समलैंगिक प्यार की दास्तान
एक बार वर्मा की मां परिवार की विरासत के गहने-जेवर बांट रही थीं, तभी उन्होंने ऐलान कर दिया कि उन्हें यह नहीं चाहिए क्योंकि वे गे हैं. उन्होंने अपने शौहर से कहा कि सुनीत कोई राज की बात बताना चाहता है.

158 साल पुराने कानून को रद्द करते हुए न्यायमूर्ति आर.एफ. नरीमन ने ऑस्कर वाइल्ड के प्रेमी लॉर्ड अल्फ्रेड "बोसी'' डगलस की कविता का हवाला दिया. उन्होंने उनकी टू लव्ज कविता की आखिरी पंक्ति चुनीः "आइ एम द लव दैट डेयर नॉट स्पीक इट्स नेम (मैं वह प्यार हूं जो अपना नाम पुकारने की जुर्रत नहीं करता).'' चाय के अनगित दौर और देश भर से फोन कॉल्स पर समलैंगिकों ने अपनी वर्जित मुहब्बत, अकेलेपन, मनमुटाव तथा संस्कृति और आसपास की दुनिया में अपनी गुमनामी की कहानियां हमें सुनाईं. उन्होंने सदमे, डर और सताए जाने के बारे में बात की.
आयेशा सूद और सुनीत वर्मा जैसे लोगों के बावजूद, जो शुरू से इतने खुशकिस्मत थे कि उनके परिवारों ने उनकी यौनिकता को स्वीकारा और धारा 377 उनके लिए एक "दुखद हकीकत'' भर थी, हजारों लोग जालंधर के 27 वर्षीय देविंदर राजपूत सरीखे भी हैं जिन्हें समलैंगिक होने की वजह से बहिष्कार और यहां तक कि रोज मार-पीट का सामना करना पड़ा. जरूरी नहीं कि हमेशा ऐसा ही हो.
यहां दो युगल एक-दूसरे के साथ प्यार के बंधन के बारे में बात कर रहे हैं, महानगर के एक अकेले समलैंगिक पुरुष साथी की खोज के बारे में बता रहे हैं और गांव-देहात के एक कद्दावर शख्स अपने उस जज्बे की कहानी बयान कर रहे हैं जिससे उन्होंने तमाम बाधाओं को पार किया और अपने प्रेमी तक पहुंचने के लिए खुद अपना रास्ता बनाया.
हो सकता है उम्मीद, बहादुरी और मुहब्बत की ये कहानियां उन्हें कुछ कम गुमनाम और बहुत ज्यादा वैध बना दें. क्योंकि, जैसा कि अदालत ने कहा, प्यार तो प्यार है.
"मुझे प्यार खोजने के लिए कभी गे पिकअप ठिकानों पर नहीं जाना पड़ा''
डिजाइनर सुनीत वर्मा के साउथ दिल्ली के न्यू फ्रेंड्स कॉलोनी के घर में पक्षियों का पिंजरा शान से रखा हुआ है. गुरुवार 6 सितंबर को जब धारा 377 पर ऐतिहासिक फैसला आया, इस छोटे से कैदखाने के संगमरमरी परिंदे समारोहपूर्वक आजाद कर दिए गए जिसके मायने सुनीत और उनके "हस्बैंड'' राहुल अरोड़ा के लिए बहुत गहरे हैं.
52 साल के सुनीत और 31 साल के राहुल अरोड़ा ने 2013 में न्यूयॉर्क में शादी रचाई थी. वे पहली बार इसी शहर के एक गे बार में मिले थे. इस ब्लाइंड डेट को उनके कॉमन फ्रैंडस ने उन दोनों के लिए तय किया था. इस मुलाकात में दोनों को एक कोड की अदला-बदली करनी थी.
राहुल तो रात 11 बजे पहुंच गए पर सुनीत बारिश में फंस गए. राहुल को खोजने के लिए उन्हें उस भीड़ भरे बार में उस कोड को वाकई बहुत ऊंची आवाज में जोर से चिल्लाना पड़ा. 2008 की पहली डेट के बाद पांच साल तक उनका रोमांस चला. ये राहुल थे जिन्होंने 2013 में शादी का प्रस्ताव रखा.
वह एलजीबीटी प्रदर्शनों में हिस्सा लेते रहे. वर्मा कहते हैं कि "विशेषाधिकार संपन्न दुनिया'' का हिस्सा होने का मतलब यह था कि उन्हें अपने प्यार के अधिकार को लेकर कभी ज्यादा चिंता नहीं करनी पड़ी. उनके लिए यह एक्टिविज्म नहीं बल्कि ऐक्ट ऑफ लव था.
एक बार वर्मा की मां परिवार की विरासत के गहने-जेवर बांट रही थीं, तभी उन्होंने ऐलान कर दिया कि उन्हें यह नहीं चाहिए क्योंकि वे गे हैं. उन्होंने अपने शौहर से कहा कि सुनीत कोई राज की बात बताना चाहता है. पिता ने कहा कि यह न्यूज बुलेटिन खत्म होने तक इंतजार कर सकता है. सुनीत बताते हैं, "मेरी मां ने कहा "सुनीत, हमें अफसोस है कि इस सबमें तुम्हारी मदद करने के लिए हम नहीं थे,'' और बस बात खत्म हो गई.''
फैशन की दुनिया में समलैंगिक होना कभी असामान्य नहीं था. वर्मा कहते हैं, "मेरे इर्दगिर्द कोई होमोफोबिया नहीं था. लेकिन मुझे प्यार खोजने के लिए कभी नेहरू पार्क सरीखे गे पिकअप पॉइंट पर नहीं जाना पड़ा.''
राहुल के परवरिश के दिन आसान नहीं थे. पांचवीं कक्षा मंर राहुल दिल्ली के स्कूल में एक दोस्त को चूमते हुए पकड़े गए. राहुल कहते हैं, "मुझे गे बॉय कहा गया; यह सदमा पहुंचाने वाला था.'' पुणे में इंजीनियरिंग की पढ़ाई के दौरान राहुल ने कुछ पुरुषों को डेट किया. सुनीत ने 10 साल तक एक अमेरिकी को डेट किया और फिर उसके साथ ब्रेकअप हो गया.
उनकी मां उनके पार्टनर को अपने दामाद की तरह मानतीं. सुनीत कहते हैं, "मैं अब निश्चिंत हूं कि अपने देश में अपराधी नहीं हूं. मेरे लिए भविष्य रोमांचक है.'' पंछियों के पिंजरे के दरवाजे खुल चुके हैं.
"यह अपने आप में बड़ी गहरी नैतिक शिक्षा है''
बेंगलूरू में परवरिश के दौरान कबन पार्क के अंधेरे कोनों से बाहर आने की बहादुरी उनमें नहीं थी. कभी-कभार वे समलैंगिक किस्सों की किताबें उधार ले आते और पढ़ते, ताकि अकेलापन कम हो. मगर अब वे खुलेआम गे या समलैंगिक हैं और बेतरतीब अचानक यौन मुलाकातों की "कम डंप'' उपसंस्कृति का हिस्सा हैं, वे कहते हैं, "मैं बिस्तर से परे चीजों को एक्सप्लोर करना चाहता हूं.''
निओन की रौशनियों से नहाए इस शहर में कार्तिक कल्याणरमण खुद को हार्ट क्रेन की एक कविता की तरफ बार-बार लौटता पाते हैं. क्रेन अमेरिकी कवि थे जिनके मकबरे पर लिखा है—लॉस्ट एट सी'' (सागर में गुम).
क्यूरेटोरिअल कलेक्टिव 64/1 चलाने वाले 39 वर्षीय कार्तिक और शहर में ही रह रहे उनके भाई राघव के.के. के लिए "ब्रोकन टावर'' कविता की इन पंक्तियों की गूंज कुछ खास ही हैः "ऐंड सो इट वॉज आइ एंटर्ड द ब्रोकन वर्ल्ड/ टू ट्रेस द विजनरी कंपनी ऑफ लव'' (और इस तरह यह मैं था जो छिन्न-भिन्न दुनिया में दाखिल हुआ/प्यार की मनमौजी संगत की तलाश करता).
कार्तिक की पीढ़ी ने कठिन वक्त में अपनी जिंदगी जी है, जिसमें उन्होंने देश में समलैंगिक मर्दों और औरतों के दर्जे में आमूलचूल बदलाव होते देखा है.
वे कम उम्र में ही अमेरिका चले गए थे, कई गे लोगों के साथ दबे-छिपे रिश्ते रखे और खुलेआम गे बनकर लौटे. वे कहते हैं, "इस बारे में मैं बात भी कर रहा हूं तो इसकी अकेली वजह यह उम्मीद है कि मुझे मेरे पिता से संपूर्ण स्वीकृति मिली.
जीने और मरने के बीच का जो फर्क इसने पैदा कर दिया, मेरी कहानी समलैंगिक बेटे या बेटी को स्वीकार करने में शायद दूसरों की मदद कर सके.''
उनके पिता ने अपने बेटे के गे तजुर्बे के बारे में और ज्यादा जानने का फैसला किया और यहां तक कि उन्हें हिंदुस्तान में बनने वाली पहली गे फिल्मों में से एक मैंगो सूफले में एक भूमिका की भी पेशकश की. उन्होंने अपने बेटे से कहा कि पुरुषों से प्यार करने में कोई बुराई नहीं है.
कार्तिक कहते हैं, "स्वछंद संभोग हमें आपस में बांधता है. यह मुझे अपने अंग्रेजी बोलने वाले उच्च मध्यमवर्गीय पिंजरे से निकल भागने में समर्थ बनाता है.''
वे कहते हैं, "यह तथाकथित बुराई, यह यौन अनैतिकता यकीनन अपने आप में गहरी नैतिक शिक्षा है.''
"कानून के मुताबिक हम महज दोस्त भर हैं''
आयशा सूद अपने अंकल और आंटी की शादी की सालगिरह पर मून रिवर डांस के दौरान लिए उस चुंबन और जोश को याद करती हैं. तब वह 13 साल की थीं. आज वे 42 साल की हैं और जब 10 साल से अपनी पार्टनर 40 साल की रीचा उपाध्याय की तरफ देखती हैं तो वही जोश दिखता है. रीचा के लिए उनके दिल में उसी तरह की मुहब्बत है.
आयशा के लिए माता-पिता के सामने खुलकर आना रीचा के मुकाबले कहीं ज्यादा आसान था. दिल्ली में जामुन कलेक्टिव चला रही फिल्ममेकर आयशा कहती हैं, "मैं विशेषाधिकार संपन्न जगह से आई हूं.''
लेकिन रीचा जो कि न्यूयॉर्क के एक परंपरागत प्रवासी भारतीय परिवार में पली-बढ़ी हैं, के लिए भेदभाव और संदेह भरे माहौल से परिवार में ही वास्ता पड़ा था. रीचा कहती हैं, "कानून भी है और संस्कृति भी.''
वे पर्पस ग्लोबल पीबीसी की कैंपेन डायरेक्टर हैं. आयशा और रीचा की मुलाकात 10 साल पहले दिल्ली में हुई थी. आयशा याद करती हैं कि उनकी मां उन्हें बताती थीं कि जब वे शॉपिंग के लिए जाती थीं, तब वे लड़कों के सेक्शन में चली जाती थीं. वे कहती हैं, दिक्कत तब शुरू होती है जब आप मर्दाने की तरह बड़े होते हैं, आदमी आपको स्वीकार नहीं करते, "या तो आप यार-दोस्त होते हैं या खतरा.''
रीचा फेम हैं, यानी हावभाव और बर्ताव में नारीसुलभ समलैंगिक. उनकी पैदाइश हिंदुस्तान में हुई, पर पली-बढ़ीं अमेरिका में. शुरुआत में उन्होंने जरूर कुछ लड़कों को डेट किया, पर जब 25 साल की थीं तब अपने माता-पिता को बता दिया.
फिर क्या था, माता-पिता ने सलाह दी कि वे मनोचिकित्सक की मदद लें. इसकी बजाए वे न्यूयॉर्क सिटी के लेस्बियन बार में अलहदा किस्म के वैकल्पिक दोस्त से मिलने-जुलने लगीं. पेरेंट्स के लिए वे पराई हो चुकी थीं.
अब जब हिंदुस्तान "फ्री टू मी'' जेंडर पॉलिटिक्स की मौजूदा लहर से गुजर रहा है, आयशा और रीचा सरीखी जोड़ी महिला समलैंगिकतावाद को नए सिरे से परिभाषित कर रही हैं. आयशा कहती हैं, "मुझे उम्मीद है, लेस्बियन अब गे पुरुषों की तरह और ज्यादा मौज-मस्ती कर सकेंगी.''
आयशा और रीचा का एक घर है जहां से हौज खास की झील का खूबसूरत नजारा दिखाई देता है. पुलिस उनके घर जांच-पड़ताल के लिए कभी नहीं आई.
बाहर की दुनिया के लिए वे साथ रह रही गर्लफ्रेंड हैं. मगर वे ब्याह करना चाहेंगी और हो सकता है, बच्चे गोद लेना भी.
आयशा कहती हैं, "जब मेरी तबीयत नासाज होती है तब मेरे लिए उससे बेहतर फैसला कौन ले सकता है.'' वहीं रीचा कहती हैं, "मगर हकीकत यह है कि कानून के मुताबिक हम महज दोस्त भर हैं.'' आयशा के माता-पिता ने सुप्रीम कोर्ट के फैसले का जश्न मनाने के लिए केक और शैंपेन के साथ ब्रंच का आयोजन किया.
पिता ने रीचा को बहू पुकारना शुरू किया है. ब्रंच पर जब आयशा ने लंबे वक्त बाद गिटार उठाया है, तो वह बीटल की धुन लेट इट बी बजाना चाहती हैं.
आयशा और रीचा शादी करके बच्चे गोद लेने की तमन्ना रखते हैं
"मां, बड़ा भाई हमेशा कहते मर्द की तरह चला करो''
दो साल पहले की बात है. जालंधर में अपने घर की लॉबी में बैठकर वह टेलीविजन पर पंजाबी गीत देख रहे थे. उनकी मां और बहन भी वहां थीं. तभी उनका बड़ा भाई घर में आया. उसने मोटरसाइकिल की चाबियां टेबल पर रखीं, टेलीविजन बंद किया और फिर उनके चेहरे और गर्दन पर दनादन कई घूंसे बरसा दिए.
उनका खून निकल आया. यह सब कुछ मिनटों तक चला. किसी ने कोई हस्तक्षेप नहीं किया. किसी ने एक शब्द तक नहीं कहा. पिटाई करने के बाद उनका भाई चुपचाप वैसे ही बाहर चला गया, जैसे अंदर आया था. 27 वर्षीय दविंदर राजपूत फिर कुर्सी पर बैठ गए और टीवी की ओर देखते रहे. उस टीवी की ओर जो अब बंद था.
राजपूत, जो खुद को सनी कहलाना ज्यादा पसंद करते हैं, उस दिन को याद करते हुए बताते हैं कि सबसे भयावह तो वह खामोशी थी, न कि पिटाई. उस पिटाई के दौरान पसरी सबकी चुप्पी अभी तक उनके कानों में कौंधती है—उस दिन सब चुप क्यों रहे, किसी ने भी क्यों नहीं रोका.
वे बताते हैं, "इसके बाद मैंने अपना गांव छोड़ दिया और चंडीगढ़ के बाहर स्थित एक छोटी-सी जगह... माजरा चला आया. मेरी मां और मेरे बड़े भाई हमेशा मुझसे कहा करते कि एक मर्द की तरह चलो. उन्होंने कभी यह नहीं समझा कि मैं किसी की तरह नहीं चल रहा था.
मैं ऐसा ही था.'' इस रक्षाबंधन, जब वे घर गए तो उनकी मां, जिन्होंने पारिवारिक संपत्ति से तो उनका नाम पहले ही बाहर करा दिया है, ने कहा कि राखी बंधवाने के तुरंत बाद यहां से चले जाना. राजपूत तुरंत चले भी गए.
वे कहते हैं, "लौटते समय पूरे रास्ते मैं रोता रहा. इसलिए नहीं कि मेरा अपमान हुआ था, बल्कि इसलिए कि मैंने उन्हें अपमान करने का मौका दिया था. अब, कभी वापस नहीं जाऊंगा.''
एक देर शाम, जालंधर बस स्टैंड पर कुछ मर्दों ने उन्हें घेर लिया. वे उन्हें गलत तरीके से छूने लगे और उनके कपड़े खींचने लगे. "वहां से गुजर रहे एक यात्री ने मुझे बचाया था.''
राजपूत का कहना है कि सुप्रीम कोर्ट का ऐतिहासिक फैसला निश्चित रूप से अब एक चीज तो बदल ही देगा, "हम वापस लडऩे में सक्षम होंगे.
पुलिस अब हमारी बातें भी सुनेगी और वह धारा 377 के तहत अब हम पर मुकदमे नहीं दर्ज किया करेगी.'' राजपूत के परिवार का मानना है कि उनके जैसे लोगों के लिए समाज में जगह नहीं है.
अमृतसर के गुरु नानक देव विश्वविद्यालय का यह युवा स्नातक चंडीगढ़ जैसे शहर को पसंद करता है भले ही वह कितना महंगा क्यों न हो.
"कोई मुझे यहां परेशान नहीं करता. मैं अपने समलैंगिक और विषमलिंगी दोस्तों के साथ विश्वविद्यालय में घंटों समय बिताता हूं.
महिलाएं हमेशा हमारे प्रति दयालु रही हैं लेकिन अगर हमें कोई परेशानी आती है, तो हम धन से लेकर सुरक्षा और संपर्क तक की हर मदद के लिए चंडीगढ़ के बाहरी इलाके में स्थित ट्रांसजेंडर डेरा जाते हैं.''
राजपूत एक इमिग्रेशन एजेंट का काम करते थे लेकिन वे नौकरी छोड़कर एलजीबीटी अधिकारों के लिए पूर्णकालिक काम करने लगे. वह नौकरी बदलने की योजना बना रहे हैं. राजपूत कहते हैं, "मैं आज रात ही इंदौर जा रहा हूं, अपने साथी के साथ कुछ समय बिताने.
उसके परिवार को हमारे बारे में पता नहीं है, लेकिन इस बार हम उन्हें इस बारे में बता सकते हैं. इस फैसले ने हमारे लिए कई चीजें बदली हैं और यह बदलाव केवल कानून का नहीं है.'' राजपूत ने सफर की तैयारियां पूरी कर ली हैं.
उन्हें नहीं पता कि उनके साथी के माता-पिता की क्या प्रतिक्रिया होगी लेकिन अब अचानक उनमें इतना आत्मविश्वास आ गया है कि वे ट्रेन के एक नॉन-एसी डिब्बे में बैठकर सफर कर सकते हैं. वे अब अपने तरीके से चल सकते हैं.
दविवंदर राजपूत एलजीबीटी एक्टिविस्ट और गुरु नानक देव यूनिवर्सिटी से स्नातक हैं.
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