विशेषांकः खुशहाल शहरों का निर्माण
हमारे शहर भविष्य में प्रगति के वाहक होंगे लेकिन केवल सुदृढ़ नीति और भारी आर्थिक निवेश ही उन्हें इस भूमिका के लिए समर्थ बना सकती है

बीसवीं सदी के प्रारंभ में दस में से केवल एक भारतीय शहरों में रहता था. संयुक्त राष्ट्र के अनुमान के मुताबिक, 2030 तक भारत की करीब 40 प्रतिशत आबादी बड़े शहरों में रहने लगेगी. इसी तरह 2018 की यूएन की रिपोर्ट कहती है कि 2050 तक भारत, चीन और नाइजीरिया विश्व की शहरी आबादी में 35 प्रतिशत की वृद्धि का योगदान कर सकते हैं. भारत के शहरों की आबादी 41.6 करोड़ तक पहुंच जाएगी जो अमेरिका की मौजूदा कुल आबादी 33.2 करोड़ से कहीं ज्यादा है.
ऑक्सफोर्ड इकोनॉमिक्स ग्लोबल सिटीज रिपोर्ट के मुताबिक, 2019 से 2035 के बीच विश्व के 20 सबसे तेजी से बढ़ने वाले शहरों में 17 शहर अकेले भारत के होंगे. अन्य अध्ययन बताते हैं कि हमारे शहर 70 प्रतिशत नए रोजगार सृजन के साथ जीडीपी में 70 प्रतिशत का योगदान करेंगे, यही नहीं 2030 तक प्रति व्यक्ति आय में करीब चार गुना का इजाफा करेंगे. तेज शहरीकरण शहरों में बेहतर रहन-सहन की चुनौतियां भी लाता है. आवास एवं शहरी मामलों के केंद्रीय मंत्री हरदीप सिंह पुरी का कहना है कि शहरी आबादी की लगातार वृद्धि को देखते हुए भविष्य में 70 प्रतिशत आबादी के लिए रहने की व्यवस्था करनी होगी.
शहरीकरण की समुचित योजना न होने के कारण शहरों में जगह-जगह झुग्गी बस्तियां बन गई हैं, बिजली, पानी, स्वच्छता और रोजगार जैसी बुनियादी जरूरतों का अभाव हो गया है तथा अपराधों में वृद्धि होती जा रही है. प्रदूषण और भीड़ के कारण शहर रहने लायक नहीं रह गए हैं. वैश्विक वायु प्रदूषण पर नजर रखने वाली संस्था एयरविजुअल के एक अध्ययन के मुताबिक, 2019 में विश्व के सबसे ज्यादा प्रदूषित शहरों में 21 शहर भारत के थे जिनमें दिल्ली का स्थान सबसे ऊपर था. उसी साल 140 शहरों के इकोनॉमिस्ट इंटेलिजेंस यूनिट्स ग्लोबल लिवेबिलिटी इंडेक्स में दिल्ली और मुंबई का स्थान क्रमश: 118 और 119 था. भारत के शहरों का आकार बढ़ने के साथ सामाजिक व आर्थिक असमानता भी बढ़ती जा रही है. ऑक्सफैम की एक रिपोर्ट कहती है कि सबसे ऊपर और सबसे नीचे के बीच भारत की 10 प्रतिशत शहरी आबादी में 50,000 गुना का अंतर है जबकि ग्रामीण क्षेत्र यह अंतर 500 गुना है.
आवास एवं शहरी मामलों का मंत्रालय (एमओएचयूए) कई शहरी नवीनीकरण कार्यक्रम शुरू कर चुका है. इनमें शामिल हैं, स्मार्ट सिटीज मिशन, स्वच्छ भारत अभियान, एचआरआइडीए (धरोहर वाले शहरों के लिए), सभी के लिए प्रधानमंत्री आवास योजना, और एएमआरयूटी (अटल मिशन फॉर रिजुवेनेशन ऐंड अर्बन ट्रांसफार्मेशन). 2016 में भारत ने यूएन के 'न्यू अर्बन एजेंडा' में हिस्सा लिया था जिसका मकसद शहरों में नेटवर्क को मजबूत करने और दीर्घकालिक बनाना है.
एमओएचयूए की राष्ट्रीय शहरी नीति रूपरेखा के मसौदे को अभी वैधानिक मंजूरी मिलनी बाकी है. एक दूरगामी शहरी नीति आज के समय की मांग है क्योंकि पुराने और घिसे-पिटे कानून शहरों के महत्वपूर्ण विकास में बाधा डालते हैं. उदाहरण के लिए, शहरी स्थानीय निकाय (यूएलबी)—जो शहर की वृद्धि के वाहक हैं—में अपेक्षित स्वायत्तता और वित्तीय साधनों का अभाव होता है जिससे वे परियोजनाओं को शुरू नहीं कर पाते हैं. भूमि कानूनों में भी सुधार किए जाने की जरूरत है ताकि जमीन की आसमान छूती कीमतों को नियंत्रित किया जा सके. इन बढ़ती कीमतों के कारण गरीबों के लिए आवास की व्यवस्था करना पहुंच से बाहर हो जाती है. अनियोजित व अवैध निर्माण के साथ शहरों के फैलाव को रोकने के लिए भी इस तरह के कानूनों की जरूरत है.
शहरों में बुनियादी ढांचे को बेहतर बनाने में पैसों का अभाव आड़े आता है. मैककिंसले ग्लोबल इंस्टीट्यूट कहता है कि भारत शहरों के बुनियादी ढांचे पर वार्षिक रूप से प्रति व्यक्ति करीब 17 डॉलर (1,240 रु.) खर्च करता है जबकि चीन 116 डॉलर खर्च करता है और वैश्विक आंकड़ा 100 डॉलर है. 2011 में इंडियन अर्बन इन्फ्रास्ट्रक्चर ऐंड सर्विसेज पर हाइ पॉवर्ड एक्सपर्ट कमेटी की रिपोर्ट के मुताबिक, भारत में शहरों में बुनियादी ढांचे के विकास के लिए 39.2 लाख करोड़ रु. खर्च करने की जरूरत है. पुरी का कहना है कि छह वर्षों में शहरी बुनियादी ढांचे के निर्माण पर 10.57 लाख करोड़ रु. खर्च किए गए जबकि 2004 से 2014 के बीच केवल 1.57 लाख करोड़ रु. ही खर्च किए गए थे.
लेकिन यह भी शायद पर्याप्त नहीं होगा. शिमला के पूर्व डिप्टी मेयर तिकेंदर सिंह पंवार कहते हैं कि 2014 के बाद शुरू हुई कई केंद्रीय योजनाएं, फंडिंग के लिए वे बाहरी माध्यमों पर निर्भर हैं. वे नगरपालिकाओं को ज्यादा राजस्व जुटाने में मदद का मुद्दा हल नहीं करती हैं. 2015-16 में जब 40 लाख करोड़ रु. की जरूरत थी तब सभी नगरपालिकाओं ने मिलकर 1.2 लाख करोड़ रु. का राजस्व ही जुटाया था. यूएलबी अब पैसा जुटाने के लिए नए तरीके अपना रही हैं. पुरी कहते हैं, नौ शहरों ने म्युनिसिपल बांडों से अब तक 3,690 करोड़ रु. जुटा लिए हैं.
कोविड महामारी ने हमारी शहरी योजना की खामियों को और भी उघाड़ दिया और इस बात को रेखांकित कर दिया कि यूएलबी को कानूनी और वित्तीय रूप से सशक्त बनाए जाने की जरूरत है. लॉकडाउन के दौरान बड़े स्तर पर प्रवासियों के पलायन ने दिखा दिया कि सरकारें इस अदृश्य कार्यशक्ति के प्रति कितनी अनभिज्ञ थीं जबकि वह शहरी अर्थव्यवस्था का महत्वपूर्ण हिस्सा है लेकिन शहरी आबादी में सबसे निचले स्तर पर है. नई शहरी नीति में भारतीय शहरों का पुनर्निर्माण मानव पूंजी के निवास स्थलों के आसपास करने की जरूरत महसूस की गई है. बहुत कुछ इस पर निर्भर करेगा कि कितनी जल्दी और कितने प्रभावी ढंग से इसे लागू किया जाता है.