे अलग नहीं है) की वजह से भी कि वे हिंदू बहुसंख्यक की मौजूदा सांस्कृतिक और राजनैतिक कल्पना में 'पराए' बन गए हैं.
बेशक यह ऐतिहासिक मसला है जो 75 साल पहले हुए हिंसक सांप्रदायिक बंटवारे से तीखा हो गया. हालांकि, 2014 में नरेंद्र मोदी के पहली बार सत्ता में आने के बाद से बहुसंख्यकवादी हिंदुत्व का उभार मुसलमानों की बदकिस्मती में नया मोड़ लेकर आया. उन्हें सियासी हाशिए पर धकेलने और उत्पीड़न की नई रवायत बदहाली के कगार पर ले आई.
2006 में सच्चर कमेटी की चर्चित रिपोर्ट ने देश के मुसलमानों के सामाजिक-आर्थिक 'पिछड़ेपन' पर रोशनी डाली थी. रिपोर्ट में कहा गया था कि रोजगार, शिक्षा और साक्षरता जैसे मापदंडों पर उनकी स्थिति दूसरे 'अल्पसंख्यकों' जैसी नहीं, बल्कि ऐतिहासिक रूप से उत्पीड़ित अनुसूचित जातियों और जनजातियों जैसी है. रिपोर्ट के मुताबिक, कोई 31 फीसद मुसलमान गरीबी रेखा से नीचे हैं, आइएएस और आइपीएस में वे क्रमश: 1.8 फीसद और 4 फीसद है, साक्षरता दर राष्ट्रीय औसत के बेहद नीचे है और 25 फीसद मुसलमान बच्चे स्कूल नहीं जा पाते हैं. यूएनडीपी की 2018 की एक रिपोर्ट के मुताबिक, ''हर तीसरा मुस्लिम बहुआयामी गरीबी से ग्रस्त है.'' नीति आयोग की 2018 की एक रिपोर्ट में देश के सबसे पिछड़े 20 जिलों में आधे से अधिक मुस्लिम बहुल हैं.
दूसरा चिंताजनक मापदंड है बंदियों की संख्या—राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के 2019 के आंकड़ों के मुताबिक जेलों में मुस्लिम कैदियों की संख्या करीब 18 फीसद है, जबकि विचाराधीन कैदियों में मुसलमान करीब 35.8 फीसद हैं.
यही नहीं, गोरक्षा लिंचिंग से लेकर सीएए-एनआरसी की क्रोनोलॉजी वाली धमकी, दिल्ली दंगों से लेकर कोरोना जिहाद, लव जिहाद तक, मुसलमानों के पास शक करने की वाजिब वजहें हैं कि हिंदुत्व के वर्चस्व वाले भारत में उनके लिए बहुत कम जगह बची है.
सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की राजनीति से केंद्र और राज्यों में मुस्लिम प्रतिनिधित्व निचले स्तर पर पहुंच गया है. भाजपा ने एक भी मुस्लिम सांसद के बिना लगातार बहुमत हासिल किया. विद्वान क्रिस्टोफ जैफरले कहते हैं, ''जब भाजपा कोई नया राज्य जीतती है तो मुस्लिम विधायकों की संख्या कम हो जाती है.'' उत्तर प्रदेश के 2017 के चुनावों में मुस्लिम विधायकों का अनुपात 17 फीसद से घटकर 6 फीसद पर आ गया. 2020 में बिहार के चुनावों में नया रिाकॅर्ड बना. आजादी के बाद पहली दफा किसी राज्य में एक भी मुस्लिम मंत्री या सत्ता गठजोड़ में एक भी विधायक नहीं है.