गांधी जयंतीः गांधी के दुश्मन
आलोचकों के लिए महात्मा गांधी अब भी जीवित हैं और वे पीढ़ी दर पीढ़ी उनकी नई-नई विफलताएं तलाशते रहते हैं.

फैसल देवजी
गांधी अगर आज भी हमारे बीच मौजूद हैं तो इसका श्रेय केवल और केवल उनके आलोचकों को जाता है, जो उन्हें विस्मृत ही नहीं होने देते. महात्मा के अनुयायियों ने उन्हें संत बना दिया है जिसकी शिक्षाओं की आसानी से अनदेखी की जा सकती है—जैसे किसी बड़े की बातों की दूर-दूर से प्रशंसा की जाती है. भारत में उन्हें दिए जाने वाले आनुष्ठानिक सम्मान और सार्वजनिक जीवन में उनके प्रति उपेक्षा के भाव को देखते हुए यह हैरानी की बात है कि आखिर अपने आलोचकों के बीच गांधी इतने जीवित व्यक्तित्व क्यों हैं. ये आलोचक शायद वे लोग हैं जिन्हें उनके संतत्व में आई कमी से लगता है कि उनके साथ धोखा हुआ है. विद्वानों और आंदोलनकारियों के महात्मा की कोई न कोई नई विफलता ढूंढ निकालने के साथ ही धोखा खाने का यह भाव हर पीढ़ी में नया हो जाता है.
1980 के दशक में नारीवाद की दूसरी लहर के दौरान महिलाओं के बारे में उनके विचारों को लेकर उनकी खूब बखिया उधेड़ी गई थी. उनकी इस आलोचना का आधार पत्नी कस्तूरबा गांधी के साथ उनके बर्ताव और ब्रह्मचर्य के प्रयोगों में युवा महिलाओं के साथ उनके नग्न सोने की कहानियां थीं. लेकिन इन महिलाओं की आवाज अजीब तरीके से दबाई गई है. गांधी के प्रयोगों की भागीदार रही मनुबेन ने एक डायरी लिख छोड़ी है, लेकिन किसी भी आलोचक ने उसे पढऩे की जहमत नहीं उठाई. हालांकि कभी-कभार अपने घनिष्ट लोगों के प्रति उनका रवैया कठोर होता था, लेकिन यह भी सच है कि उनकी करीबी रही कई महिलाओं, जैसे अनसूया साराभाई, मृदुला साराभाई, अमृत कौर, सरोजिनी नायडू और सुशीला नय्यर ने सार्वजनिक जीवन में प्रवेश किया था.
1990 के दशक में जब मंडल आयोग ने भारत में जाति संघर्ष को पुनर्जीवित किया तो लोगों का ध्यान गांधी के जातिगत पूर्वाग्रहों पर गया था. लेकिन, इस क्रम में गांधी के खिलाफ बी.आर. आंबेडकर के शाब्दिक प्रहारों की याद दिलाने भर से ज्यादा बहुत काम नहीं हुआ. यहां भी आलोचकों ने पूना पैक्ट के बारे में प्रचलित कथाओं पर विचार मंथन शुरू किया कि कैसे गांधी ने नीची जातियों के लिए अलग निर्वाचन व्यवस्था का विरोध करते हुए उपवास शुरू कर दिया था और कैसे इन जातियों की दुर्दशा खत्म करने को लेकर उन्हें कोई चिंता नहीं थी. यह अलग बात है कि पूना पैक्ट महज जाति का मुद्दा नहीं था, बल्कि मुसलमानों, दलितों और अन्य लोगों के बीच गठजोड़ से पैदा हुआ मुद्दा था जो भारत में किसी राष्ट्र का अस्तित्व होने से इनकार करता था.
महात्मा के आलोचक भारत में राष्ट्र की अनुपस्थिति के बारे में मोहम्मद अली जिन्ना और आंबेडकर के विचारों से तो सहमत हो सकते हैं, लेकिन वे उन वजहों पर ध्यान देने से इनकार करते हैं जिनके आधार पर गांधी ने जाति का समर्थन किया. एक अराजकतावादी के रूप में महात्मा को तत्कालीन राज्य व्यवस्था तथा औपनिवेशिक तंत्र की अपेक्षानुरूप समाज के पुनर्निर्माण की दिशा में उसके प्रयासों पर शक था. उनको लगता था कि अगर स्वराज या स्वशासन को राज्यतंत्र, जिसे भारतीयों पर कोई राष्ट्रीय पहचान थोपने नहीं दिया जा सकता, के बाहर ही जन्म लेना हो तो उस स्थिति में जाति, गांव और धार्मिक समुदाय महत्वपूर्ण होंगे. इसी वजह से ऐसी व्यवस्थाओं को नकारने के बजाए उनमें सुधार करना आवश्यक था और अपने इन्हीं विचारों के कारण गांधी क्रांतिकारी के बजाए रूढि़वादी बने रहे.
आंबेडकर की गांधी से असहमति इस तर्क के साथ शुरू हुई कि राज्य में समाज को बदलने की पूर्ण शक्ति है और इसी वजह से उन्होंने जवाहरलाल नेहरू से हाथ मिलाया. लेकिन उन्हें जल्द ही ऐसी शक्ति की ज्यादतियों और सीमाओं का एहसास हो गया और उन्होंने कैबिनेट से इस्तीफा देकर धार्मिक दृष्टि से सामाजिक परिवर्तन को बढ़ावा देने पर ध्यान केंद्रित कर दिया. उनका यह कदम गांधी के ही तरीके की याद दिलाता है. पूना पैक्ट के दौरान आंबेडकर को उनका दावा सही साबित करने की चुनौती देकर उन्हें पीछे हटने के लिए मजबूर करने वाले गांधी से स्पष्ट नफरत के बावजूद आंबेडकर ने महात्मा के सत्याग्रह की दृढ़ अवधारणा का कभी परित्याग नहीं किया.
अगर गांधी के नारीवादी शत्रु स्त्रियों की आवाज दबाते हैं तो जाति के बारे में उनके विचारों के कारण बने शत्रु इसे शुद्ध हिंदू बहस बनाए रखने के लिए इसमें मुसलमानों की भूमिका खत्म कर देते हैं—राष्ट्रीयता तथा प्रतिनिधित्व के मुद्दों पर आंबेडकर के कई तर्क ठीक वही हैं जो जिन्ना के थे. आंबेडकर के प्रति भी अगर गांधी जैसा ही रवैया अपनाया जाए तो 'पिछड़े' आदिवासियों और 'कट्टर' मुसलमानों, वे जिन्हें अलग प्रतिनिधित्व दिए जाने के खिलाफ थे, के बारे में उनके विचार ज्यादा कड़ी प्रतिक्रिया करने लायक लगेंगे. आंबेडकर को लगता था कि दलितों के लिए अलग प्रतिनिधित्व हासिल करने के उनके प्रयासों को दलितों की कीमत पर मुस्लिम लीग की कांग्रेस से समझौता करने की इच्छा से नुक्सान पहुंचा. ऐसा ही नुक्सान औपनिवेशक राज्य की ओर से भारतीय राजनीति को विभाजित करने के लिए आदिवासी प्रतिनिधित्व को बढ़ावा देने से हुआ था.
गांधी के जीवनकाल में उनके शत्रु उनके विरुद्ध जिन तर्कों को खड़ा करते थे वे राजनैतिक होते थे, न कि व्यक्तिगत. वे महात्मा को ऐसे मुस्लिम-विरोधी या हिंदू-विरोधी के रूप में देखते थे जो ज्यादा जटिल कथ्यों के काल्पनिक साक्ष्यों का खंडन करता था. यहां तक कि गांधी के हत्यारे ने भी उनकी निश्छलता को स्वीकार करते हुए हिंदुओं के साथ उनकी कथित दगाबाजी को दक्षिण अफ्रीका में भारतीय समुदाय को एकजुट करने में मिली सफलता को दोहराने के प्रयास में घरेलू परिस्थितियों को ठीक से न समझ पाना माना था. गांधी को पूंजीवादी पिट्ठू मानने वाला कम्युनिस्टों का नजरिया जटिल था जिसमें वर्ग संघर्ष के विकास से जुड़े मार्क्स के सिद्धांतों का हवाला दिया जाता था.
औपनिवेशिक अधिकारियों ने अपुष्ट कथाओं और निजी मामलों के सहारे आलोचना की शैली शुरू की, जो गांधी के शत्रुओं की विशेषता बन गई. वे महात्मा पर किसी अपराध विशेष का आरोप लगाने के बजाए उनके हर काम और हर बात को चरम पाखंड बताते थे. पाखंड पर ध्यान केंद्रित करना गांधी के शब्दों और कार्यों को राजनैतिक विचारधारा के रूप में समझने की प्रक्रिया को आधे-अधूरे उद्धरणों और षड्यंत्रों के माध्यम से महत्वहीन बनाने की छूट देता था. यह इतिहास को समझने की अति दक्षिणपंथी प्रक्रिया का लक्षण है और उनके साथ वामपंथी आलोचकों की मिलीभगत का संकेत करता है.
ये विविध और परस्पर विरोधाभासी निंदाएं हमें उन लोगों के बारे में अधिक बताती हैं जो इनका सृजन करते हैं बनिस्बत उसके जिसके बारे में वे होती हैं. गांधी वह स्रोत बन गए हैं जहां से भारतीयों की हर पीढ़ी अपनी सामाजिक और राजनैतिक चिंताओं के परिणामों को तलाश सकती है. इस रूप में वे निश्चय ही राष्ट्र के पिता हैं. ऐसे में यह आश्चर्यजनक नहीं है कि गांधी के विश्वव्यापी पुनरुत्थान के साथ ही उन पर अब उस नस्लवाद के आरोप लग रहे हैं जिसके भारतीय अब शिकार नहीं हैं, बल्कि एजेंट बन गए हैं.
हालांकि गांधी के नस्लवाद की भर्सना के बारे में अभूतपूर्व यह है कि ऐसा भारत तक ही सीमित नहीं है बल्कि वैश्विक स्तर पर हो रहा है जिसके परिणामस्वरूप अफ्रीका के कई हिस्सों में महात्मा की मूर्तियों पर हमला हुआ है या उन्हें हटा दिया गया है. गांधी के खिलाफ दो आरोप लगाए जाते हैं. यह कि उन्होंने अफ्रीकियों की स्वतंत्रता के लिए कभी कोई बात नहीं की या उन्हें अपने आंदोलनों से अलग रखा. और, यह कि वे अफ्रीकियों को हीन समझते थे और भारतीयों को उनसे अलग रखना चाहते थे. लेकिन, बिना आमंत्रण महात्मा ने कभी भी किसी ऐसे किसी समुदाय के लिए बात नहीं की, जिसके वे सदस्य नहीं थे. ऐसा इसलिए क्योंकि उन्होंने अहिंसा की कल्पना उपदेशात्मक बात के बजाए अनुकरणीय व्यवहार के रूप में की थी जिसका अनुकरण अराजकतावादी सामाजिक बहुलता को बनाए रखने के लिए किया जा सकता था.
गांधी के दौर का दक्षिण अफ्रीकी समाज ऐसा था जिसमें अलग-अलग नस्लों के लोगों के लिए अलग कानून थे. भारतीय विशेषाधिकारों की रक्षा करने वाले वकील के रूप में वे उस कानूनी व्यवस्था को चुनौती देने में असमर्थ थे. और, वहां के कानून ने भी भारतीयों और अफ्रीकियों की पहचान अलग-अलग करते हुए सुनिश्चित कर रखा था कि वे केवल भारतीयों के विशेषाधिकारों का बचाव कर सकें. हालांकि मुमकिन है कि उन्होंने भी इस नस्लीय अलगाव को ठीक माना हो या यथावत स्वीकार किया हो. फिर भी, बंबाथा विद्रोह के समय वे जिस एम्बुलेंस कोर का नेतृत्व कर रहे थे उसमें उन्होंने घायल जुलू लोगों का भी इलाज किए जाने पर जोर दिया था और उनकी राजनैतिक सहानुभूति जुलू लोगों के साथ थी, ब्रिटेन के नहीं.
जब वे वकील नहीं रहे, तो उन्होंने अफ्रीकियों के बारे में अपमानजनक टिप्पणी करना बंद कर दिया. अपनी पुस्तक दक्षिण अफ्रीका में सत्याग्रह में उन्होंने हर लिहाज से भारतीयों की तुलना में जुलू लोगों का पक्ष लिया है. अंत में तो उन्होंने अफ्रीकी-अमेरिकियों को दुनिया भर में अहिंसा का प्रतिनिधि होने की सबसे बड़ी उम्मीद के रूप में भी देखा. लेकिन कानूनी स्थिति को देखते हुए, महात्मा को अपने हमवतन भारतीयों के लिए लडऩा था. उनकी मांग दक्षिण अफ्रीका तक सीमित होने के बजाए अंतरराष्ट्रीय थी, जो भारत को बाध्य करती थी कि वह ब्रिटिश साम्राज्य में हर कहीं अपने नागरिकों की स्थिति की रक्षा करे.
हालांकि उन्होंने खुद भी ऐसा कहा है, लेकिन महात्मा के पहले सत्याग्रह को दक्षिण अफ्रीकी सत्याग्रह कहना भ्रामक है, क्योंकि इसका सीधा प्रभाव भारत पर और फिर लंदन पर पड़ता था. दक्षिण अफ्रीका उस संघर्ष में एक स्थल मात्र था जिसमें गांधी की दिलचस्पी केन्या से लेकर मॉरिशस, गुयाना, फिजी और त्रिनिदाद तक पूरे ब्रिटिश साम्राज्य में भारतीयों की स्थिति में थी. जब उन्होंने चाहा तो यह वैश्विक आंदोलन बना और वास्तव में साम्राज्य के अधिकांश हिस्सों में मजदूरों की आपूर्ति के लिए अफ्रीकी दास प्रथा की उत्तराधिकारी जैसी भारत से ठेके पर मजदूर ले जाने की प्रथा को खत्म कराने में सफल रहा.
इन सबके बावजूद, शायद गांधी नस्लवादी थे, लेकिन इसकी जानकारी हमें उनके दुश्मनों से नहीं मिलती जो उनके खिलाफ व्यक्तिगत और अक्सर षड्यंत्रपूर्ण तर्क रखते हुए उनके विचारों की संपूर्णता को बाधित करते हैं और कई उन संदर्भों की अनदेखी करते हैं जिनमें उन्होंने काम किया था. यहां तक कि हिटलर पर भी नस्लवाद का आरोप लगाना निरर्थक बात है, क्योंकि हम उसकी हिंसा को केवल तब समझ सकते हैं जब उससे जुड़े बौद्धिक औचित्य और ऐतिहासिक संदर्भों को ध्यान में रखें. संत को पापी में बदल देने के बजाए महात्मा के दोस्तों और दुश्मनों, दोनों के लिए यह समय उन्हें समुचित रूप से ऐतिहासिक व्यक्ति बनाने का है.
फैसल देवजी ऑक्सफर्ड विश्वविद्यालय में भारतीय इतिहास के प्रोफेसर हैं
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